सम्पादकीय

जिम्मेदारी के बजाय

Subhi
15 May 2021 2:11 AM GMT
जिम्मेदारी के बजाय
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इसमें कोई दो राय नहीं कि देश भर में फैली महामारी के संकट के बीच केंद्र सरकार ने अपनी ओर से हालात पर काबू पाने के लिए यथासंभव कोशिश की है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश भर में फैली महामारी के संकट के बीच केंद्र सरकार ने अपनी ओर से हालात पर काबू पाने के लिए यथासंभव कोशिश की है। लेकिन यह भी सच है कि घोषणा के बरक्स कुछ फैसलों पर अमल को लेकर जिस तरह की लापरवाही देखी गई, उसने समस्या को और बढ़ाया। इस महामारी से निपटने के क्रम में मौजूदा सीमाओं के तहत टीकाकरण को एक अहम उपाय के तौर पर देखा जा रहा है। शुरू में दो कंपनियों के टीकों के सहारे टीकाकरण अभियान की शुरुआत हुई, तब ऐसा लगा कि अब देश कोराना की वजह से उपजे संकट से पार पाने की दिशा में आगे बढ़ चुका है। अब तक टीके की सत्रह करोड़ से ज्यादा खुराक दी जा चुकी है। अभी इस दिशा में बहुत लंबा सफर तय करना बाकी है। लेकिन सच यह है कि अभी ही टीकाकरण अभियान की रफ्तार बेहद धीमी हो गई है। इसकी वजह टीकों की कमी है। सवाल है कि अगर टीके को इस बीमारी का एकमात्र इलाज बताया गया था तो जिस रास्ते यह मुहैया हो सकता था, उसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी किसकी थी?

यह बेवजह नहीं है कि अब अदालतें भी टीकाकरण अभियान को लेकर सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठा रही हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार में जिम्मेदार पद पर बैठे मंत्री अब शायद स्थिति का सामना नहीं करना चाहते हैं। गौरतलब है कि टीकों की कमी को लेकर उठने वाले सवालों के बीच केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री सदानंद गौड़ा ने गुरुवार को कहा कि निर्देश के मुताबिक टीके का उत्पादन नहीं होने पर क्या सरकार में शामिल लोगों को फांसी लगा लेनी चाहिए! जाहिर है, यह मांग कोई नहीं कर रहा है। मगर संकट जिस पैमाने तक गंभीर हो चुका है, उसमें इस तरह के गैरजिम्मेदाराना बयान देने के बजाय सरकार और संबंधित महकमों के मंत्रियों को वैसे उपायों की ओर कदम बढ़ाना चाहिए, जिससे समस्या का हल निकल सके।
देश में आबादी के अनुपात में अचानक ही सबके लिए टीका मुहैया करा पाना मुश्किल है। लेकिन सके उत्पादन में बढ़ोतरी के प्रयास किए जा सकते हैं या फिर दूसरी कंपनियों के टीकों के प्रयोग की अनुमति के साथ उनकी उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। एक तकाजा यह जरूर है कि टीकों का निर्माण और इसकी जटिलता के मद्देनजर इसके पूरी तरह सुरक्षित होने की गांरटी तय करना भी सरकार की जिम्मेदारी है। इसके बजाय अगर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश की जाएगी तो सवाल उठना लाजिमी है।
सही है कि संक्रमण की रोकथाम के लिए पिछले साल भर से पूर्णबंदी और अस्पतालों में इलाज के लिए विशेष व्यवस्थाएं जैसे कदम उठाए गए, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी स्थिति में कोई बड़ा फर्क नहीं आया दिखता है। उलटे दूसरी लहर के दौरान यह साफ देखा जा रहा है कि स्वास्थ्य सुविधाओं की लचर हालत की वजह से स्थिति ज्यादा विकट हो गई। अस्पतालों में ऑक्सीजन और कुछ दूसरी जीवनरक्षक दवाओं जैसी जो सबसे बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता होनी चाहिए थी, उसके अभाव में बहुत सारे लोगों की मौत हुई।
पिछले साल ही जब यह लगभग साफ था कि इस महामारी का दौर लंबा खिंचने वाला है और समय-समय पर यह गंभीर शक्ल लेकर बड़ी तादाद में लोगों की जान ले सकती है, तो पूरे साल भर में सरकार ने इससे निपटने के लिए क्या वैकल्पिक इंतजाम किए? सरकार को यह स्वीकार करना चाहिए कि फिलहाल संक्रमण से निटपने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, वे नाकाफी साबित हुए हैं। मगर समस्या की गंभीरता को स्वीकार करने का फायदा तभी है जब उससे पार पाने के लिए ठोस प्रयास किए जाएं, न कि सवाल उठाए जाने पर लापरवाही से भरे बयान दिए जाएं।

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