सम्पादकीय

एसएमसी की दखलअंदाजी और प्रासंगिकता

Rani Sahu
9 Sep 2022 7:11 PM GMT
एसएमसी की दखलअंदाजी और प्रासंगिकता
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एसएमसी को स्कूल कल्याण के लिए कई संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं। क्या इनका ज़मीनी स्तर पर लाभ मिल रहा है या कहीं करप्शन का दूसरा नाम इसका पद तो नहीं हो रहा? नि:संदेह नीति के अंतर्गत पारदर्शी सोच वाला व्यक्तित्व व कल्याण की भावना रखने वाला व्यक्ति यदि एसएमसी प्रधान के पद पर तैनात होता है तो वह प्रधानाचार्य के साथ मिलकर स्कूल के स्तर को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकता है, लेकिन प्रश्न कई हैं? क्या ज़मीनी स्तर पर सरकार की इस सोच को बल मिला है, जिसके तहत एसएमसी का इस रूप में प्रादुर्भाव हुआ। यदि जमीनी स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो दस प्रतिशत भी हां में जवाब नहीं मिलेगा। उल्टे कई जगह इसका प्रतिकूल प्रभाव ही नजऱ आ रहा है। एसएमसी प्रधान कई जगह इसे पंचायत प्रधान की तजऱ् पर जोड़ रहे हैं, स्कूल के सर्वेसर्वा बनना चाहते हैं व हर कार्य के लिए अपनी अनुमति लेना संवैधानिक अधिकार मान रहे हैं। यहां तक कि कोई तबादला हो या रिटायरमेंट विदाई पार्टी, इसके लिए इन्हें पूछा जाए, ऐसी सोच को सिर्फ अपनी उपस्थिति व शक्ति का आभास करवाना होता है। इन्हें शिक्षा व शिक्षा के स्तर को शिखर तक पहुंचाने में लेशमात्र भी दिलचस्पी नहीं है।
ग्रामीण-शहरी दोनों ही क्षेत्रों में यह देखने में पाया गया है कि जो शिक्षक इनके साथ खाने-पीने व दोस्ती का भान करवाते हैं, वे चाहे अपना कार्य सुचारू ढंग से करें या न करें, उनके हक में यह तबादले न करवाने की सिफारिश कर डालते हैं या यूं कहें कि यह ऐसे शिक्षकों के दिमाग के मोहरे बन जाते हैं। जहां इनसे दूरी बरती गई, वहां धमकी व ट्रांसफर का दौर शुरू। यह ज्यादा मुश्किल हालात वहां पैदा करते हैं जहां जैंडर भिन्नता हो। ऐसे में किसी भी संस्था का उत्थान कैसे संभव है। नीतिकार नीतियां तो बनाते हैंं, पर उसका ज़मीनी स्तर पर क्या असर है, इस पर कार्य शून्य है। हर नीति पर उसके अच्छे व बुरे परिणाम की समीक्षा होनी चाहिए। अभिभावक भी एसएमसी के महत्त्व को उसके प्रधान की नियुक्ति तक ही सीमित मानते हैं व कई जगह यह प्रधान अभिभावकों को अध्यापकों से सीधे संवाद से मना कर व खुद के माध्यम से बात करने का जिक्र करते सुने गए हैं। वे शायद उन्हें दी गई सहूलियत का राजनीतिक द्वेष भावना में भी उपयोग करते पाए गए व अपने शक्ति प्रदर्शन का अड्डा स्कूल जैसी संस्था को बनाते फिरते हैं। अभिभावक भी उनकी इस मंशा से बेखबर अनभिज्ञता के कारण उनकी कठपुतली बन लक्ष्य से भ्रमित होते हैं। स्कूल में केन्द्र बिन्दु सिर्फ विद्यार्थी हैं, फिर चाहे अध्यापक, अभिभावक या एसएमसी कोई भी क्यों न हों, लक्ष्य सिर्फ एक ही है, विद्यार्थी का चहुंमुखी विकास। आने वाले भारत की रूपरेखा सिर्फ स्कूल में ही गढ़ी जाती है। स्कूल भविष्य की उम्मीद की किरण ही नहीं, बल्कि आशा व विश्वास की एक परिपक्व धुरी है जिसमें भविष्य के भारत के सपने खिलखिला रहे हैं। इसकी जिम्मेदारी अध्यापक पर तो है ही, पर नीतिकारों ने इसकी जिम्मेदारी एसएमसी के ज़रिए अभिभावक के कंधे पर भी दी है जिसे अभिभावक समझने में पिछड़ रहा है।
अभिभावक यह भूलता जा रहा है कि उनके बच्चे के दुनिया में दो ही हितैषी हैं, एक वह स्वयं, दूसरा अध्यापक, न कि कोई एसएमसी या उसका प्रधान। क्योंकि उनके बच्चे को जितना वे स्वयं अच्छे से समझ सकते हैं या उसका अध्यापक, उतना कोई और नहीं, फिर चाहे एसएमसी प्रधान हो या कोई और। इसके लिए अभिभावक व अध्यापक की सीधी बातचीत बहुत जरूरी है। लेकिन अभिभावक जैसे चेतना खोए बस शून्य में जा बैठे हों या उन्हें सिस्टम या स्कूल किसी पर भरोसा ही न रहा हो। नि:संदेह इसके लिए अभिभावक ही दोषी नहीं, बल्कि अध्यापक भी जिम्मेदार है क्योंकि वह भी तबादले के डर से व स्कूल में सालों अपनी जगह बनाने के एवज़ में सत्य से आंखें चुराए, मतलब की धुरी में नजर आ रहा है व एसएमसी प्रधान से दोस्ती गांठ कर अपना उल्लू ही नहीं साधते, बल्कि कई बार अपने साथी अध्यापक से मतभेद के कारण अपनी शिक्षा का लाभ उठाए एसएमसी प्रधान को भी भडक़ाते नजऱ आते हैं व स्कूल कल्याण कार्य में कई तरह की बाधा उत्पन्न करते हैं। इसी अज्ञानता व दिग्भ्रमित होने के कारण अभिभावक अध्यापक को पहचान ही नहीं पाते। एक अध्यापक सिर्फ कक्षा में सिलेबस नहीं करवा रहा होता, बल्कि वह हर एक बच्चे के बौद्धिक स्तर के हिसाब से उसकी सोच को सही दिशा दे रहा होता है। क्योंकि इनसान बन कर ही उत्थान संभव है, न कि किसी विषय में अंक लेकर व्यक्ति उत्थान के मार्ग पर चल पड़ता है। यदि ऐसा होता तो कोई इंजीनियर लादेन नहीं बनता। सोच पनपना व दिशा देना सिर्फ स्कूल का कार्य है। लेकिन अध्यापक बच्चे की पूरी साइकोलॉजी जानता है क्योंकि माता-पिता की तरह वह उससे स्नेह ही नहीं करता अपितु मातृ-पितृ प्रेम से भिन्न मोह से ग्रस्त नहीं होता जिस कारण सत्य देख पाता है।
वह कक्षा कक्ष की भूमिका में मानसिक चेतना, बौद्धिक स्तर को उजागर ही नहीं करता, अपितु मूल्यों का समावेश कर उसकी अंतरात्मा को प्रकाशमान करता है। हर एक बच्चा अपने में अद्वितीय, दूसरे से भिन्न है, यह जानते हुए अध्यापक हर एक बच्चे के बौद्धिक स्तर में जाकर उससे समझने व समझाने में अपनी जान लगा देते हैं। भावनामयी इस अध्यापक व विद्यार्थी का संबंध ही संसार में एक ऐसा संबंध है जिसमें हर एक अध्यापक पूरी तरह से देने की भावना से भरा होता है व अपना सर्व ज्ञान विद्यार्थी की झोली में डालना चाहता है। लेकिन अभिभावकों को अध्यापकों की गुरु-शिष्य परंपरा को समझने में शायद कठिनाई हो रही है जो एसएमसी के माध्यम से दूरी का निर्माण हो रहा है : 'अधिकार बहुत पा लेने से सुधार नहीं आता/भावना व कत्र्तव्य बोध बिना कर्म ज्ञान न आता/कत्र्तव्य की मशाल बिना तेज़ोमय न बन पाता/एसएमसी शक्ति का अखाड़ा समझ न आता।' नीतिकारों ने शक्ति देकर जो सुधार चाहा, उसकी भावना का अमृत कोई कानून नहीं ला सकता। अभी भी सरकार को जागना चाहिए व स्कूल को देश के भविष्य का प्रतिबिंब मानकर इस पद पर एसएमसी के साथ एसडीएम व डीसी को जोडक़र, एसएमसी प्रधान की शक्ति का स्थानांतरण कर इसकी त्रुटियों को खत्म कर उत्थान का मार्ग प्रशस्त करें और इसके साथ ही स्कूल मुखिया के हाथ भी कार्यकुशलता व पारदर्शिता के लिए स्वत: ही खुल जाएंगे। वैसे भी किसी भी स्कूल के लिए शिक्षा के स्तर में सुधार हेतु व अन्य क्रियाकलाप में भी प्रधानाचार्य से बढक़र कोई भी हितैषी और सफल प्रशासक नहीं होता है।
रीना भारद्वाज
लेखिका रोहड़ू से हैं

By: divyahimachal

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