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आजादी के अमृत महोत्सव का साल इस तरह नहीं शुरू होना चाहिए था।
आजादी के अमृत महोत्सव का साल इस तरह नहीं शुरू होना चाहिए था। संसद का मॉनसून सत्र 13 अगस्त को खत्म होना था और उसी दिन से अमृत महोत्सव के कार्यक्रम शुरू होने थे। लेकिन दो दिन पहले ही संसद का सत्र खत्म कर दिया गया और उसके बाद से संसद से बाहर हंगामा मचा है। पहली बार ऐसा हुआ है कि विपक्षी पार्टियों ने आरोप लगाया है कि संसद के अंदर सांसदों की पिटाई कराई गई। विपक्ष का आरोप है कि संसद के मार्शलों के अलावा बाहर से सुरक्षाकर्मी बुलवाए गए और सांसदों की पिटाई कराई गई। विपक्षी पार्टियों ने संसद से विजय चौक तक मार्च किया तो दूसरी ओर सरकार ने एक साथ आठ मंत्रियों को जवाब देने के लिए उतारा। यह भी ऐतिहासिक था कि आठ वरिष्ठ मंत्रियों ने एक साथ प्रेस कांफ्रेंस करके विपक्ष पर आरोप लगाया कि उन्होंने संसद में हंगामा किया और हिंसक बरताव किया।
सोचें, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में संसद नाम की जो संस्था सबसे पहले आती है, जिसके ऊपर लोकतंत्र और आजादी दोनों की रक्षा का भार होता है, जिसका आचरण दूसरी हर संस्था के लिए मिसाल होता है, वहां क्या हो रहा है? संसद के चार हफ्ते के सत्र में सरकार ने विपक्ष की एक बात का जवाब नहीं दिया। पेगासस जासूसी मामले पर चर्चा नहीं कराई। महंगाई और किसानों के मुद्दे पर चर्चा नहीं हुई। महंगाई के मुद्दे पर विचार नहीं किया गया। और जब सत्र खत्म हो गया तो आठ-आठ मंत्री विपक्ष के आरोपों का जवाब दे रहे हैं। क्या ये आठ मंत्री पहले विपक्ष के साथ संवाद की पहल नहीं कर सकते थे? सिर्फ एक दिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे से फोन पर बात की और इसके साथ ही सरकार के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई। यह तथ्य है कि पूरे सत्र में प्रधानमंत्री किसी भी सदन में नहीं गए, जबकि वे लोकसभा में सदन के नेता हैं। क्या इससे संसद का सम्मान बढ़ेगा? अगर संसद को इसी तरह से काम करना है तो हजारों करोड़ रुपए खर्च करके कोई नई इमारत खड़ी करने का क्या मतलब है? लोकतंत्र क्या इमारतों से बनता है? आजादी क्या इमारतों से सुनिश्चित होती है? हकीकत यह है कि पिछले सात साल में संसद की जरूरत और उसकी प्रासंगिकता दोनों क्रमशः कम होती गई है। बहस की संस्कृति लगभग खत्म है और संसदीय समितियों की जरूरत भी खत्म कर दी गई है।
लोकतंत्र की दूसरी अहम संस्था न्यायपालिका है, जिसकी एक तस्वीर पिछले दिनों देखने को मिली, जब चीफ जस्टिस ने कहा कि जजों को धमकियां दी जा रही हैं, उनको बदनाम करने की साजिश की जा रही है, उनको अपमानित किया जा रहा है और जब इसकी शिकायत की जाती है तो सरकार की एजेंसियां कोई ध्यान नहीं देती हैं। धनबाद के एक जज की हत्या के बाद चीफ जस्टिस की यह टिप्पणी थी। देश की सर्वोच्च अदालत में जजों के नौ पद खाली पड़े हैं और अगले पांच दिन में एक और पद खाली हो जाएगा। जजों की नियुक्ति इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि सरकार एक खास जज को सुप्रीम कोर्ट में नहीं आने देना चाहती है। कारण चाहे जो हों पर सर्वोच्च अदालत से लेकर निचली अदालतों तक हजारों पद खाली हैं और करोड़ों मुकदमे लंबित हैं।
लोकतंत्र और आजादी की रक्षा के लिए वाचडॉग का काम करने वाले मीडिया पर पूरी तरह से लगाम लगी हुई है। तमाम बड़े मीडिया समूह सरकार के जयगान में लगे हैं और छोटे-छोटे मीडिया समूहों को नियम-कानूनों के हवाले या तो बंद करा दिया गया है या बंद कराया जा रहा है। प्रतिरोध की हर आवाज दबाई जा रही है। नए आईटी नियमों के जरिए सोशल मीडिया को नियंत्रित किया गया है। सोशल मीडिया की कंपनियों पर ऐसी नकेल कसी गई है, इतने मुकदमे आदि हुए हैं कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता का सोशल मीडिया एकाउंट बंद कर दिया गया है। पता नहीं इसमें सरकार का कितना हाथ है पर हकीकत है कि कांग्रेस पार्टी और उसके सर्वोच्च नेता राहुल गांधी का ट्विटर एकाउंट बंद है। कांग्रेस के और भी कई बड़े नेताओं के एकाउंट बंद कर दिए गए हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के बाद डिजिटल मीडिया की नकेल कसने के लिए नए कानून बनाए गए हैं। इन कानूनों को अदालत में चुनौती दी गई है लेकिन सरकार अड़ी है कि वह डिजिटल मीडिया की आजादी को नियंत्रित करेगी। सोचें, जब सारी संस्थाएं इस तरह डरी-सहमी रहेंगी तो वे देश, लोकतंत्र और नागरिकों की आजादी कैसे सुनिश्चित करेंगी?
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