सम्पादकीय

विरोध प्रदर्शन के नाम पर देशहित पर चोट! सरकार 'आंदोलनजीवियों' का कब करेगी खुलासा

Gulabi
10 Feb 2021 12:46 PM GMT
विरोध प्रदर्शन के नाम पर देशहित पर चोट! सरकार आंदोलनजीवियों का कब करेगी खुलासा
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ एक ओजस्वी वक्ता हैं जो अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की कला में पारखी हैं बल्कि

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ एक ओजस्वी वक्ता हैं जो अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की कला में पारखी हैं बल्कि शब्दों से खेलने की भी उनमें अद्भुत क्षमता है. सोमवार को राज्यसभा में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए मोदी ने एक नए शब्द का प्रयोग किया जो फिलहाल किसी शब्दकोष में नहीं है, पर भविष्य में जरूर शामिल हो जाएगा. यह शब्द था 'आंदोलनजीवी'.


श्रमजीवी शब्द तो आम है, खासकर श्रमजीवी पत्रकार. इसका मतलब होता है प्रोफेशनल जर्नलिस्ट, यानी वह जिनका एकमात्र व्यवसाय ही पत्रकारिता है. अगर इसी उदाहरण की दृष्टि से देखा जाए तो आंदोलनजीवी का मतलब बनता है वे लोग जो प्रोफेशनल एजिटेटर हैं, यानी वे लोग जिनकी जीविका ही आंदोलन करना है.

प्रधानमंत्री कश्मीर के प्रोफेशनल पत्थरबाजों की बात नहीं कर रहे थे जिन्हें 500 रुपये हर दिन दे कर पत्थरबाजी करवाया जाता था. धारा 370 के खात्मे के बाद प्रोफेशनल पत्थरबाज या तो जेल में हैं या बेरोजगार हो गए हैं. मोदी का आंदोलनजीवी से मतलब था वह नेता और लोग जिनकी जीविका या राजनीति ही आंदोलन से चलती है. इसी से जुड़ी एक और नई परिभाषा भी मोदी ने FDI की दी. फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट तो पूंजी से जुड़ा होता है, पर मोदी ने इस नए FDI का विश्लेषण किया Foreign Destructive Ideology यानी विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा.

आंदोलनजीवी और FDI का मतलब
आंदोलनजीवी और नए FDI को जोड़ कर देखा जाए तो यह मोदी सरकार की व्यथा व्यक्त करता है. देश में एक ऐसा वर्ग है जिनका काम ही एक के बाद एक नया आंदोलन करना है और लोगों को बहका कर आंदोलन में शामिल करना है. अक्सर आंदोलनजीवियों पर आरोप लगता रहा है कि उन्हें विदेशों से पैसा मिलता है. सरकार ने कई NGO की विदेशी फंडिंग पर इसीलिए पाबंदी लगा दी थी. अब आरोप है कि किसान आंदोलन की फंडिंग भी उन विदेशी शक्तियों के द्वारा की जा रही है जो भारत में गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा करना चाहते हैं.

पीएम मोदी ने किसी आंदोलनजीवी का नाम तो नहीं लिया, पर एक आम जागरूक व्यक्ति भी कम से कम तीन ऐसे बड़े नाम तो उंगलियों पर गिन सकता है जो हमेशा किसी न किसी सरकार विरोधी आंदोलन से जुड़े होते हैं. अखबारों में उनका फोटो और उनकी खबर छपती है और टीवी पर ही वे भारत के गरीबों के मसीहा के रूप में बोलते दिखते हैं. और भी दर्जनों ऐसे लोग हैं जिनका काम ही आंदोलन करना है.

मोदी सरकार के खिलाफ 'साजिश'
किसान आंदोलन पिछले ढाई महीनों से चल रहा है जिसे आंदोलनजीवियों का और राजनीति से जुड़े लोगों का समर्थन है. कांग्रेस पार्टी तो खुलेआम तन, मन, धन से इस आंदोलन को जारी रखने में लगी है ताकि देश में मोदी सरकार के खिलाफ माहौल पैदा हो सके. या तो मोदी सरकार गिर जाए या फिर उन्हें इसका चुनावी लाभ मिले. वामदल तो शुरू से ही जनता के हित के कम और देश में अराजकता की स्थिति पैदा करने के लिए कुख्यात रहे हैं. नक्सलवाद से किसी भूमिहीन या छोटे किसान का फायदा हुआ या हुआ न हो, वामदलों की सरकार पश्चिम बंगाल में 34 साल तक जरूर चली. बंगाल के गरीब गरीब ही रह गए पर वामपंथी करोड़पति बन गए.

अभी कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि शत्रु देश चीन द्वारा कांग्रेस के कई संस्थाओं को करोड़ों का चंदा मिला था. यह वह संस्था हैं जिसके शीर्ष पदों पर गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता आसीन हैं. आरोप लगा था कि चीन द्वारा परोक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी की फंडिंग की जा रही थी. दिल्ली के शाहीनबाग में नागरिकता कानून के विरोध में चले धरना-प्रदर्शन के समय भी यह सवाल उठा था कि आंदोलनकारियों के खाने-पीने और अन्य सुविधाओं का पैसा कहां से आ रहा है. दिल्ली-हरियाणा के बीच सिंघु बॉर्डर पर तो मानो पूरा शहर ही बस गया है.

चंदे से इनती सुविधाएं कैसे
आंदोलनकारियों को वह सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं जो उन्हें घर पर और वह भी मुफ्त में उपलब्ध नहीं है. किसान दिल्ली से जुड़े कम से कम तीन बॉर्डर पर महीनों से डटे हैं, और रोज लाखों का खर्च हो रहा है. अगर किसान गरीब हैं तो यह पैसा कहां से आ रहा है? चंदे की बात की जाती है पर यह पर्याप्त नहीं हो सकता. आरोप लगता रहा है कि किसान आंदोलन में खालिस्तानी लोग शामिल हो चुके हैं जो आंदोलन को जीवित रखने के लिए पैसे भी लगा रहे हैं और 26 जनवरी को दिल्ली में हुए हिंसक तांडव के भी शरीक थे.

पहले भी हो चुका है आंदोलन
मोदी सरकार ने हाल ही में Enforcement Directorate से विदेशों से किसान आंदोलन की फंडिंग की खबर की जांच करने का आदेश दिया था. संसद के दोनों सदनों में विपक्ष कृषि बिल में ऐसी कोई खामी नहीं निकाल पाया जिससे देश की जनता समझ पाए कि कैसे कृषि कानून किसानों का अहित करेगा. नरेंद्र मोदी आंदोलन से जूझते हुए अपना काम करना जानते हैं. जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो नर्मदा डैम पर आंदोलन चला था, उसमें भी वही आंदोलनजीवी शामिल थे जो शाहीनबाग आंदोलन के भी पीछे थे और अब किसान आंदोलन से जुड़े हैं.

नर्मदा डैम बना और जिन आदिवासियों को डराया जा रहा था कि नर्मदा डैम बनने से वे तबाह हो जाएंगे, आज खुश हैं. ऐसे ही सरदार पटेल के स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी का भी विरोध किया गया था, जो आज पर्यटक का आकर्षण केंद्र बन गया है और लाखों लोगों को इससे जीविका मिली है.

अगर मोदी ने किसान आंदोलन में विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा का जिक्र किया है तो इतना तो तय है कि बिना किसी ठोस सबूत के ऐसा नहीं कहा होगा. किसी चुनावी सभा में मोदी बीजेपी के स्टार प्रचारक के रूप में भाषण नहीं दे रहे थे, बल्कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में संसद में बयान दे रहे थे. उम्मीद की जानी चाहिए कि शीघ्र ही इस बात का खुलासा हो जाएगा कि वह आंदोलनजीवी लोग कौन हैं जिन्हें विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा आर्थिक मदद कर रही है ताकि भारत शांति और प्रगति के पथ पर न चल पाए.


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