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परमजीत सिंह वोहरा: उसके बाद वह नियंत्रण से बाहर हो जाती है और इससे आर्थिक संकट निश्चित है। श्रीलंका में आर्थिक संकट की शुरुआत बढ़ती महंगाई से ही हुई थी और उसका अंत विदेशी मुद्रा भंडार की समाप्ति पर हुआ। कुछ वैश्विक कारणों से भारत के घरेलू बाजार में भी महंगाई बढ़ सकती है, जिसमें अमेरिका की घरेलू आर्थिक नीतियां मुख्य वजह होंगी।
महंगाई आम आदमी के लिए एक ऐसी समस्या है, जिसका आर्थिक विशेषज्ञों और नीति निर्धारकों के पास कोई निश्चित हल नहीं है। इसके आर्थिक दुष्प्रभावों से बचने के लिए कुछ विकल्पों को सदा प्रयोग के तौर पर ही उपयोग किया जाता है, ताकि भविष्य में देश की एक अच्छी आर्थिक विकास दर का पूर्वानुमान लगाया जा सके। यह भी हकीकत है कि आम आदमी महंगाई की दरों से आतंकित तभी होता है जब लगातार महंगी होती चीजों का असर उसके व्यक्तिगत जीवन पर पड़ने लगता है। हर व्यक्ति अपनी आर्थिक आय का उपयोग मात्र दो उद्देश्यों के लिए करना चाहता है।
एक, अपनी क्रय क्षमता को निरंतर बढ़ाने के लिए और दूसरा, आर्थिक निवेश के लिए। चूंकि भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है और यहां आर्थिक समस्याएं सामाजिक वातावरण में इस तरह घुल-मिल चुकी हैं कि आर्थिक निवेश, क्रय क्षमता के सामने सदा गौण रहता है। वैश्वीकरण और निजीकरण के इस युग में जहां बाजार नई-नई घरेलू चीजों से भरा पड़ा है, आम आदमी कैसे अपने आप को खरीदारी की दौड़ में नियंत्रित करे। शायद महंगाई की शुरुआत यहीं से होती है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में महंगाई नकारात्मक रुख का प्रतीक है, क्योंकि इसकी मार समाज के सभी तबकों पर पड़ती है। इससे गरीब आदमी का गुजर-बसर मुश्किल हो जाता है, तो आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति के वित्तीय निवेश का मूल्य भी घट जाता है। सरकार के लिए भी यह एक आर्थिक परेशानी है, क्योंकि सामाजिक कल्याण योजनाओं पर वित्तीय खर्च बढ़ जाता है। महंगाई का कोई एक निश्चित कारक नहीं होता।
इसमें कई चीजें आपस में अंतर्निहित हैं, जैसे पेट्रोल और डीजल के मूल्यों में वृद्धि परिवहन लागत को बढ़ाती है, तो उससे अंतत: फलों और सब्जियों के मूल्य बढ़ते हैं। विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के मूल्यों में भी बढ़ोतरी होती है। हालांकि इसमें मानसून से लेकर विभिन्न आर्थिक नीतियां भी शामिल होती हैं। देश में आर्थिक संकट तब गहन हो जाता है, जब बढ़ती महंगाई की दर से आर्थिक निवेश कम होने लगता है।
महंगाई की गणना भारत में थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर की जाती है। पिछले दिनों सरकार द्वारा थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के तहत सितंबर महीने में महंगाई की दर 10.7 फीसद थी। खाद्य पदार्थों में यह 11.3 फीसद, गेहूं में 16.09 फीसद, सब्जियों में 39.6 फीसद, फलों में 4.5 फीसद, दूध में 5.55 फीसद और आलू में 49 फीसद। जाहिर है कि बीते महीने विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों का थोक मूल्य हमारे समाज में लगातार बढ़ता रहा। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) के हिसाब से देखें तो चालू वित्त वर्ष में यह दर लगातार बढ़ रही है। सितंबर में यह 7.41 फीसद रही।
चिंता की बात यह भी है कि इन दिनों त्योहारों का मौसम चल रहा है, जिसकी शुरुआत नवरात्रि में हुई। अब दिवाली का समय है तथा यह वर्ष के अंत तक चलेगा। इस दौरान हमारे समाज में खरीदारी करना एक शौक-सा बन गया है। घरेलू पदार्थों, इलेक्ट्रानिक, टेक्नोलाजी और वाहन आदि की मांग अत्यधिक रहती है। इससे निश्चित है कि इस त्योहारी मौसम में लगातार ऊपर जा रही महंगाई की दरों का आम आदमी की जेब पर बहुत असर पड़ने वाला है।
अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी मार्च तक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर महंगाई की दर आठ प्रतिशत के आसपास होने वाली है। आरबीआइ ने इस आर्थिक संकट का पूर्वानुमान लगाते हुए विभिन्न प्रकार के आर्थिक कदम उठाए हैं, जिनके तहत चालू वित्त वर्ष में अब तक चार दफा रेपो रेट बढ़ाया जा चुका है। इस संदर्भ में यह समझना भी अत्यंत आवश्यक है कि सन 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में भारत में रेपो रेट दो अंकों के प्रतिशत में करता था और उसके बाद से लगातार इस दर में कमी होती रही।
2007 की वैश्विक मंदी के बाद से तो उसे लगभग चार फीसद के आसपास ही बरकरार रखा गया था, ताकि प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में बैंकों के माध्यम से अधिक से अधिक आर्थिक तरलता बनी रहे। इसका फायदा भी भारत की अर्थव्यवस्था को हुआ, क्योंकि इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में भारत की कंपनियों ने खूब मुनाफे कमाए और उसके माध्यम से आर्थिक विकास ने एक अच्छी गति पकड़ी। वर्तमान समय में यह दर 5.90 प्रतिशत है, जिससे स्पष्ट होता है कि आर्थिक नीतियों में महंगाई दर को नियंत्रित करना एक मुख्य मुद्दा है।
आने वाले समय में अमेरिकी फेडरल की तरह भारतीय बैंकों में भी ब्याज दरों में बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है, ताकि उपभोक्ता आर्थिक निवेश की तरफ प्रोत्साहित हों। एक रिपोर्ट के मुताबिक रेपो रेट में पिछली दफा किए गए चालीस आधार अंकों की वृद्धि से भारतीय बाजार से तकरीबन सतासी हजार करोड़ रुपए की आर्थिक तरलता कम हुई थी, लेकिन उसके बावजूद महंगाई की दर में निरंतर वृद्धि होती रही है। यह एक आर्थिक चिंता का सबब बना हुआ है।
लगातार बढ़ रही महंगाई सभी मुल्कों के लिए एक आर्थिक समस्या है, क्योंकि एक सीमा तक ही महंगाई पर नियंत्रण संभव होता है। उसके बाद वह नियंत्रण से बाहर हो जाती है और इससे आर्थिक संकट निश्चित है। श्रीलंका में आर्थिक संकट की शुरुआत बढ़ती महंगाई से ही हुई थी और उसका अंत विदेशी मुद्रा भंडार की समाप्ति पर हुआ। महंगाई से पैदा हुआ आर्थिक संकट तुर्की में भी देखा गया। कुछ इसी तरह का आर्थिक संकट इन दिनों पाकिस्तान में भी चल रहा है। विकासशील देश आयात पर अधिक निर्भर रहते हैं, इसलिए उनके लिए महंगाई एक ऐसा संकट है, जिसे समय रहते काबू में करना अत्यंत आवश्यक है। कुछ वैश्विक कारणों से भारत के घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ सकती है, जिसमें अमेरिका की घरेलू आर्थिक नीतियां मुख्य वजह होंगी।
इन दिनों अमेरिका अत्यधिक महंगाई से परेशान है। वहां पर इसकी दर आठ फीसद है, जो कि पिछले पचास वर्षों में सबसे अधिक है। इसी कारण चालू वित्त वर्ष में अमेरिकी फेडरल ने पांच दफा ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, जिसके परिणाम स्वरूप अमेरिकी डालर की तुलना में रुपया लगातार कमजोर हो रहा है।
भारत के विदेशी व्यापार में आयात अधिक होता है और रुपए के कमजोर होने से लगातार भारत में विदेशी वस्तुओं की खरीदारी की लागत बढ़ेगी और इसका प्रभाव घरेलू बाजार में महंगाई के आंकड़ों पर भी पड़ेगा। भारत अपनी आवश्यकता का अस्सी फीसद कच्चा तेल आयात करता है और उसका भुगतान डालर में किया जाता है, इससे तेल के मूल्यों में हुई बढ़ोतरी भी घरेलू बाजार में महंगाई को प्रत्यक्ष रूप से बढ़ाएगी।
यहां पर एक बात समझ समझनी आवश्यक है कि आर्थिक विश्लेषण में महंगाई और मंदी को सदा सगी बहनों के रूप में देखना होता है। इन दोनों में महंगाई बड़ी बहन है, तो मंदी छोटी बहन। एक दफा अगर महंगाई की शुरुआत हो गई है, तो निश्चित रूप से आने वाले कुछ समय में मंदी उसका अनुसरण करेगी। जब महंगाई से प्रति व्यक्ति क्रय क्षमता कम होती चली जाएगी तो आर्थिक निवेश का मूल्य भी लगातार घटेगा।
इससे आखिर में प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के प्रति अनिश्चित रहने लगेगा और उसका आर्थिक नीतियों से विश्वास हिलेगा। वह अपनी व्यक्तिगत आर्थिक सुरक्षा के लिए कम से कम खरीदारी करने की कोशिश करेगा। यह मंदी की शुरुआत होगी और उससे आर्थिक संकट निश्चित तौर पर बढ़ेगा।