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आईपीसीसी (Intergovernmental Panel on Climate Change) की नई रिपोर्ट में कहा गया है
हृदयेश जोशी
आईपीसीसी (Intergovernmental Panel on Climate Change) की नई रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) उन सभी इलाकों में "लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य" को प्रभावित कर रहा है जिनका मूल्यांकन किया गया है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के विश्व वैज्ञानिकों के विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट प्रकृति और लोगों को होने वाले "व्यापक प्रतिकूल प्रभावों और संबंधित नुकसान और क्षति" के बारे में चेतावनी देती है.
यह असमानता के मुद्दों और "उपनिवेशवाद" की भूमिका को भी रेखांकित करता है जिसने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए विकासशील देशों की क्षमता को लाचार किया है. यह दूसरी कार्य समूह रिपोर्ट – जो प्रभावों, अनुकूलन और संवेदनशीलता पर केंद्रित है – आईपीसीसी की आगामी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर -6) का हिस्सा है जो जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों का व्यापक विश्लेषण करेगी.
सीमा को लांघना
इस रिपोर्ट को बीते रविवार को एक वर्चुअल कांफ्रेंस में 195 देशों द्वारा अनुमोदित और स्वीकार किया गया था. इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "मौसम और जलवायु की चरमसीमा में इजाफा से कुछ अपरिवर्तनीय प्रभाव हो रहे हैं", जिससे प्रकृति और मानव प्रणाली की सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता पर भी दबाव हद से ज्यादा बढ़ गया है. हालांकि, रिपोर्ट स्वीकार करती है कि "कुछ विकास और संयोजन प्रयासों ने संवेदनशीलता को कम कर दिया है."
रिपोर्ट स्पष्ट रूप से संकेत देती है कि सभी ग्लोबल वार्मिंग स्तरों के तहत घनी आबादी वाले कुछ क्षेत्र या तो असुरक्षित हो जाएंगे या फिर निर्जन. इन क्षेत्रों से स्वायत्त रूप से या योजनाबद्ध स्थानांतरण के तहत लोगों को दूसरे जगह ले जाना होगा. साल 2100 तक निचले द्वीप वाले राज्यों के जलमग्न होने का मिश्रित और व्यापक खतरा बना रहेगा.
रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 2040 के बाद और ग्लोबल वार्मिंग के स्तर के आधार पर जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक और मानव समाज के लिए कई जोखिम पैदा होंगे. वैज्ञानिकों ने मध्य और दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन कर 127 प्रमुख जोखिमों की पहचान की है. इन जोखिम से जो खतरा पैदा होगा वह मौजूदा खतरे की तुलना में कई गुना अधिक होगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का आकार और दर और उससे संबंधित जोखिम इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस तरह इसकी गंभीरता को कम करते हैं और सामंजस्य बैठाते हैं.
भारत के बारे में इस रिपोर्ट में क्या है?
आईपीसीसी की यह रिपोर्ट ऐसे वक्त आई है जब लंबे समय तक सूखा, असामान्य रूप से भारी बारिश, बार-बार आने वाली बाढ़ और चक्रवात जैसी मौसम की चरम घटनाओं की तादाद और तीव्रता बढ़ गई है. इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दक्षिण एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब और विकासशील देशों को भुगतना पड़ रहा है. भारत सबसे अधिक संवेदनशील सूचकांक (Vulnerability Index) वाले देशों में है.
आईपीसीसी ने अनुमान लगाया है कि "लगभग 3.3 से 3.6 बिलियन लोग ऐसे हालात में रहते हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं." पर्वत, तटीय और शहरी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं. रिपोर्ट का भारत के लिए एक स्पष्ट महत्व है क्योंकि अपने विविध भूगोल और घनी आबादी के कारण भारत जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर बेहद संवेदनशील है. यह हिमालयी बेल्ट के साथ फैले 10,000 से अधिक बड़े और छोटे ग्लेशियरों का घर है. इसमें कई कृषि-जलवायु क्षेत्र हैं और लगभग 7,500 किलोमीटर की एक विशाल तटरेखा है जो 200 मिलियन से अधिक लोगों को उनकी आजीविका के साधन मुहैया कराती हैं.
रिपोर्ट की लीड लेखक एशिया चैप्टर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS) की वरिष्ठ शोधकर्ता चांदनी सिंह ने कहा, "भारतीय शहर पहले से ही जलवायु प्रभावों का सामना कर रहे हैं. कहीं ये तटीय और अंतर्देशीय बाढ़ तो कहीं पानी की कमी और कहीं शहरी सूखे के रूप में सामने आती है. यह अनुमान है कि भविष्य में ये घटनाएं बढ़ेंगी, इसलिए शहरों को वास्तव में आने वाले कई खतरों से निपटने के लिए योजना शुरू करने की जरूरत है. यह केवल एक ही रिस्क नहीं है, बल्कि भारत में शहरों को कई मिश्रित जोखिम दिखाई देंगे." चांदनी सिंह चेतावनी देते हुए कहती हैं कि सिर्फ जलवायु परिवर्तन की वजह से शहर इन जोखिमों से रू-ब-रू नहीं होते बल्कि "क्लाइमेट रिस्क के साथ खराब और बेतरतीब शहरी विकास" भी एक कारण है जो इसे बढ़ा देता है.
चुनौतियां बहुत सारी हैं
भारत को अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था और विशाल आबादी के लिए ऊर्जा की जरूरत के साथ कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. रिपोर्ट में वेट बल्ब टेम्परेचर (Wet Bulb Temperature) पर प्रकाश डाला गया है. ये एक ऐसा उपाय है जो गर्मी और आर्द्रता को जोड़ता है और चेतावनी देता है कि भारत में लखनऊ और पटना जैसे शहर 35 डिग्री के वेट बल्ब टेम्परेचर तक पहुंच सकते हैं, यदि उत्सर्जन में वृद्धि जारी रहती है. 31 डिग्री सेल्सियस का वेट-बल्ब तापमान मनुष्यों के लिए बेहद खतरनाक माना जाता है, जबकि 35 डिग्री सेल्सियस में किसी छाया में आराम कर रहे फिट और स्वस्थ वयस्कों के लिए भी लगभग 6 घंटे से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल होगा.
मुंबई, कोलकत्ता और चेन्नई जैसे तटीय शहरों में समुद्र-स्तर में बढ़ोतरी से डूबने का खतरा तो है ही इसके अलावा जलवायु परिवर्तन इन इलाकों में खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर खतरा पैदा कर सकता है. क्योंकि लंबे समय तक सूखा, ओलावृष्टि और अत्यधिक वर्षा और लगातार चक्रवात के कारण बाढ़ जैसे कारक फसलों को नष्ट कर रहे हैं . 2050 तक भारत के चालीस प्रतिशत हिस्से को पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है.
अर्थव्यवस्था पर भारी चोट
आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि जलवायु परिवर्तन भारत की जीडीपी को गंभीर झटका दे रहा है. शोध साबित करते हैं कि भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 1991 के बाद से मानव जनित वार्मिंग की वजह से 16 फीसदी कम हो गई है. निरंतर वार्मिंग से भारत की अर्थव्यवस्था को और नुकसान होगा क्योंकि यह श्रमिकों की दक्षता को प्रभावित करता है. यदि तापमान में 3 डिग्री की वृद्धि जारी रही तो भारत में कृषि श्रम क्षमता 17 फीसदी घट जाएगी.
रिपोर्ट के एक अलग अध्ययन के अनुसार, वैश्विक स्तर पर उत्सर्जित होने वाले प्रत्येक टन कार्बन डाइऑक्साइड की कीमत देश में लगभग 86 डॉलर है. 2021 में दुनिया ने 36.4 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया. आईपीसीसी के एक अध्ययन के अनुसार, निरंतर उच्च उत्सर्जन की वजह से औसत वैश्विक आय में 23 फीसदी की कमी हो सकती है, जबकि 2100 तक भारत में औसत आय में 92 फीसदी कमी हो सकती है. ग्रीनपीस ने रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि बेइंतहा विकास और निष्कर्षण (Extraction) पर आधारित विकास मॉडल अन्यायपूर्ण और अप्रचलित है. इसे जाने की जरूरत है.
ग्रीनपीस के एक विश्लेषण में कहा गया है, "हमें एक ऐसे भविष्य की जरूरत है जहां जीवन पर आर्थिक लाभ की कोई ताकत नहीं चलती हो. जहां हर कोई प्रकृति से जुड़ा हो, समुदायों की विविधता में जिसकी जड़ें हों और जहां हर फैसला समानता का आश्वासन देते हुए समावेशी रूप से लिए जाते हों. एकजुटता और सहयोग पर आधारित भविष्य हो जहां प्रगति को स्थानीय से वैश्विक स्तर तक सामूहिक भलाई के रूप में मापा जाता हो. अल्पावधि में अधिकतम लाभ की प्रवृति से दूर और व्यक्तिगत मूल्य प्रकृति की सीमाओं और लोगों के अधिकारों का सम्मान करने वाला हो."
औपनिवेशिक अतीत
रिपोर्ट में दोहराया गया है कि इंसान और इकोसिस्टम संवेदनशीलता एक दूसरे पर निर्भर करते हैं और वर्तमान अनसस्टेनेबल विकास पैटर्न हमारे इकोसिस्टम और लोगों के जलवायु खतरों के रिस्क को बढ़ा ही रहे हैं. रिपोर्ट की एक खास विशेषता यह है कि पहली बार आईपीसीसी ने नीति निर्माताओं (Summary for Policy Makers – SPM) के लिए अपने अनुमोदित सारांश में "उपनिवेशवाद" शब्द का उल्लेख किया है. ये एसपीएम जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सभी सरकारों के लिए एक मार्गदर्शक चैप्टर होता है. कई देशों के औपनिवेशिक अतीत ने उनकी प्रगति को पंगु बना दिया है और उन्हें समानता और जलवायु न्याय की मांग करने के लिए छोड़ दिया है.
क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क (सीएएन), जो जलवायु न्याय के लिए लड़ने वाले 130 से अधिक देशों में 1,500 से अधिक नागरिक समाज संगठनों का एक वैश्विक नेटवर्क है, के वरिष्ठ सलाहकार हरजीत सिंह कहते हैं, "अब अच्छी तरह से ये दस्तावेजी सबूत हैं कि सदियों से औपनिवेशिक शासकों द्वारा खरबों डॉलर के संसाधन वैश्विक दक्षिण इलाकों से निकाले गए थे. इसने न केवल उपनिवेशित देशों को संसाधनों से अलग कर दिया, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्थाओं को भी अनसस्टेनेबल दोहन पर निर्भर रहने के लिए मजबूर कर दिया. पर्यावरण के इस तरह के विनाश ने लोगों और अर्थव्यवस्थाओं को वर्तमान और भविष्य के जलवायु प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया है."
विशेषज्ञों ने संकेत दिया कि यह रिपोर्ट एक "समझौतावादी व्याख्यान" है जो जलवायु प्रभावों का रूढ़िवादी परिदृश्य प्रस्तुत करती है, जबकि तकनीकी सारांश कई और सबूतों के साथ एक बहुत ही गंभीर तस्वीर प्रस्तुत करता है. आईपीसीसी की अगली रिपोर्ट मिटीगेशन पर होगी. इस साल अप्रैल में जारी होने वाली है. यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती के तरीकों का सुझाव देगी.
Rani Sahu
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