सम्पादकीय

चिंतन और दर्शन का एकात्म

Subhi
14 Feb 2021 3:32 AM GMT
चिंतन और दर्शन का एकात्म
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एकात्म मानववाद के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय समाज को एक थाती सौंप गए हैं,

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | एकात्म मानववाद के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय समाज को एक थाती सौंप गए हैं, जो आधुनिक, सशक्त और समृद्ध भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है। अर्थशास्त्र में व्यष्टि से समिष्ट तक का अध्ययन होता है। व्यष्टि अर्थशास्त्र में वैयक्तिक इकाइयों, जैसे वैयक्तिक परिवार, औद्योगिक इकाई आदि का अध्ययन किया जाता है। जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में संपूर्ण अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। इस लिहाज से उन्होंने एकात्म भाव से समाज की आदर्श संरचना का सूक्ष्म और गहन अध्ययन किया, जिसमें व्यक्ति से समाज तक, समाज से राष्ट्र तक, राष्ट्र से विश्व तक और विश्व से ब्रह्मांड तक का तारतम्यबद्ध और सघन गवेषणात्मक विश्लेषण शामिल है। यह पूरा दर्शन वैदिक व्यवस्था, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पर आधारित है।

उनका जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के नगला चंद्रभान गांव में भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता रामप्यारी की संतान के रूप में हुआ। उनके पिता रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर और माता धर्मपारायण महिला थीं। बालक दीनदयाल ने तीन बसंत भी नहीं देखा था कि उनके सिर से पिता का साया उठा गया और सात वर्ष की उम्र आते-आते उनकी माता का भी निधन हो गया। फिर उनके लालन-पालन का दायत्वि उनके मामा-मामी ने संभाला। मामा-मामी के प्यार और माता-पिता को खोने की पीड़ा ने साझे तौर पर उन्हें जीवन और समाज की बारीकियों का निकट दर्शन कराया। आगे इस भावबोध के बीच उनमें एकात्म मानववाद की चेतना विकसित हुई। उन्होंने जीवनचर्या में आत्मतत्त्व और सभी आत्माओं में अभिन्नता का अनुभव किया। तीर्थंकर प्रभु महावीर के सदृश्य कि प्रत्येक जीव को समान कष्ट होता है।
उन्होंने यह भी पाया कि सभी जीवों में एक ही आत्मतत्त्व है। यह 'एकात्म' प्रत्येक व्यक्ति को मनके की तरह एक माला में गूंथता है। जैसे सांसों की माला शरीर को जीवंत रखती है, उसी तरह व्यक्ति से व्यक्ति का संबंध अपरिहार्य है। यह संबंध व्यक्ति से व्यक्ति, व्यक्ति से प्रकृति, प्रकृति से ब्रह्मांड और ब्रह्मांड से परम ऊर्जा- परम तत्व- परम आत्मा तक सबको एकसूत्र में पिरोता है।
गौरतलब है कि एकात्म मानववाद कुछ लोगों या समूहों के लिए चिंतन नहीं करता, यह विश्व के हर व्यक्ति और प्रत्येक जीव के कल्याण का विषय है। आप इस चिंतन को आधुनिक काल का वैदिक संस्करण भी कह सकते हैं, जिसमें वर्तमान संदर्भ, परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य में वैदिक संस्कृति या कहें हिंदू संस्कृति का विषद भाव समाहित है, जो सर्वजन से ब्रह्मांड तक की बात करता है। 'वसुधैव कुटुंबकम' की बात करता है। 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' की बात करता है। यही सब हममें अंत्योदय का भाव जगाता है।
पंडित जी ने भारतीय समाज में अभाव, निर्धनता और वंचितता की स्थिति का निकट से अनुभव किया। उन्होंने समाज के अंतिम व्यक्ति की जरूरतों, अभावों और विवशताओं का साक्षात्कार किया। उनके कई समकक्षों के संस्मण हैं कि जिस तरह महात्मा गांधी एक पैर में एक और दूसरे पैर में दूसरी तरह की चप्पल पहना करते थे, उसी तरह पंडित जी फटा हुआ कुर्ता और धोती पुन: सिल कर पहन लिया करते थे।
कुछ कार्यकर्ता उनकी इस दशा से व्यथित हो, उन्हें नया धोती-कुर्ता हठपूर्वक दे देते, तो वे कहते कि क्या आवश्यकता है। अभी पुराने धोती-कुर्ता से काम चल तो रहा है। उनके भीतर गहरे में कहीं यह बात पैठी थी कि संसाधनों का समुचित दोहन हो और शेष संसाधन दूसरों को प्राप्य हों। ऐसी स्थिति बने, जिसमें कोई वंचित न हो। इसीलिए उन्होंने अंत्योदय की बात की, जिसमें राष्ट्र का कल्याण भाव अंतिम व्यक्ति से प्रारंभ हो। उनका मानना है कि व्यक्ति राष्ट्र की इकाई है और इकाई को समृद्ध किए बिना सुदृढ़ राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है।
जवाहरलाल नेहरू अगर कथित नवनिर्माण की बात करते हैं, तो दीनदयाल उपाध्याय शाश्वत, सनातन व्यवस्था पर आधारित पुननिर्माण की बात करते हैं। वे समाज के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था के देशज अनुकूलन पर बल देते हैं। वे मानव से पूरी सृष्टि के संरक्षण और कल्याण की बात करते हैं। वे भारतीय समाज की प्रकृति को भलीभांति समझते थे कि यहां के लोग श्रमशील, उद्योगधर्मी और संतोषी हैं। इसलिए भारतीय कभी शासन और शासकीय व्यवस्था पर बहुत आश्रित नहीं बल्कि अपनी बनाई व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था पर निर्भर रहे। यही कारण था कि भारतीयों की मन:स्थिति के अनुरूप वे विकेंद्रीकृत व्यवस्था के पक्षधर रहे।
प्ंडित जी इस विषय में सुस्पष्ट थे कि शासन व्यापार न करे और व्यापारी को शासन का अधिकार न हो। किंतु नेताओं ने ऐसी शासकीय व्यवस्था का मकड़जाल बनाया, जिसमें सरकार व्यापारी की मुद्रा में दिखती है और व्यापारी शासन को प्रभावित करते हुए दिखते हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार भारतीय जनतंत्र की रग-रग तक व्याप्त हो गया।
वे कहते थे, 'राजनीतिक प्रजातंत्र की तरह आर्थिक प्रजातंत्र भी हमारे यहां नहीं है। हर एक नागरिक को काम करने का अधिकार है, परंतु भारत में करोड़ों लोगों को काम नहीं है। बेकारी सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है। काम की गारंटी सरकार की ओर से मिलनी चाहिए। बड़ा आश्चर्य है कि इस कर्मभूमि में लोगों को काम नहीं है। अंग्रेजों ने इस देश में बेकार रहने की शिक्षा दी और वही शिक्षा अब भी दी जा रही है। उद्योग-धंधों के बारे में भी हमारी नीति बदलनी चाहिए।'
षड्यंत्रकारियों ने पंडित जी की 1968 में 10-11 फरवरी की मध्यरात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर हत्या कर दी। इस महान आत्मा के प्रेरक स्मरण के साथ नीति नियंताओं को संकल्प लेना चाहिए कि प्रत्येक जीव को इकाई मान कर उसके विकास और कल्याण के लिए नीतियां सुनिश्चित हों। पूरे राष्ट्र को संकल्प करना चाहिए कि 'सोहम' के सार एकात्म मानववाद के अनुरूप अंत्योदय को केंद्र में रख कर अवसरों और संसाधनों का पर्याप्त और समान वितरण हो।


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