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नेपाली प्रधानमंत्री के भारत दौरे का द्विपक्षीय महत्व तो निश्चित रूप से है
By डॉ धनंजय त्रिपाठी।
पिछले कुछ समय से, विशेषकर पहले मधेश ब्लॉकेड और फिर सीमा विवाद के बाद भारत और नेपाल के बीच संबंधों में तनाव पैदा हो गया था. इस पृष्ठभूमि में नेपाल की घरेलू राजनीति में भारत-विरोधी तत्वों को भी मजबूती मिली है. ऐसे में प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की तीन दिवसीय भारत यात्रा बहुत महत्वपूर्ण है. एक बड़े अंतराल के बाद दोनों देशों के बीच कोई शीर्ष स्तरीय यात्रा हुई है.
दूसरा उल्लेखनीय बिंदु है कि दीपावली के समय से भारत में नेपाल का कूटनीतिक प्रतिनिधि नहीं था, उसकी भी नियुक्ति हुई है. राजदूत की नियुक्ति को एक सकारात्मक संकेत के रूप में हमें देखना चाहिए. प्रधानमंत्री देउबा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बैठक के दौरान अनेक समझौतों पर भी सहमति बनी है, जिसमें दोनों देशों के बीच रेलमार्ग की स्थापना प्रमुख है. इस मार्ग से भारत के कुछ उत्तरी क्षेत्र नेपाल के मधेश इलाकों से सीधे जुड़ जायेंगे.
इसके अलावा ऊर्जा, तकनीक, सड़क आदि क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ेगा. नेपाली प्रधानमंत्री का यह दौरा दोनों देशों के संबंधों में नया मोड़ भी है, क्योंकि यह भी कहा गया है कि सीमा संबंधी विवादों को समझदारी से सुलझाया जाना चाहिए, उन्हें राजनीतिक आख्यान या राजनीतिक विवाद नहीं बनाया जाना चाहिए.
नेपाली प्रधानमंत्री के भारत दौरे का द्विपक्षीय महत्व तो निश्चित रूप से है, पर इस परिघटना को वर्तमान क्षेत्रीय परिदृश्य में भी देखा जाना चाहिए. बीते कुछ समय से दक्षिण एशिया में भारत की सक्रियता बहुत बढ़ी है. कुछ दिन पहले ही बिम्स्टेक शिखर बैठक श्रीलंका में आयोजित हुई, जिसमें भारत की अग्रणी भूमिका रही. इससे पहले भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मालदीव और श्रीलंका की यात्रा की थी.
बिम्स्टेक सम्मेलन के दौरान वे कोलंबो में उपस्थित रहे. उस शिखर सम्मेलन में आवागमन के माध्यमों का विस्तार कर क्षेत्रीय जुड़ाव को बढ़ावा देना सदस्य देशों की प्राथमिकता रही. कोविड महामारी से निबटने में भी भारत ने पड़ोसी देशों की मदद की और दवाओं, मेडिकल साजो-सामान व कोरोना टीकों को मुहैया कराया गया.
अफगानिस्तान में तालिबान शासन को लेकर राजनीतिक चिंताओं के बावजूद भारत द्वारा भारी संकट का सामना कर रहे अफगान लोगों के लिए मानवीय मदद के रूप में 50 हजार टन गेहूं, कई टन आवश्यक मेडिकल वस्तुएं व दवाएं भेजने का सिलसिला जारी है. इन प्रयासों से साफ है कि भारत इस पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र से गहरे जुड़ाव की प्रक्रिया में है.
इस संदर्भ में हमें बदलते वैश्विक परिदृश्य, खासकर रूस-यूक्रेन संकट के बाद, का भी संज्ञान लेना चाहिए. इस स्थिति में भारतीय रणनीतिक समुदाय में यह सहमति भी बन रही है कि भविष्य में भारत को एक आत्मनिर्भर शक्ति के रूप में स्थापित होना पड़ेगा और अपने आस-पड़ोस में एक सकारात्मक राजनीतिक वातावरण रखना पड़ेगा. इस लिहाज से 'पड़ोसी पहले' की नीति और पड़ोसी देश बहुत प्रासंगिक रहेंगे.
दक्षिण एशिया हो या दक्षिण-पूर्व एशिया, भारत की इन क्षेत्रों से निकटता होते हुए भी आवागमन की व्यवस्था अत्यंत न्यून है. यह स्थिति भारत की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं की राह में एक बड़ी बाधा है. इसे बेहतर करने की बात भारत में लंबे समय से चल रही थी और इस दिशा में कुछ प्रयास भी हुए थे. हाल की कोशिशों से इस मामले में अच्छे नतीजों की उम्मीद की जा सकती है.
यह भी उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में चीन की सक्रियता और वर्चस्व बढ़ने से कहा जाने लगा था कि इस क्षेत्र में चीन महत्वपूर्ण बना रहेगा. लेकिन हाल की घटनाओं, जैसे- श्रीलंका का आर्थिक संकट, अफगानिस्तान से अमेरिका का जाना आदि, से यह स्थिति बदली है. अब इस क्षेत्र के देशों को यह भी लगने लगा है कि इस क्षेत्र में भारत की एक प्रासंगिक भूमिका है और चीन के ऊपर पूरी तरह से निर्भर नहीं रहा जा सकता है तथा भारत व चीन के साथ एक संतुलित संबंध बनाने की आवश्यकता है.
इस समझदारी के आधार पर क्षेत्रीय देश भी भारत से सकारात्मक तौर पर संपर्क कर रहे हैं. भारत की दक्षिण एशिया नीति की एक आलोचना यह रही है कि इसका मुख्य ध्यान द्विपक्षीय संबंधों पर रहा है और क्षेत्रीयता के पहलू का अभाव रहा है. अब यह स्पष्ट दिख रहा है कि इस नीतिगत सोच व सक्रियता में बदलाव आ रहा है तथा भारत अपने संबंधों को समूचे क्षेत्र के आधार पर परिभाषित करने की दिशा में गतिशील है.
हमारे विदेश मंत्री पहले मालदीव जाते हैं और वहां से श्रीलंका जाते हैं, जो एक भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है. वर्तमान श्रीलंकाई सरकार का स्पष्ट झुकाव चीन की ओर रहा है, पर भारत ने अपनी ओर से इस द्वीपीय देश को मदद देने में कोई कमी नहीं की है. नेपाल में एक बड़ी बहस के बाद यह निष्कर्ष सामने आया है कि नेपाल को अपनी विकास आवश्यकताओं के लिए केवल चीन की ओर ही नहीं देखना चाहिए.
द्विपक्षीय संबंधों पर ध्यान देना ठीक है, पर क्षेत्रीय आयाम पर संबंधों को आधारित करना एक स्वागतयोग्य बदलाव है. अगर यह बदलाव सही दिशा में जारी रहता है, तो इसके अच्छे परिणाम होंगे. दक्षिण एशिया में भारत आर्थिक, भौगोलिक, जनसंख्या और भू-राजनीतिक स्तर पर अन्य पड़ोसी देशों से बहुत बड़ा है.
बड़े देशों को लेकर छोटे देशों की जो चिंता है, वह आधारहीन नहीं है. इसलिए वे चीन और भारत के बीच संतुलन चाहते रहे हैं. पहले भारत में इसे नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता था, पर अब यह समझ यहां भी बनी है कि चीन की मौजूदगी भी दक्षिण एशिया में और आसपास बनी रहेगी, सो इसके अनुसार ही कदम उठाये जाने चाहिए.
बिम्स्टेक एक अलग क्षेत्र के लिए सामूहिक व्यवस्था है और उसमें ऐसे देश भी हैं, जो आसियान के सदस्य भी हैं, जबकि सार्क दक्षिण एशियाई देशों का संगठन है. दोनों संगठनों के उद्देश्य और लक्ष्य भी अलग-अलग हैं. सार्क को लेकर पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के एक हिस्से में सोच बदल रही है. कुछ समय पहले एक विशेष आयोजन में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जेनरल बाजवा ने कहा था कि दक्षिण एशिया के लिए भू-रणनीति से भू-आर्थिकी की ओर जाने का यह समय है.
वर्तमान समय में हम पाकिस्तान से संबंध सामान्य होने की आशा तो नहीं कर सकते हैं, पर वाणिज्यिक गतिविधियों को लेकर कुछ सुधार के संकेत अवश्य हैं, जैसे- पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान को मदद भेजना या फिर मध्य एशियाई देशों में वस्तुओं का निर्यात आदि. क्षेत्रीय सहयोग और सहकार बढ़ने से सभी देशों को लाभ होगा और भारत के आर्थिक विकास को भी इससे बड़ा बल मिलेगा.
Gulabi Jagat
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