सम्पादकीय

बौद्धिक विरासत : विद्यार्थी दिवस मनाएं या गैरबराबरी खत्म करें

Gulabi
13 March 2022 5:35 PM GMT
बौद्धिक विरासत : विद्यार्थी दिवस मनाएं या गैरबराबरी खत्म करें
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बौद्धिक विरासत
श्यौराज सिंह बेचैन।
हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने एक ऐसे विद्यार्थी की ओर ध्यानाकर्षित किया, जो निर्विवाद रूप से विद्या के प्रति विशेष आग्रही रहे थे। महामहिम राष्ट्रपति ने कहा, 'डॉ. भीमराव आंबेडकर के योगदान को याद करने के लिए सात नवंबर को देश भर में विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए।' महाराष्ट्र के स्कूलों में विद्यार्थी दिवस के रूप में यह पहले से ही मनाया जाता है, क्योंकि विद्यार्थी आंबेडकर ने सात नवंबर, 1900 को स्कूल में प्रवेश लिया था।
विद्या-विकास की दृष्टि से यह एक सार्थक और प्रेरक पहल है। लेकिन पूजने से ज्यादा जरूरी होता है पुस्तक का रचा और पढ़ा जाना। ठीक उसी तरह हमारे महापुरुषों को उनके जन्मदिन पर पूजने से ज्यादा उनके विचारों को मानना, अपने जीवन में उतारना ज्यादा महत्वपूर्ण है। राष्ट्र की ज्ञान व्यवस्था को समृद्ध करने में समर्पित छात्रों की आवश्यकता होती है, जो देश की बौद्धिक विरासत में अभिवृद्धि कर उसे अग्रसारित करते हैं। ज्ञान की विविधता के मद्देनजर प्रेरक व अनुकरणीय दिवस मनाए जाने ही चाहिए।
जन्मदिन उस विचार का मनाया जाना चाहिए, जिसने जन्म दर नियंत्रित कर जनसंख्या के अनियंत्रित होते घनत्व पर ब्रेक लगाया। उन प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों के, आविष्कारकों के जन्म दिवस मनाए ही जाने चाहिए, जिन्होंने अन्न का, दूध का, दवा का उत्पादन बढ़ाया, जिस कारण आज हम अमेरिका से गेहूं मंगाने को मजबूर नहीं हैं। लेकिन एक ओर अनाज भंडारों में सड़ता अन्न, दूसरी तरफ करोड़ों लोगों का भूखा सोना-हमारे राष्ट्रीय विकास पर प्रश्नचिह्न है। इसका समाधान नहीं हुआ, तो भूखे बच्चे विद्यार्थी कैसे बनेंगे? भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता, अध्ययन कैसे होगा? ऐसे लोग जो रोटी-दाल बांटकर एक बड़ी आबादी को जिंदा भर रखना चाहते हैं, वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर उन्हें आत्मनिर्भर होते देखना चाहेंगे?
कोरोना की दो साल की मार से असंख्य छात्रों को भारी क्षति हुई है। पर जिन दलित छात्रों के साथ पिछले सौ साल से भी अधिक समय से भेदभाव जारी है, उनके लिए तो यह क्षति अकल्पनीय है। कोरोना के दौर में सोशल डिस्टेंसिंग अस्पृश्य माने जाने वाले समाज के प्रति बेहद नुकसानदेह साबित हुई। वितरण व्यवस्था दुरुस्त हो, तो हम दावा कर सकते हैं कि कोई भारतीय भूख से नहीं मरेगा। हम खाद्य सामग्री की 'जमाखोरी' रोक सकें, तो अन्न सड़ने की नौबत न आए।
जन्मदिन नई पीढ़ी के लिए उत्सवों में सबसे ऊंचा है। ऐसे भी अभिभावक हैं, जिन्हें लगता है कि बच्चे का जन्मदिन नहीं मना, तो उसकी समुचित परवरिश नहीं हुई। परीक्षा में अच्छा परिणाम आए, तो परिणाम का जन्मदिन मनाया जाए। हरित क्रांति का, श्वेत क्रांति का दिवस मनाया जाए, आने वाले दिनों में संपूर्ण साक्षरता का जन्मदिन मनाया जाए, कोई सरकार उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के दायरे में ले आए, तो वह दिन हजार बार मनाया जाए। शिक्षा-साहित्य में विकसित देशों की तरह किताबों, स्कूलों, पुस्तकालयों, अखबारों और पत्रिकाओं के जन्मदिन मनाए जाने चाहिए।
पिछले महीने हमने संत शिरोमणि रैदास का जन्म दिवस मनाया है। निर्गुण संत कर्म की सत्ता को महत्व देते हैं, अपने चिंतन में मानव कल्याण की सर्वोत्तम व्यवस्था की कामना करते हैं, ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न, छोट- बडे़ सब सम रहें, रैदास रहे प्रसन्न। रैदास ने यह कामना भौतिकवादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स के जन्म से पहले व्यक्त की थी। भारत के संविधान में मानवाधिकार, मानव गरिमा, समता-स्वतंत्रता का विशेष ख्याल रखा गया है।
गुरु रैदास जिस कल्याणकारी राज की कल्पना करते हैं, संविधान की प्रस्तावना में वह भाव एक संकल्प के रूप में 'हम भारत के लोग' का आदर्श है। हम उस दिन का उत्सव क्यों न मनाएं, जिस दिन राजशाही को तिलांजलि देकर हमने लोकतंत्र की दहलीज पर कदम रखा था? लोकतांत्रिक संविधान का जन्मदिन स्कूल-कॉलेजों में मनाए जाने की जरूरत है। यदि हम विद्यार्जन को विशेष महत्व देंगे और मतदाताओं को जागरूक कर सकेंगे, तो संविधान संगत राष्ट्र निर्माण में रचनात्मक भूमिका अदा करेंगे। लोकतंत्र को भीड़तंत्र होने से बचा सकेंगे।
देश में हजार विश्वविद्यालय हैं, पचास हजार महाविद्यालय और लाख से ऊपर स्कूल हैं, करीब चार करोड़ विद्यार्थी पढ़ रहे हैं, तो यह संख्यात्मक दृष्टि से बड़ी उपलब्धि है। पर दूसरे पहलू की कल्पना कीजिए। जिन स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की फीस आसमान छू रही हो, वहां क्या कोई आज का 'आंबेडकर विद्यार्थी' प्रवेश पा सकेगा? क्या यह चिंताजनक नहीं है कि आज के बाल आंबेडकरों की स्कूल-कॉलेजों से बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर सबसे अधिक है? कई विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का पचासवां, पचहत्तरवां और सौवां जन्मदिन मना रहे हैं। लेकिन आंबेडकर को इनमें से किसी ने सम्मान नहीं दिया।
हम विद्यार्थियों की शिक्षा पर करोड़ों रुपया इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, रूस में खर्च करते हैं। लेकिन 'आंबेडकर विद्यार्थी' समाज के जिस सोपान से आते हैं, उसमें उन पांच हजार विद्यार्थियों पर सरकार का जितना खर्च होता है, प्रभुवर्ग के कुछ विद्यार्थी उससे कहीं अधिक धन अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के शिक्षा संस्थानों को पहुंचाते हैं और उनके अभिभावक उन्हें वहीं बस जाने देना चाहते हैं। ऐसे में, शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त इस गैरबराबरी को खत्म करना विद्यार्थी दिवस मनाने से ज्यादा जरूरी है। (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विषय के विभागाध्यक्ष हैं।)
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