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Written by जनसत्ता; राजस्थान में जालोर जिले के सुराणा गांव में स्थित एक स्कूल में पिटाई के बाद एक बच्चे की मौत की घटना ने समाज में पलती विकृतियों पर फिर से सोचने की जरूरत को रेखांकित किया है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर देश में आजादी के अमृत महोत्सव को लेकर उत्साह का माहौल रहा और सबने बेहतर भविष्य की कल्पना के साथ आगे बढ़ने का संकल्प किया और दूसरी ओर एक स्कूल में शिक्षक ने बच्चे को इतना पीटा कि बाद में उसकी मौत हो गई। खबरों में यही सामने आया कि बच्चे ने अपने घर में इस बात की शिकायत की थी कि स्कूल में एक मटकी से पानी पी लेने की वजह से शिक्षक ने उसे मारा। इसके बाद बच्चे की तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई और इलाज के बावजूद उसकी जान नहीं बचाई जा सकी।
हालांकि मटकी से पानी पीने के मामले को लेकर अब विवाद खड़ा हो गया है और ईमानदारी से होने वाली जांच के जरिए ही इसकी हकीकत सामने आएगी। लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर पा रहा है कि बच्चे की पिटाई की गई, जिसकी चोट के चलते आखिरकार उसकी जान चली गई।
सवाल है कि किसी भी स्थिति में कोई शिक्षक एक बच्चे को कैसे मार सकता है, जबकि स्कूली बच्चों से मारपीट और डांट-फटकार तक को लेकर अदालतों की ओर से भी स्पष्ट निर्देश मौजूद हैं।
सुराणा की घटना में मटकी से पानी पीने पर पिटाई की सच्चाई जांच के बाद सामने आएगी, लेकिन समाज से लेकर अन्य जगहों पर कमजोर जातियों या दलितों के खिलाफ भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं कोई नई बात नहीं रही हैं। राजस्थान पिछले कुछ सालों से ऐसी तमाम घटनाओं का साक्षी बन रहा है, जहां दलितों के खिलाफ अपराध और अत्याचार की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है।
कभी विवाह के दौरान किसी दलित तबके के दूल्हे के घोड़ी पर बारात निकालने तो कभी किसी अन्य मसले पर उच्च कही जाने वाली जातियों की ओर से हिंसा की जाती है, लेकिन सरकार सुरक्षा मुहैया कराने जैसा कोई तात्कालिक उपाय निकाल कर ऐसे मसलों का हल हो गया मान लेती है। यह बेवजह नहीं है कि राजस्थान में इस मसले पर तमाम सामाजिक संगठनों की शिकायतें सामने आती रही हैं कि राज्य सरकार दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम करने में नाकाम रही है।
यह कोई छिपी हकीकत नहीं है कि कमजोर जातियों-तबकों के खिलाफ किसी भी तरह के भेदभाव, अपराध और उत्पीड़न की घटनाएं इसीलिए निर्बाध चलती रहती हैं, क्योंकि सरकार आरोपी लोगों और समूहों के खिलाफ उचित और सख्त कानूनी कार्रवाई नहीं करती। जब कोई मामला तूल पकड़ लेता है तब जाकर सरकार की ओर से औपचारिकता के निर्वहन के लिए कोई कार्रवाई या मुआवजे के तौर पर कुछ रकम देने की घोषणा कर दी जाती है, लेकिन समस्या के दीर्घकालिक या स्थायी हल के लिए कोई ठोस नीतिगत पहल नहीं होती।
सुराणा के स्कूल में हुई घटना के बाद संभव है कि आरोपी शिक्षक के दोषी पाए जाने पर उसे सजा मिल जाए, लेकिन सवाल है कि इससे इतर समाज और समूचे ढांचे में जाति की बुनियाद पर पलने वाली ऊंच-नीच की कुंठा का इलाज क्या होगा? इस कुंठा से संचालित दुराग्रहों की वजह से दलित-वंचित जातियों के न जाने कितने बच्चे और अन्य लोग अपने साथ अवांछित और अमानवीय व्यवहारों का सामना करते हैं और जीवन को बेहतर बनाने का हौसला नहीं जुटा पाते। परतों में पलती जातिगत ग्रंथियों का मनोवैज्ञानिक इलाज किए बिना हम सामाजिक समानता के सपने को कैसे पूरा कर पाएंगे?