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जिला कांगड़ा में उपनिदेशक (निरीक्षक) महोदय व प्राचार्य (निरीक्षक) शिक्षा विभाग के व्यवहार के प्रति प्राथमिक शिक्षक संघ के पदाधिकारी अध्यापकगण क्रमिक अनशन पर हैं। इस संदर्भ में मिर्जा गालिब का शेअर याद आता है कि ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ सरकारी स्कूलों के सुधार के लिए सरकार जो भी पग उठाती है, उससे गुरु-शिष्य संवाद समाप्त हो रहा है और अध्यापकों पर गैर शिक्षक कार्यों से बिना वजह बोझ डाला जा रहा है। मिड डे मील, सर्व शिक्षा विभाग की डाक, सेमिनार जैसे कार्यों से शिक्षक को पढ़ाने का समय कब मिलता होगा, यह सोचने वाली बात है। सरकार ने प्री प्राइमरी कक्षाएं शुरू करने का निर्णय लिया, उसमें भी एनटीटी की नियुक्तियां हास्यास्पद बनी हुई हैं। सबसे बड़ा आश्चर्य का विषय है कि कई पाठशालाओं में अध्यापक नहीं हैं। जो नई नियुक्तियां की जा रही हैं, वे ऐसे स्कूलों में करने की बजाय उन स्कूलों में खाली पदों पर की जा रही हैं, जहां पहले से ही अध्यापक कार्यरत हैं। सरकार की ऐसी तर्कहीन नीतियों के कारण कई अभिभावक, जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न नहीं हैं, वे भी अपने बच्चों को निजी पाठशालाओं में पढ़ा रहे हैं। इसी कमी को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त संस्थान प्रदेश के गांव स्तर तक अपने शिक्षण संस्थान खोल रहे हैं। कई सरकारी संस्थान प्रवासी मजदूरों के बच्चों के सहारे चले हुए हैं। प्रवासी भी अब बच्चों को निजी संस्थानों में भेज रहे हैं। कुछ को एनजीओ गोद लेकर उच्च शिक्षा प्रदान करवा रहे हैं।
जहां तक निरीक्षण कार्य का संबंध है, उसके बारे में जिला स्तर पर उच्चतर व प्राथमिक स्तर पर दो उपनिदेशक, खंड प्राथमिक शिक्षा अधिकारी, केंद्र मुख्य शिक्षक, मुख्य शिक्षक, एसएमसी, डायट, जन प्रतिनिधि हैं, अब उपनिदेशक निरीक्षण का स्टाफ व बच्चों की संख्या कितनी है व और कितनी कम हो रही है, यहां यह प्रत्यक्ष ही है। इस प्रकार निरीक्षण दल बार-बार पाठशालाओं में जाने लगें, तो इतने अतिरिक्त गैर शिक्षक बोझ से लदे अध्यापकों को विद्यार्थियों को पढ़ाने का कितना समय मिलेगा व कितना अध्यापक-विद्यार्थी संवाद होगा? निरीक्षण दल के स्थाप पर अध्यापकों के पदों को भरा जाए व निरीक्षण स्टाफ के स्थान पर अध्यापकों के पद सृजित किए जाएं। वास्तव में विद्यार्थी ही अध्यापक का सबसे बड़ा निरीक्षक है। शिष्य संतुष्ट है तो गुरु का सबसे बड़ा टॉनिक है। व्यवसायी भी अपने ग्राहक को भगवान का रूप समझता है। ग्राहक संतुष्ट है तो व्यवसायी का सबसे बड़ा वरदान है। ऐसा वैसे क्षेत्रों के बार में भी है। जिन बच्चों के लिए संस्थान खोले जाएं, उन्हें न्याय मिलना चाहिए। उनके विकास मेें आने वाली बाधाएं दूर होनी चाहिएं।
बेहतर है कि उपनिदेशक (निरीक्षक) के व अन्य स्टाफ समाप्त कर दिया जाए। सरकार इतना पैसा खर्च कर रही है। जनता को टैक्स का सेस भी देना पड़ता है। यह तभी कार्यान्वित होगा यदि अध्यापकों को तनावमुक्त किया जाए। खुले वातावरण में खुली हवाओं में पढ़ाने का अवसर प्रदान किया जाए। महाकवि कालिदास ने लिखा है कि शिक्षा का वातावरण महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। अध्यापकों ने प्रदेश के ऐसे क्षेत्रों में कार्य किया है जहां न बिजली होती थी, न सडक़-पानी की व्यवस्था, भवनों की कमी भी रही। शिक्षा सर्वोत्तम थी क्योंकि दबाव नहीं था। पहाड़ी में एक कहावत है जिसका भाव है कि वैद्य अधिक हों तो स्वास्थ्य खराब होता है, वकील अधिक हों तो मुकदमे भी ठीक ढंग से नहीं चलते। फालतू पदों की समाप्ति होनी चाहिए। अध्यापकों के लिए कक्षा का स्थल पूजा स्थल की तरह होता है। उसे पढ़ाने में आनंद आता है। मैं राज्यसभा के सांसद जो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं, प्रोफेसर मनोज झा जिनके भाषा को संसद में , संसद से बाहर भी महत्त्व दिया जाता है, ने भी अपने साक्षात्कार में शिक्षण के बारे में कहा कि विद्यार्थियों के बीच कक्षा में संवाद का अलग आनंद है।
पहले वे शिक्षण देते हैं, फिर बच्चे मेरे से प्रश्न करते हैं। संसद काल में भी सप्ताह में एक दिन शिक्षण के लिए निकाल लेते हैं। प्रदेश के भूतपूर्व शिक्षा मंत्री स्व. प्रो. नारायण चंद पराशर स्वयं भी कई शिक्षण संस्थानों में मॉडल लेस्सन देते थे, क्योंकि वह स्वयं भी प्रोफेसर रह चुके थे। वह पाठशाला या महाविद्यालय में शिक्षण स्टाफ का सदस्य बनकर विचार-विमर्श करते थे, एक शिक्षा शास्त्री की तरह। सरकार से निवेदन है कि पाठशालाओं को शिक्षा व विद्यार्थियों के विकास की दृष्टि से देखें, फालतू का बोझ अध्यापकों पर न डालें, निरीक्षण स्टाफ कम किया जाए, अध्यापकों को खुले मन से पढ़ाने का अवसर प्रदान किया जाए, तभी सरकार द्वारा व्यय की जानी वाली राशि का सदुपयोग होगा। आशा है कि सरकार इस विषय पर गंभीरता से विचार करेगी, ताकि शिक्षा क्षेत्र का कल्याण हो। निरीक्षण स्टाफ को कम करना होगा।
हरिमित्र भागी
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
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