सम्पादकीय

महंगाई का रुख

Subhi
15 Aug 2022 4:30 AM GMT
महंगाई का रुख
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यह सरकार और रिजर्व बैंक के लिए राहत की बात है कि जुलाई में खुदरा महंगाई की दर में कमी दर्ज हुई। लगातार तीसरे महीने इसका रुख नीचे की तरफ बना हुआ है, तो इससे जाहिर है

Written by जनसत्ता; यह सरकार और रिजर्व बैंक के लिए राहत की बात है कि जुलाई में खुदरा महंगाई की दर में कमी दर्ज हुई। लगातार तीसरे महीने इसका रुख नीचे की तरफ बना हुआ है, तो इससे जाहिर है कि रिजर्व बैंक और सरकार के प्रयास कारगर साबित हो रहे हैं। जून में खुदरा महंगाई 7.01 फीसद पर थी, जो जुलाई में घट कर 6.71 पर पहुंच गई। हालांकि अब भी यह दर रिजर्व बैंक के छह फीसद के लक्ष्य से अधिक है। पर राहत की बात है कि खाने-पीने की चीजों के दाम घट रहे हैं। सब्जियों, खाद्य तेलों, मांस-मछली की कीमतों में कमी दर्ज हुई है।

इसके पीछे बड़ी वजह वैश्विक स्तर पर वस्तुओं की कीमतों में आ रही कमी बताई जा रही है। विश्व बाजार में खुदरा वस्तुओं की कीमतें घटने से आयातित वस्तुओं के दाम भी कम हो रहे हैं। खुदरा महंगाई पर काबू पाने की मंशा से ही रिजर्व बैंक ने पिछले तीन बार से लगातार रेपो दरों में बढ़ोतरी की। इसके सकारात्मक नतीजों को देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि रेपो दरों में मामूली बढ़ोतरी और की जा सकती है। हालांकि सरकार के सामने अब भी डीजल-पेट्रोल और बिजली की कीमतों पर लगाम लगाना मुश्किल बना हुआ है।

खुदरा महंगाई के बरक्स थोक महंगाई पर अंकुश लगाना सरकार के लिए अभी चुनौती बना हुआ है। खुदरा महंगाई घटी है, तो उसके साथ औद्योगिक उत्पादन भी नीचे गया है। जून में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक घट कर 12.3 फीसद रह गया, जबकि मई में 19.6 फीसद पर था। औद्योगिक उत्पादन घटने का अर्थ है थोक महंगाई का बढ़ना। खुदरा महंगाई की दर नीचे आने से लोगों को रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजों पर कम खर्च करना पड़ेगा, पर इससे अर्थव्यवस्था की मजबूती का दावा नहीं किया जा सकता।

औद्योगिक उत्पादन के मामले में अगर निराशाजनक प्रदर्शन बना रहेगा, तो आर्थिक मुश्किलों का सामना करना कठिन बना रहेगा। औद्योगिक उत्पादन बढ़ने का अर्थ है कि रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। लोगों को रोजगार मिलेगा, तो उनकी क्रय क्षमता बेहतर होगी और इस तरह बाजार में रौनक लौटनी शुरू होगी। इसलिए खुदरा महंगाई में आई इस कमी को लेकर बहुत भरोसे के साथ कोई दावा करना अभी मुश्किल है। हालांकि कयास लगाए जा रहे हैं कि विश्व बाजार में जिस तरह वस्तुओं की कीमतें उतार पर हैं, उसे देखते हुए कच्चे तेल की कीमतों में भी कमी आएगी। मगर हर बार अनुमान सही साबित हों, जरूरी नहीं।

हमारी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से औद्योगिक उत्पादन पर निर्भर होती गई है। मगर पिछले कुछ सालों से भारी उद्योगों का प्रदर्शन बेहतर नहीं हो पा रहा। विदेशी निवेश आकर्षित नहीं हो पा रहा है। छोटे, मंझोले और सूक्ष्म उद्योगों को प्रोत्साहन देने की तमाम सिफारिशों के बावजूद उनकी स्थिति खराब होती गई है। निर्यात के मामले में लगातार निराशाजनक स्थिति बनी हुई है। जब तक वस्तुओं को बाजार नहीं मिलेगा, घरेलू और बाहर के बाजार में खरीदार नहीं मिलेंगे, तब तक उत्पादन की दर बढ़ना मुश्किल ही रहेगा।

रोजगार के मोर्चे पर सरकार इसीलिए सफल नहीं हो पा रही कि औद्योगिक क्षेत्र में सुस्ती बनी हुई है। हालांकि खनन, बिजली उत्पादन जैसे कुछ क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन देखने को मिल रहा है, पर उनमें भी व्यावहारिक नीतियां न अपनाई जाने से कई तरह की अड़चनें पैदा हो रही हैं। ऐसे में महंगाई के मोर्चे पर सरकार को खुदरा और थोक के बीच संतुलन बनाने के प्रयास करने होंगे।


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