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सम्पादकीय
यूक्रेन पर पुतिन के हमले से रूस की सुरक्षा बढऩे के बजाय और खतरे में पड़ती नजर आ रही
Gulabi Jagat
23 March 2022 4:00 PM GMT

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यूक्रेन पर रूस के लगातार हो रहे हमलों को नाटो ने लोकतंत्र के लिए निर्णायक चुनौती मानकर अपना आपात सम्मेलन बुलाया है
शिवकांत शर्मा। यूक्रेन पर रूस के लगातार हो रहे हमलों को नाटो ने लोकतंत्र के लिए निर्णायक चुनौती मानकर अपना आपात सम्मेलन बुलाया है। इसे संबोधित करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ब्रसेल्स आ रहे हैं। उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भी अनुरोध किया है कि युद्ध में रूस की आर्थिक और सैन्य मदद न करें। शी ने तटस्थ रहने की बात दोहराई है। यदि हम यूरोप के सामरिक संतुलन को देखें तो रूस के पास अब भी नाटो देशों के कुल परमाणु हथियारों से भी बड़ा परमाणु जखीरा है। यूरोपीय देशों की कुल सेना से कहीं बड़ी और शक्तिशाली सेना है। न केवल सारे यूरोपीय देशों से कहीं अधिक रक्षा सामग्री, बल्कि उनसे कहीं ज्यादा युद्धों का अनुभव है। यूरोप में रूस की हैसियत सर्कस के रिंग में खड़े उस शेर जैसी है, जिसके सामने बिल्लियों का झुंड खड़ा हो। यूक्रेन पर हमले के पीछे रूसी राष्ट्रपति पुतिन की यही दलील है कि उनका मकसद अपने पड़ोस में नाटो के विस्तार पर विराम लगाना है। इसे वास्तविकता के स्तर पर परखें तो यही दिखता है कि यदि नाटो की नीति विस्तारवादी होती तो उसने 1989 से 1993 के बीच ही पूर्वी यूरोप में विस्तार कर लिया होता। उन दिनों रूस की हालत दयनीय थी। तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन चाहते भी थे कि रूस को नाटो में शामिल कर लिया जाए, परंतु नाटो इसके लिए तैयार नहीं हुआ।
कुछ विश्लेषक कहते हैं कि रूस असल में यूक्रेन पर हमले के जरिये नाटो और अमेरिका को संदेश देना चाहता है कि उनके एकछत्र दबदबे के दिन लद चुके हैं। अब उन्हें रूस के हितों और चिंताओं की परवाह भी करनी होगी। हालांकि हमले की क्रूरता और विनाश के दृश्यों को देखकर दुनिया भर में रोष फैल रहा है। करीब महीने भर की लड़ाई के बाद रूसी सेना यूक्रेन के एक भी बड़े शहर पर कब्जा नहीं कर पाई है। अस्पतालों, स्कूलों, थियेटरों और रिहाइशी इमारतों पर हो रही बमबारी में निरपराध लोग मारे जा रहे हैं। इससे पुतिन पर युद्ध अपराध अभियोग चलाने की मांग जोर पकड़ती जा रही हैं। पुतिन पूरी तरह अकेले पड़ते जा रहे हैं।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप के नाटो देश शांति से विकास की राह पर बढ़ते रहे, लेकिन पुतिन के हमलों ने उन्हें नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है। यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति जर्मनी ने युद्धोत्तर संविधान में संशोधन करते हुए रक्षा बजट बढ़ाकर दुनिया की तीसरी सबसे शक्तिशाली सेना तैयार करने और यूक्रेन को हथियार देना शुरू कर दिया है। रूसी गैस पर निर्भरता खत्म करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। रूस के सीमावर्ती देशों में सुरक्षा कवच और मिसाइलें तैनात की जा रही हैं। अमेरिका ने पौलैंड और रोमानिया में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है। यानी पुतिन के हमले से रूस की सुरक्षा बढऩे के बजाय और खतरे में पड़ती नजर आती है।
सामरिक रणनीतिकारों का मानना है कि पुतिन अपनी समूची सैन्य ताकत झोंककर लड़ाई तो जीत सकते हैं, पर इसके लिए उन्हें यूक्रेन के बड़े-बड़े शहरों पर भीषण बमबारी करनी होगी। जैसे चेचेन्या की लड़ाई में चेचेन राजधानी ग्रोज्नी, सीरिया में वहां के ऐतिहासिक शहर एलेप्पो और इस लड़ाई में यूक्रेन के औद्योगिक शहर खारकीव और बंदरगाह मारियूपोल में की गई। व्यापक विनाश और नरसंहार से हासिल हुई जीत को पचा पाना कठिन होता है। वह अफगानिस्तान जैसे विद्रोह को भी जन्म दे सकती है।
यह भी संभव है कि पुतिन राजधानी कीव पर कब्जे के बाद यूक्रेन का बंटवारा कर दें। नीपा नदी के पूर्व के एक तिहाई रूसी भाषी हिस्से में बेलारूस जैसी तानाशाही कठपुतली सरकार बनाकर उसे रूसी नियंत्रण में रखें और नीपा के पश्चिम में स्थित दो तिहाई हिस्से का विसैन्यीकरण करने के बाद उसे छोड़ दें। यदि वह ऐसा करते हैं तो वहां नाटो देशों के समर्थन से एक यूक्रेनी सरकार बन सकती है। नाटो समर्थित पश्चिमी यूक्रेन और रूस समर्थित पूर्वी यूक्रेन के बीच टकराव चलता रहेगा। यह भी संभव है कि बढ़ते सैनिक नुकसान और चीन जैसे देशों के दबाव में आकर पुतिन पूर्वी डानबास प्रांत पर कब्जे को कायम रखते हुए वापस लौट जाएं। जो भी हो, इस युद्ध की रूस को भारी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ रही है। रूसी केंद्रीय बैंक को ब्याज दरें 9.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करनी पड़ी हैं, ताकि लोग घबराकर बैंकों से पैसा न निकालें। फिर भी रूबल का भाव तेजी से गिरता जा रहा है। एक महीने से रूस के शेयर बाजार बंद हैं। यूरोप और अमेरिका के बाजारों में रूसी बैंकों और तेल कंपनियों के दाम 95 प्रतिशत तक गिर चुके हैं। बीपी, पेप्सी, डिज्नी, एपल, टोयोटा और बोइंग जैसी दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियां रूस से कारोबार समेट रही हैं या बंद कर रही हैं। रूस के तेल निर्यात पर भी पाबंदियां लग गई हैं। जेपी मोर्गन का कहना है कि प्रतिबंधों से रूस की अर्थव्यवस्था 35 प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है।
सवाल उठने लगे हैं कि आर्थिक, मानवीय और राष्ट्रीय छवि के इतने भारी नुकसान के बदले इस लड़ाई से रूस को हासिल क्या होगा? पुतिन कह सकते हैं कि उन्होंने नाटो के विस्तार को रोक दिया है, लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि यूक्रेन के लोगों में रूस के लिए नफरत पैदा हो गई है। नाटो फिर से एकजुट हो गया है। रूस की छवि धूमिल हुई है और अर्थव्यवस्था कम से कम एक दशक पीछे चली गई है।
जर्मनी, जापान और ताइवान में होती उन्नति को देखकर 40 बरस पहले चीनी नेताओं ने महसूस किया था कि शान बघारने के लिए अमेरिका और यूरोप से दुश्मनी मोल लेने के बजाय लोगों की आर्थिक उन्नति के काम में लगना बेहतर है। उन्होंने अपनी गलतियों पर विचार किया और आर्थिक नीतियां बदलीं। चीन आज अमेरिका की बराबरी पर है। सोवियत संघ के बिखराव ने रूस को भी यह अवसर दिया था। उसके सामने चीन की मिसाल भी थी, मगर सामरिक शक्ति के गुमान ने रूसी नेताओं को आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित नहीं करने दिया। नतीजा सामने है।
(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)
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