सम्पादकीय

भारत का अमृतकाल : स्वप्न और चुनौतियां, लक्ष्‍य प्राप्‍ति के लिए नेता व जनता दोनों निभाएं कर्तव्‍य

Rani Sahu
18 Aug 2022 6:21 PM GMT
भारत का अमृतकाल : स्वप्न और चुनौतियां, लक्ष्‍य प्राप्‍ति के लिए नेता व जनता दोनों निभाएं कर्तव्‍य
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लक्ष्‍य प्राप्‍ति के लिए नेता व जनता दोनों निभाएं कर्तव्‍य
सोर्स- जागरण
शिवकांत शर्मा : भारत के अमृतकालीन (Amrit Kaal) स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) के संबोधन को उन्हीं के दो शब्दों में समेटा जा सकता है- भ्रष्टाचार और कर्तव्य। उन्होंने जिस परिवारवाद और भाई-भतीजावाद की बात की, वह योग्यता को अनदेखा करते हुए सगे-संबंधियों को आगे बढ़ाने का भ्रष्टाचार है। जातिवाद भी इसी का एक रूप है। ये दोनों भारतीय समाज में संस्थागत रूप धारण कर चुके हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, राजनीति, विचारधारा, प्रशासन, न्याय हो या विकास, देश का हर पहलू इन समस्याओं से प्रभावित हो रहा है।
प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी मुहिम तेज करने की बात कहते हुए लोगों से उनका साथ भी मांगा। इसके बिना इस पर पार पाना संभव नहीं। कहीं यह मुहिम काले धन के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम की तरह बनकर तो नहीं रह जाएगी? मोदी सरकार पर केंद्रीय एजेंसियों के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप भी लग रहे हैं। क्या वह उनके काम में पारदर्शिता और ईमानदारी सुनिश्चित करके संस्थाओं को उस गुलाम मानसिकता से आजाद करा सकेंगे, जिसकी चर्चा उन्होंने अपने भाषण में की। दूसरा शब्द कर्तव्य है, जिसका समावेश संविधान में 42वें और सबसे बड़े संशोधन द्वारा किया गया। आपातकाल में किए गए इस संशोधन की वैधता पर सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन सब जानते हैं कि जब तक देश के नागरिक ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन शुरू नहीं करते, तब तक किसी के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती।
आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी तक सुरक्षित है, जब तक आप दूसरों के मान-सम्मान और मर्यादा का आदर करते हैं। जैसे यातायात में आपकी सुरक्षा तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब आप नियमों का ईमानदारी से पालन करें और दूसरों की सुरक्षा का ध्यान रखें। यही बात चीजों और काम की गुणवत्ता, न्याय और प्रशासन की मुस्तैदी और जलवायु की स्वच्छता पर भी लागू होती है। देश के विकास को तभी गति मिल सकती है, जब उसके नागरिक अपना-अपना कर्तव्य समझ कर ईमानदारी से काम करें। किसान अपनी उपज और आमद बढ़ाने के लिए नई तकनीक और बीजों से नई-नई फसलें उगाएं, अध्यापक पूरी तन्मयता से पढ़ाएं, डाक्टर और इंजीनियर इलाज और निर्माण अच्छे से करें, व्यापारी मुनाफे का एक हिस्सा नई तकनीक और कुशलता की खोज में लगाएं। नेता और उनकी सरकारें सपने दिखा सकते हैं और उन्हें साकार करने के लिए बढ़ावा भी दे सकते हैं, पर कर्तव्य निभाना तो नागरिकों के हाथों में है।
नारी सम्मान की बात हो, ग़ुलामी की मानसिकता से मुक्ति या अपनी भाषा और विरासत पर गर्व करने का प्रण हो, ये सब तभी पूरे हो सकते हैं, जब देश के नागरिक अपने कर्तव्यों को समझें और उनका तन्मयता से पालन करें। नागरिक इसके लिए तभी प्रोत्साहित होंगे, जब नेता अपने आचरण से उसकी मिसाल कायम करेंगे। इस समय देश की शायद सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था की गति को बढ़ाना और रोजगार के अवसर बनाना है, ताकि उन्हें रोजगार मिल सकें, जो खाली बैठे हैं या आंशिक रूप से काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इसका सीधा जिक्र तो नहीं किया, लेकिन देश को अगले 25 वर्षों में विकसित राष्ट्र बनाने का प्रण लेने, व्यवस्था को भ्रष्टाचार और परिवारवाद से मुक्त करने, नई खोज और अनुसंधान पर बल देने और नई शिक्षा नीति से कमेरी शिक्षा को बढ़ावा देने जैसी बातों का लक्ष्य विकास को गति देना है, ताकि रोजगार बढ़ सकें, खासकर गांव-देहात के उन 55 प्रतिशत लोगों के लिए, जो अर्थव्यवस्था में मात्र 14 प्रतिशत जोड़ने वाले कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं।
प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता का संकल्प भी दोहराया और भारत में बनी होवित्जर तोपों से मिली सलामी को मिसाल के रूप में पेश किया। भारत अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा हथियारों, रक्षा उपकरणों और विमानों पर खर्च करता है। इनका निर्माण भारत में शुरू होने से दूसरे देशों पर सामरिक निर्भरता कम होगी, पूंजी की बचत होगी और देश में रोजगार बढ़ेंगे। आत्मनिर्भरता की सबसे बड़ी जरूरत ईंधन और खाद्य तेलों के क्षेत्रों में है। ऊंचे दामों पर इन दोनों के आयात से देश में महंगाई की समस्या बढ़ी है। यदि सौर और पवन जैसे अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का तेजी से विकास करके ऊर्जा की निर्भरता को कम या समाप्त किया जा सकता है। इससे पूंजी की बचत होने के साथ तेल-निर्यातक देशों की तानाशाही से भी मुक्ति मिल सकेगी। खाद्य तेलों के लिए किसानों को गेहूं, धान और गन्ने की जगह तिलहन और दलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
भारत की सबसे बड़ी विफलता स्कूली शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और सुरक्षित पेयजल की रही है। इन क्षेत्रों की मिलीजुली जिम्मेदारी राज्य और केंद्र सरकार की है। केंद्रीय विद्यालयों और अस्पतालों का स्तर तो थोड़ा बेहतर है, पर राज्यों के स्कूल-कालेजों और अस्पतालों का स्तर इतना खराब है कि सिंगापुर के उपप्रधानमंत्री ने नीति आयोग की एक बैठक में प्रधानमंत्री मोदी के सामने उसकी आलोचना कर डाली थी। सरकारी स्कूलों की दयनीय दशा के कारण गरीब से गरीब परिवार भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने और अपने इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों में जाने पर मजबूर हो जाते हैं, जिसमें उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। इसलिए नेता मुफ्त की बिजली, साइकिल और लैपटाप देने के बजाय यदि सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में अच्छे स्तर का उपचार, और पीने लायक सुरक्षित पानी उपलब्ध कराएं तो कहीं बेहतर होगा। इन पर नागरिकों का हक भी है।
सामाजिक क्षेत्र की चुनौतियां और भी कड़ी हैं। आरक्षण और कड़े कानूनों के बावजूद जातिवाद की जड़ें उखड़ने के बजाय गहरी होती जा रही हैं। सामाजिक समरसता की जगह महिलाओं, भिन्न मतावलंबियों और अल्पसंख्यकों के प्रति कड़वाहट फैल रही है। कुछ भूलें संविधान सभा से ही शुरू हो गई थीं। जैसे समान नागरिक संहिता के लिए आमराय न बन पाना और पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर बने देश में राज्यों को धार्मिक आधार पर विशेषाधिकार देना। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन और अनुच्छेद-370 को रद करने से धार्मिक आधार पर विशेषाधिकार की समस्या हल हुई है, परंतु शेष प्रश्नों और जलवायु परिवर्तन से बचाव के उपायों पर नीतियां बनाने की जरूरत है।
Rani Sahu

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