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- महंगाई का मोर्चा
Written by जनसत्ता: एक बार फिर रिजर्व बैंक ने महंगाई को लेकर आगाह किया है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं, मगर अब भी जिस तरह मुद्रास्फीति की दर ऊंची बनी हुई है, वह सबसे बड़ी चिंता का कारण है। इसी महीने रिजर्व बैंक ने अपनी नीतिगत दरों में बदलाव कर रेपो दर में पचास आधार अंक की बढ़ोतरी की थी। इसके पीछे की रणनीति महंगाई पर काबू पाना था। उसके कुछ दिनों पहले भी चालीस आधार अंक की बढ़ोतरी की गई थी।
मगर अब भी इन कदमों का कोई उत्साहजनक परिणाम नजर नहीं आ रहा। खुदरा महंगाई की दर में जरूर मामूली कमी दर्ज हुई है, मगर थोक महंगाई दर का रुख अब भी ऊपर की तरफ बना हुआ है। इसके अलावा डालर के मुकाबले रुपए की कीमत लगातार घट रही है। अभी वह अठहत्तर रुपए चालीस पैसे पर पहुंच गया है। जब रुपए की कीमत घटती है, तो महंगाई पर काबू पाना और मुश्किल हो जाता है। चूंकि बाहर से मंगाई जाने वाली वस्तुओं की कीमत डालर में चुकानी पड़ती है और फिर उन्हें यहां रुपए के भाव बेचना पड़ता है, इसलिए भी महंगाई बढ़ती है। र्इंधन तेल के मामले में यह स्थिति इसीलिए काबू से बाहर होती जा रही है।
थोक महंगाई बढ़ने का सीधा अर्थ है कि बाजार में खपत कम हो रही है, मांग घट रही है। इससे बड़े उद्योगों पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पिछले कई सालों से आर्थिक विकास की दर का पैमाना काफी हद तक भारी उद्योगों के उत्पादन के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। उसमें कृषि आदि बड़े क्षेत्रों के योगदान को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती रही है। हालांकि कोरोना काल में जब सारे उद्योग-धंधे ठप पड़े हुए थे, तब कृषि क्षेत्र ने ही अर्थव्यवस्था को संभालने में मदद की थी।
मगर कृषि उत्पाद के भंडारण, बाजारों तक पहुंच सुनिश्चित करने, लागत के अनुरूप उनकी कीमत तय करने आदि को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई जाती। यही वजह है कि खुदरा महंगाई की दर पर काबू पाने में भी कठिनाई बनी रहती है। अभी अर्थव्यवस्था की स्थिति इसलिए कमजोर बनी हुई है कि बहुत सारे लोगों के रोजगार छिन गए हैं, लोगों को रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। क्रयशक्ति काफी घट गई है। ऐसे में बाजार में पूंजी का प्रवाह बढ़ाना एक चुनौतीपूर्ण काम है।
निवेश के स्तर पर भी अपेक्षित गति नहीं आ पा रही। कई विदेशी कंपनियां अपना कारोबार समेट कर वापस लौट चुकी हैं। यहां के अनेक कारोबारियों ने अपने काम-धंधे दूसरे देशों में स्थानांतरित कर लिए हैं। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार खाली हो रहा है। सरकारी खर्च में कोई कटौती नहीं हो रही। ऐसी स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं मानी जाती।
निर्यात के मामले में पहले ही स्थिति संतोषजनक नहीं थी, आयात पर निर्भरता कम नहीं हो पा रही। खाद्य तेलों आदि के आयात पर सरकार को शुल्क घटाने पड़े हैं। अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए जरूरी है कि घरेलू और विदेशी बाजार में विस्तार हो। इससे उद्योगों के उत्पादन को बल मिलता और रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं। लोगों के पास रोजगार होता है तो उनके खर्च करने की क्षमता भी बढ़ती है। इन तमाम मोर्चों पर अभी अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा। इसलिए रिजर्व बैंक की चिंता स्वाभाविक है।