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श्रीकृष्णावतार के पहले ठुमरी धरती पर थी ही नहीं। माना जाता है, तब तक यह केवल इंद्र के दरबार की शोभा थी
पंडित छन्नूलाल मिश्र। श्रीकृष्णावतार के पहले ठुमरी धरती पर थी ही नहीं। माना जाता है, तब तक यह केवल इंद्र के दरबार की शोभा थी। धराधाम पर मानव रूप में अवतरण से पहले श्रीकृष्ण ने इंद्र के दरबार में जाकर ठुमरी सीखी थी। भूलोक पर ठुमरी की प्रथम शिक्षा उन्होंने प्रद्युम्न्न और पांचों पांडवों को दी। इसके प्रमाण संस्कृत शास्त्र में विद्यमान हैं। इस दृष्टि से यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी ही धरती पर ठुमरी का उद्भव दिवस है। मेरे लिए तो जन्माष्टमी, ठुमरी जयंती का महान उत्सव भी है।
श्रीकृष्ण के काल में ठुमरी के दो रंग थे। एक थी आसारित ठुमरी और दूसरी हल्लीकस। जहां आसारित, भावनृत्य ठुमरी है, वहीं हल्लीकस गत भाव की ठुमरी है। आसारित ठुमरी गोपियां भगवान श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर नृत्य करते हुए गाती थीं। हल्लीकस ठुमरी गोपियां श्रीकृष्ण के सम्मुख बैठकर भाव से सुनाती थीं। इन्हीं दो मूल शैलियों से ठुमरी के दस प्रकार कालांतर में विकसित हुए। पद्मविभूषण पंडित बिरजू महाराज के पुरखों ने गत भाव की ठुमरी को विशेष रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। मेरे लिए तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी एक ऐसा विशिष्ट अवसर है, जब मैं सभी दस प्रकार की ठुमरी से श्रीकृष्ण की अर्चना करता हूं। स्वर और लय का सृजन विश्वेश्वर ने किया, तो स्वर-लय का विराट शृंगार विश्वरूप धारक ने किया। उस शृंगार का आधार उनकी मनमोहिनी बांसुरी बनी। श्रीराधारानी को सौतन सी लगने वाली श्रीकृष्ण की बांसुरी में संपूर्ण संगीत समाहित है। ध्रुपद, ख्याल, सुगम और लोक संगीत में उपस्थित प्रत्येक सुर, लय, ताल का समागम बांसुरी में है। मेरी ऐसी अटल धारणा है कि विश्वंभर द्वारा उत्पन्न संगीत के प्रभाव को लीलाधर ने ही जीव में प्रतिष्ठित किया। गोवर्धनधारी के हाथ में बांसुरी इसी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। श्रीकृष्ण और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के विशेष अवसर को बचपन से अब तक मैंने कई स्वरूपों में देखा है। मुझे आजमगढ़ जनपद स्थित अपने गांव हरिहरपुर की जन्माष्टमी याद है। तब बहुत गरीबी थी, बिजली-बत्ती भी नहीं थी। दस-पंद्रह घरों के लोग मिलकर एक जगह झांकी सजाते थे। गीत-गवनई होती थी। भजन-कीर्तन होता था। सजावट के लिए सबके घरों से लालटेन और ढिबरी मंगाई जाती थी।
जब मैं आठ वर्ष का हुआ, तब पिता ने मुझे मेरे संगीत गुरु उस्ताद अब्दुल गनी खां के घर छोड़ दिया था। उसके बाद अगले 15 साल तक मैं मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थल स्थित गुरु के आवास पर रहा। वहां के विष्णु मंदिर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर पूरे दिन ठुमरी गाता था। विख्यात साहित्यकार पंडित जानकी वल्लभ शास्त्री भी आ जाते। वह मुझसे हारमोनियम सीखते थे। उनकी एक रचना रंक को आज दान देने दो, मूक को आज गान देने दो मैं अब भी बहुत चाव से गाता हूं। खैर, मुजफ्फरपुर के सूतापट्टी में कपड़ा व्यवसायियों द्वारा आयोजित श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सव में कई बार गाने का मौका मिला। वहां मैंने मशाल की रोशनी में तो गाना-बजाना किया ही, रंग-बिरंगी लाइट से जगमग परिसरों में भी गायन किया।
जन्माष्टमी पर साज-सज्जा से लेकर पूजा-पाठ तक बहुत कुछ बदल गया, लेकिन एक चीज जो नहीं बदली, वह है मेरा अर्चना-क्रम। मैं हर साल जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण को ठुमरी सुनाता हूं। यह क्रम विगत साठ वर्षों से अनवरत है। जब मैं विलंबित लय में बोलबनाव की ठुमरी अब न बजाओ श्याम बांसुरिया गाता हूं, तब यह मानकर शुरुआत करता हूं कि भगवान श्रीकृष्ण लड्डू गोपाल स्वरूप में मेरे समक्ष विराजमान हैं और मैं उन्हें सुना रहा हूं। मध्य लय में बोलबनाव की ठुमरी लागे तोसे नैन देखे बिना कल ना परत दिन रैन गाता हूं, तो मुझे मेरे प्रभु घुटनों के बल मेरे आसपास घूमते प्रतीत होते हैं। गत भाव की ठुमरी देखो-देखो कैसी करत है ये रार, लपट-झपट में टूटो गरे को हार गुनगुनाता हूं, तो प्रभु को गोपियों संग लीला रचाते हुए महसूस करता हूं। भावनृत्य ठुमरी रंग रंगीली रसीली छबीली बृजनार, वो तो नैन की सैन से मारत बान को सुर में उतारते समय मेरे मानस पटल पर ऐसी दृश्यावली उभरती है, जिसमें मेरे श्याम, श्यामा सहित अनेकानेक गोपियों को सम्मोहित किए अपने पीछे आने को विवश कर रहे होते हैं।
बंदिश की ठुमरी के गायन के दौरान भी कुछ ऐसी ही दृश्यावली के समकक्ष भावचित्र, राग-रागिनियों के रंग से आकार लेते हैं। बंदिश की ठुमरी नैन बान तान तान तकि तकि मारे ए री नटवर छैला को गाते समय बंद आंखों से देखता हूं कि मेरे पूज्य अपनी लीला से गोपियों में प्रेम की पराकाष्ठा उत्पन्न कर रहे हैं। वहीं अगले पल धनाक्षरी ठुमरी सांसरो लंगरवा मोरि गगरिया गिराई गाते समय नटवर नागर के नटखट नागर स्वरूप के दर्शन होने लगते हैं। अगले क्रम में बोलबांट की ठुमरी गाता हूं। ठुमरियों का यह सातवां प्रकार है। इसके अंतर्गत मेरी प्रिय रचना हटो जाओ रे न बोलो कान्हा अधर पर आते ही श्रीराधाजी के प्रभु श्रीकृष्ण से रूठने और प्रभु द्वारा उन्हें मनाने के चित्र दृश्यमान होने लगते हैं। हल्लीसक ठुमरी कागा रे जा रे जा रे पिया से सनेसा मोरा कहियो जाय के गायन में श्रीकृष्ण की मथुरा से वापसी की प्रतीक्षा करते हुए विरह की अग्नि में तप रही गोपियों के दर्शन कर लेता हूं। आसारित ठुमरी रोको न डगर मोरे श्याम, मैं तो जात अपने धाम श्रीराधा-कृष्ण की प्रेमपूर्ण युगल छवि का आभास कराती है। दसवें क्रम में संस्कृत की ठुमरी केसी मथन मुदारम् सखि रे का गायन करते हुए मैं प्रभु के विश्व स्वरूप का ध्यान करते हुए अपनी ठुमरी अर्चना को विराम देता हूं। ठुमरी अर्चना पूर्ण होते-होते मोहरात्रि की वह बेला आ जाती है, जब लोकाचार का निर्वाह करते हुए मेरे घर में भी भगवान के जन्म का विधान होता है और तब मैं तीन सोहर गाता हूं। शुरुआत मोरे पिछवरवा चंदन गाछ अवरो से चंदन हो से करता हूं। मध्य में कृष्ण जनम जब भयो, बधावा ले चली गावत मंगलाचार, ऊहां हमहूं चलीं... गाने के बाद तीसरा सोहर मोरे ललना धरन कन्हैया शिशु रूप, अनूप छवि छाये हो... प्रभु को सुनाता हूं। इसके बाद अंत में झूम कर बधइया गाता हूं आज श्याम मोह लियो बांसुरी बजाय के, बांसुरी बजाय कान्हा मुरली सुनाय के, आज श्याम मोह लियो...। इस साल कोरोना ने मुझसे मेरी पत्नी और बेटी को छीन लिया। मैं मर्माहत हूं, फिर भी श्याम की ठुमरी अर्चना जरूर करूंगा।

Rani Sahu
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