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- तिब्बत-चीन पर भारत की...
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारें बदलती रहती हैं। अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें बनती रहती हैं, जिनकी नीतियां अलग-अलग होती हैं। लेकिन विदेश नीति के बारे में आम तौर पर कहा जाता है कि सरकार बदलने के बावजूद विदेश नीति बहुत कम बदलती है। वह निरंतरता में चलती रहती है क्योंकि विदेश नीति का संबंध किसी भी देश के स्थायी हितों से ताल्लुक रखता है। इसलिए सरकार किसी भी दल की हो, वह दल देश के स्थायी हितों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। इस आधार पर अपने दो पड़ोसी देशों तिब्बत और चीन को लेकर भारत सरकार की विदेश नीति को 1947 से लेकर अब तक परखना बहुत जरूरी है। मोदी सरकार से पहले की नीति और मोदी सरकार की नीति। मनमोहन सिंह के काल तक मोटे तौर तिब्बत-चीन को लेकर जो नीति थी, वह नेहरू के वक्त की ही नीति थी। अटल बिहारी वाजपेयी के राज्यकाल में इतना अवश्य हुआ था कि पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने चीन में जाकर कहा कि दलाई लामा भारत के सम्मानित अतिथि हैं। यह सभी जानते हैं कि चीन दलाई लामा के नाम से भी चिढ़ता है। नेहरू की चीन नीति का यदि सूत्र रूप में ख़ुलासा किया जाए तो कहा जा सकता है कि उस समय की भारत सरकार ने तिब्बत की बलि देकर चीन के साथ मधुर संबंध बनाने का असफल प्रयोग किया था। लेकिन दस साल के भीतर ही वह प्रयोग असफल हो जाने के बाद भी पूर्ववर्ती सरकारों ने उस नीति का परित्याग नहीं किया। जबकि यह 1962 के बाद ही स्पष्ट हो गया था कि चीन भारत से संबंधों को प्राथमिकता नहीं देता, बल्कि वह बलपूर्वक भारत-तिब्बत सीमा का प्रश्न अपने पक्ष में हल करना चाहता है। इसके लिए उसने भारत-तिब्बत सीमा पर भविष्य की रणनीति के तहत आधुनिक संरचनागत ढांचा विकसित करना शुरू कर दिया था। भारत की नीति इस पृष्ठभूमि में भी नेहरू काल के प्रयोग को ही ढोते रहने की रही।