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प्रेमपाल शर्मा: केंद्रीय प्रवेश परीक्षा के विचार के पीछे दिल्ली विश्वविद्यालय के पिछले कुछ वर्षों के अनुभव रहे हैं। किसी एक शिक्षा बोर्ड के विद्यार्थियों को ज्यादा नंबर मिलने से उनको दाखिले में फायदा मिला। हालांकि इस समस्या के बहुत सरल विकल्प मौजूद हैं और अच्छा हो कि उन्हीं को बेहतर बनाने की कोशिश की जाए।
आगामी सत्र में लगभग पचास केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले एकीकृत प्रवेश परीक्षा से होंगे। विचार के स्तर पर इसमें कोई बुराई नहीं लगती, लेकिन इतनी विविधताओं के देश में इसे एक ही झटके में लागू करना कहीं और व्यापक असंतोष को जन्म न दे। तमिलनाडु विधानसभा ने एक स्वर से इसमें शामिल न होने का फैसला किया है। अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय और दूसरे विश्वविद्यालयों से भी इसके विरोध में स्वर उठ रहे हैं। इसमें कुछ राजनीति जरूर हो सकती है, लेकिन कुछ व्यावहारिक कारण भी स्पष्ट हैं।
पहली दिक्कत तो यही कि देश के करीब नब्बे प्रतिशत बच्चे अपने-अपने राज्य बोर्ड की पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं, जबकि एकीकृत प्रवेश परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न केंद्रीय स्तर पर एनसीईआरटी द्वारा तैयार किताबों पर आधारित होंगे। इस तरह ज्यादातर युवा उससे बाहर ही रह जाएंगे। यह संभव नहीं कि किसी एक परीक्षा में एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम भी आ जाए और गुजरात, केरल, ओड़ीशा, तमिलनाडु राज्यों द्वारा पढ़ाई जाने वाली सामग्री भी। पिछले तीन-चार सालों में मेडिकल की नीट परीक्षा के विरोध में भी ऐसी आवाजें इन्हीं कारणों से उठती रही हैं।
क्या यह उन बच्चों के साथ अन्याय नहीं होगा, जो छत्तीसगढ़ या उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर नगालैंड के किसी गांव में अपने-अपने बोर्ड की किताबों तक सीमित है? उन्हें किसी राष्ट्रीय परीक्षा का न अनुभव है, न वहां पढ़ाने और बताने की सुविधाएं। यह समानता के सिद्धांत के भी खिलाफ होगा। आर्थिक से लेकर सामाजिक असमानताओं के दुष्परिणाम धीरे-धीरे देश की समूची व्यवस्था में दिखने लगे हैं। कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा आनलाइन होने से दूर गांवों में पढ़ने वाले बच्चे एक तरह से सदा के लिए नौकरियों से बाहर हो गए।
कहां तो हमारे संविधान में विकेंद्रीकरण की बातें बार-बार दोहराई गई हैं और कहां हर दिन इसका उल्टा हो रहा है। डिजिटलीकरण का मतलब सारी व्यवस्थाओं, सुविधाओं को चंद महानगरों और उनके अंग्रेजी दां अमीरों तक सीमित कर देना नहीं हो सकता। इसलिए अच्छा हो कि शुरुआत के तौर पर इस कदम का प्रयोग कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों तक सीमित हो और उस अनुभव के आधार पर भविष्य में आगे बढ़ा जाए। यह प्रवेश परीक्षा कोई सीमा पर खड़ी चुनौती का तुरंत सामना करने के लिए नहीं है। यह भविष्य की पीढ़ियां बनाने की प्रक्रिया है, जिसमें सोच-समझ कर, धैर्य से कदम बढ़ाने की जरूरत है।
एक और बड़ा प्रश्न है, मौजूदा स्कूली ढांचे का अप्रासंगिक हो जाना। अगर स्कूल के नंबर, उसकी पढ़ाई का कोई वजन दाखिले के समय होगा ही नहीं, तो बच्चे क्यों स्कूल जाएंगे? और क्यों उन किताबों तक सीमित रहेंगे? विज्ञान और तकनीक का विकास हमारे पाठ्यक्रम के बनाने से कई गुना तेज गति से निजी हाथों में होता है। अभी प्रवेश परीक्षा की बात हो रही है और बाजार में किताबें आ गई हैं। क्या बारहवीं बोर्ड परीक्षा का कोई अर्थ बचेगा या सारी शिक्षा-व्यवस्था कोचिंग संस्थानों, ट्यूशन केंद्रों के आसपास सिमट कर रह जाएगी? ऊपर से पर्चा लीक, नकल भ्रष्टाचार का खतरा, जिसकी खबरें आए दिन अखबारों में छपती हैं और इसके दोषियों को मुश्किल से ही कोई दंड मिल पाता है।
आइआइटी की प्रवेश परीक्षा के पिछले बीस सालों के अनुभव यही बताते हैं। कोटा, हैदराबाद, जयपुर, पटना के कोचिंग संस्थानों की सफलता का राज यह भी रहा है कि उनमें पढ़ने वाले बच्चों को नियमित स्कूलों में नहीं जाना होता, वे सीधे कोचिंग कक्षा में आते हैं, वही पढ़ते हैं। हां, नाममात्र के लिए किसी न किसी स्कूल या बोर्ड के रजिस्टर में उनका नाम जरूर लिखा होता है और वहां वे नियमित फीस भी देते हैं। ये ज्यादातर निजी स्कूल होते हैं। यही स्थिति अब पूरे देश में होने की संभावना है। केंद्रीय प्रवेश परीक्षा में मौजूदा खतरों से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं।
केंद्रीय प्रवेश परीक्षा के विचार के पीछे दिल्ली विश्वविद्यालय का पिछले कुछ वर्षों के अनुभव रहे हैं। किसी एक शिक्षा बोर्ड के विद्यार्थियों को ज्यादा नंबर मिलने से उनको दाखिले में फायदा मिला। हालांकि इस समस्या के बहुत सरल विकल्प मौजूद हैं और अच्छा हो कि उन्हीं को बेहतर बनाने की कोशिश की जाए।
ज्यादा बड़ा प्रश्न तो यह होना चाहिए कि ये केंद्रीय विश्वविद्यालय पढ़ाते क्या हैं? क्या उनका पाठ्यक्रम मौलिक शोध की तरफ ले जाता है? ये पाठ्यक्रम दुनिया के विश्वविद्यालयों के मुकाबले वैज्ञानिक, लचीले और आधुनिकतम क्यों नहीं बन पाए? क्यों हमारे इंजीनियरिंग और आइआइटी के पाठ्यक्रम भी तीस-चालीस साल पुरानी बातों को ही रटाते रहते हैं। लगभग यही स्थिति सामाजिक विषयों की भी है।
इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में हम कहीं नहीं ठहरते। क्या हम इस तथ्य से आंखें मूंद सकते हैं कि हर साल हमारे लगभग दस लाख विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने चले जाते हैं और एक अच्छी-खासी विदेशी मुद्रा इस रास्ते से बाहर चली जाती है। आश्चर्य कि समूचा विश्वविद्यालय तंत्र इस पर खामोशी साधे हुए है। क्यों ग्लोबल स्टैंडर्ड किताबें और पाठ्यक्रम विशेषकर अपनी भारतीय भाषाओं में हम नहीं बना पा रहे? क्या हर कालेज में प्रोफेसर और वरिष्ठ प्रोफेसर के पद बनाने से ही तस्वीर बदल जाएगी? आप किसी भी जटिल से जटिल परीक्षा से बच्चों को चुनें, अगर हमारी कक्षाओं में उन्हें सही माहौल नहीं मिला तो इस कवायद का कोई अर्थ नहीं रहेगा, सिवाय इसके कि हमारे नौजवानों में और असंतोष बढ़े।
पाठ्यक्रम और कक्षा में शिक्षा-व्यवस्था को अंजाम देने वाले शिक्षकों की भर्ती पर कभी बात क्यों नहीं होती? पूरा देश जानता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भर्तियां सिर्फ राजनीतिक रसूख, वंशवाद या विचारधारा के तहत होती हैं। पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम ने 2016 में केंद्र सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में संघ लोक सेवा आयोग की तरह शिक्षकों की भर्ती के लिए केंद्रीय स्तर पर शिक्षा भर्ती बोर्ड बनाने की बात कही थी, लेकिन उस पर चौतरफा चुप्पी बनी हुई है।
राज्यों के विश्वविद्यालय भर्ती प्रक्रिया में जरूर कुछ कदम उठा कर भर्ती राज्यों के आयोग को सौंप दिया गया है, लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय अब भी एक राजनीति में डूबे हुए हैं। इसका बहुत बड़ा कारण है कि इन्हीं शिक्षकों में से अपनी-अपनी पार्टियों के कंधों पर चढ़ कर कुछ संसद और मंत्री पद भी पा जाते हैं। यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि विद्यार्थियों के दाखिले के लिए तो बार-बार एक के बाद एक परीक्षा की बात होती रहती है, लेकिन उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की योग्यता, शोध, पार्टी गत प्रतिबद्धता वंशवाद भ्रष्टाचार के प्रश्नों को दरकिनार रखते हुए सब कुछ वैसा ही चलता रहता है।
पिछले बीस वर्ष इस बात के गवाह हैं कि कभी पीएचडी-नेट को अनिवार्य बना दिया जाता है और अपने-अपने लोगों की भर्ती के बाद अगली सरकार फिर कुछ और परिवर्तन कर देती है। ऐसे शिक्षक या ऐसे केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा के परिवर्तन में कोई भूमिका निभाएंगे, इसमें संदेह है। अगर हमारे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तमिलनाडु, केरल, मणिपुर, कश्मीर के विद्यार्थी न हों तो क्या हम इन्हें विश्वविद्यालय कह सकते हैं? रामचंद्र गुहा के शब्दों में, विश्वविद्यालय लिखने का अधिकार वहां होना चाहिए, जहां विद्यार्थी भी दुनिया भर के हों और शिक्षक भी। इसलिए यह केवल तमिलनाडु या इन राज्यों का नुकसान नहीं होगा, हमारे केंद्रीय विश्वविद्यालयों की पूरी प्रतिष्ठा ही जाती रहेगी। शिक्षा का दर्शन सबसे कमजोर को ऊपर उठाना है, न कि सुविधा संपन्न मलाईदार तबके को आगे बढ़ाना। नई प्रवेश परीक्षा से यह असमानता की खाई और चौड़ी होती नजर आ रही है।