सम्पादकीय

हिंदी की जगह

Subhi
12 April 2022 4:59 AM GMT
हिंदी की जगह
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यह जगजाहिर तथ्य है कि भारत विविधताओं से भरा अलग-अलग संस्कृतियों और भाषाओं का देश है। अब तक देश की सबसे बड़ी ताकत यही रही है कि किसी भी क्षेत्र की संस्कृति या भाषा को अन्य पर जबरन थोपने की कोशिश नहीं हुई।

Written by जनसत्ता: यह जगजाहिर तथ्य है कि भारत विविधताओं से भरा अलग-अलग संस्कृतियों और भाषाओं का देश है। अब तक देश की सबसे बड़ी ताकत यही रही है कि किसी भी क्षेत्र की संस्कृति या भाषा को अन्य पर जबरन थोपने की कोशिश नहीं हुई। एक व्यापक एकता का भाव सबको एक सूत्र में जोड़ता है। लेकिन अगर इतने बड़े दायरे में फैले भारत के लिए किसी एक भाषा की बात कही जाती है तो यह ध्यान रखने की जरूरत होनी चाहिए कि इससे भिन्न भाषाओं के लोगों और संस्कृतियों पर क्या असर पड़ेगा और उनकी ओर से कैसी प्रतिक्रिया आएगी।

हालांकि यह कई बार संदर्भों की व्याख्या पर भी निर्भर करता है। दरअसल, हाल में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि वक्त आ गया है, जब राजभाषा हिंदी को देश की एकता का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि हिंदी की स्वीकार्यता स्थानीय भाषाओं के नहीं, बल्कि अंग्रेजी के विकल्प के रूप में होनी चाहिए। सही है कि देश को एक सूत्र में पिरोने और हिंदी के विस्तार की इच्छा के पीछे अन्य भाषा-भाषियों पर इसे थोपने की मंशा नहीं होगी, लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इस संवेदनशील मसले पर अंगुली रखने पर कैसी प्रतिक्रिया आ सकती है।

यह बेवजह नहीं है कि हिंदी को लेकर इस राय के सामने आने के बाद गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों की ओर से तीखी आपत्ति दर्ज की जा रही है। रविवार को तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने केंद्र सरकार को हिंदी थोपने को लेकर आगाह किया और कहा कि राज्य के लोग भाषा के मसले पर पार्टी के दिवंगत नेता एम करुणानिधि के आंदोलन को भूले नहीं हैं और वे ऐसा नहीं होने देंगे।

वहीं, पूर्वोत्तर राज्यों में दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने के मसले पर तीखा विरोध हो रहा है। इसके अलावा, विपक्षी दलों के कई नेताओं ने इस तरह की कोशिश को भारत के बहुलतावाद पर हमला बताते हुए ऐसे कदम से बचने की सलाह दी। इन प्रतिक्रियाओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि भाषा को लेकर केंद्र की ओर से समूचे देश के लिए एकरूपता पर आधारित कोई कदम नए उथल-पुथल की शुरुआत कर सकता है। भाषा के मुद्दे पर अतीत में जैसे हालात देखने में आए हैं, उसके मद्देनजर इसे एक बेहद संवेदनशील मसला माना जा सकता है।

इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों के कई नेताओं ने यह कहा कि वे हिंदी को लेकर बहुत सहज हैं और इसके समर्थक हैं, मगर इसे किसी पर थोपे जाने का विरोध करते हैं। इसके अलावा, तमिलनाडु के अतीत को याद करते हुए आंदोलन की बात कही गई है। कर्नाटक में भी इस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया सामने आई। साफ है कि इस मामले में अभी देश में एक राय नहीं बन पाई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी की एक विशेष जगह है और इसके विस्तार को लेकर अलग-अलग स्तरों पर प्रयास भी चल रहे हैं।

देश के ज्यादातर हिस्सों में भिन्न भाषाओं के लोग भी हिंदी में संवाद को लेकर धीरे-धीरे सहज हो रहे हैं। लेकिन जब किसी समुदाय के भीतर यह आशंका घर कर जाए कि इसे उस पर थोपा जा रहा है तो कई बार ऐसी सहजता बाधित होती है। अंग्रेजी ने पहले ही हिंदी को कमजोर बनाने में अहम भूमिका निभाई है। इसलिए अब हिंदी की स्थिति को मजबूत करने के लिए की जाने वाली कोशिशें सकारात्मकता के भाव से आगे बढ़नी चाहिए, ताकि इसकी स्वीकार्यता भी सहज हो।


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