सम्पादकीय

भारतीयता नागरिकता है, जाति नहीं

Subhi
1 May 2022 6:21 AM GMT
भारतीयता नागरिकता है, जाति नहीं
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कुछ दिन पहले कई अखबारों की सुर्खियों ने मुझे चौंका दिया- भारतीयता ही एकमात्र जाति है। यह शीर्षक प्रधानमंत्री के उस भाषण की खबर का था, जो उन्होंने शिवगिरि तीर्थयात्रा की नब्बेवीं वर्षगांठ के मौके पर दिया था।

पी. चिदंबरम; कुछ दिन पहले कई अखबारों की सुर्खियों ने मुझे चौंका दिया- भारतीयता ही एकमात्र जाति है। यह शीर्षक प्रधानमंत्री के उस भाषण की खबर का था, जो उन्होंने शिवगिरि तीर्थयात्रा की नब्बेवीं वर्षगांठ के मौके पर दिया था। यह यात्रा केरल के संत और दार्शनिक श्रीनारायण गुरु (1856-1928) के सम्मान में आयोजित की जाती है।

नारायण गुरु की शिक्षाओं और शिवगिरि की यात्रा के बाद से मैं मानता रहा हूं कि पहचान के तौर पर जाति का उन्होंने जीवन भर विरोध और जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया था। शिवगिरि में उनके आश्रम का आदर्श वाक्य 'ओम सहोदर्यम सर्वत्र', है जिसका अर्थ है- 'ईश्वर की नजर में सब समान हैं'।

गलत शब्द का चयन

नरेंद्र मोदी उस भारत के प्रधानमंत्री हैं, जो एक संविधान के तहत गणतंत्र है, जिसमें 'हम भारत के लोग… इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं', की बात कही गई है। संविधान राज्यों, धर्मों, धार्मिक संप्रदायों, भाषाओं, जातियों और छुआछूत को स्वीकार करता है (और घृणास्पद व्यवहार को खत्म करने का वादा करता है)। संविधान जन्म, वंश, पंजीकरण, नागरिकीकरण, क्षेत्र के विलय और आव्रजन (कुछ निश्चित मामलों में) जैसे तरीकों से हासिल नागरिकता को स्वीकृति भी प्रदान करता है। 'भारत' शब्द कई अनुच्छेदों में मिलता है और एंग्लो-इंडियन समुदाय, भारतीय राज्यों और इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के संदर्भ में 'भारतीय' शब्द आता है। मैंने कहीं भी 'भारतीयता' शब्द नहीं पाया है।

अंग्रेजी या किसी भी भारतीय भाषा में जाति का सिर्फ एक ही अर्थ होता है। इस जाति शब्द से हमारे मस्तिष्क में वे असंख्य बुराइयां आती हैं, जो जाति-व्यवस्था से जुड़ी रहीं हैं और आज भी जुड़ी हैं। प्रधानमंत्री ने जो शब्द इस्तेमाल किया, उसकी भावना को मैं समझता हूं, लेकिन शब्द का चयन दुर्भाग्यपूर्ण और गलत था।

खारिज हो एक पहचान

जाति के साथ समान भारतीयता खतरनाक है। जाति के नियम कठोर और पीछे ले जाने वाले होते हैं। इन नियमों के तहत शादी समूह विशेष में ही होती है और कई नौजवान जिंदगियों को इस नियम को तोड़ने की कीमत चुकानी पड़ी है। जाति व्यक्तियों के समूह की अलग पहचान स्थापित करती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं, और यह दो लोगों के समूहों के बीच दूरी बना देती है। जातिगत निष्ठा और पूर्वाग्रह धार्मिक निष्ठा से कहीं ज्यादा मजबूत हैं और इनकी उग्रता धार्मिक पूर्वाग्रहों जैसी ही होती है। हाल तक, धर्म को संतुलित रूप में देखा जा रहा था, और जाति अपने पुराने ढर्रे पर थी। अब, मोदी सरकार में कई लोग इन दोनों को हवा दे रहे हैं।

एक बार अगर जाति बुलंद हो गई, तो यह जाति के घिनौने रूपों को सामने लाने लगती है। जाति संकुचित, विशिष्ट और कठोरता लिए होती है और शादी, खानपान, पहनावे, पूजापाठ आदि में सामान्यतया इसके नियम सख्त होते हैं। जाति एक पहचान स्थापित करने की कोशिश करती है। अगर 'भारतीयता' का लक्ष्य भी एक पहचान स्थापित करना है, तो यह अनेकता और बहुलतावाद के ठीक उलट है। लाखों साथी नागरिकों की तरह मैं भी भाजपा की एक पहचान स्थापित करने की कोशिशों को खारिज करता हूं।

प्रधानमंत्री के बयान ने मुझे बाबासाहब आंबेडकर के 'जाति का नाश' शीर्षक वाले अद्वितीय भाषण (जो तैयार किया गया था, पर दिया नहीं गया) को एक बार फिर से पढ़ने को प्रेरित कर दिया। उसके कुछ झकझोर देने वाले हिस्से यहां पेश हैं-

'हिंदुओं के नीतिशास्त्र पर आधारित जाति का प्रभाव खेदजनक है। जाति ने जनभावना को मार कर रख दिया है। जाति ने उपकार की भावना को नष्ट कर डाला है। जाति ने लोगों की राय को असंभव बना दिया है।"

''सामाजिक संगठन में जाति व्यवस्था से ज्यादा अपमानजनक और कुछ नहीं हो सकता। यह ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को सहायक गतिविधियों से दूर कर असंवेदनशील, पंगु और अशक्त बना देती है।"

''मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलते, थोड़ी-सी भी तरक्की हासिल नहीं कर पाएंगे। रक्षा या हमले के लिए आप समुदाय को एकजुट भी नहीं कर सकते। जाति की बुनियाद पर आप कुछ नहीं खड़ा कर सकते…।"

जाति ने सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को स्थायी बना दिया है। खासतौर से गांवों में किसी की जाति और जाति के आंकड़े की ताकत (गांव या तालुका या जिले में) ही सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को निर्धारित करती है और सामाजिक प्रभाव तथा राजनीतिक ताकत का वितरण भी इसी से तय होता है। निर्विवाद रूप से राजनीतिक ताकत ने ही आर्थिक अवसरों को तय किया है। मैंने पाया है कि पट्टा (भूमि का कब्जा) या बैंक कर्ज या सरकारी नौकरी जैसी सामान्य चीज के लिए किसी की जाति या उसकी जाति की आबादी पर गौर किया जाता है। निजी क्षेत्र की स्थिति भी अच्छी नहीं है। अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र या सूक्ष्म और लघु उद्योगों में ज्यादातर नौकरियां उन्हीं लोगों को दी जाती हैं जो उस उद्योग के मालिक की जाति के होते हैं।

अगर हम जाति की तुलना भारतीयता से करें, तो हम खुद को एक खतरनाक ढलान पर जाता हुआ पाएंगे। मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि जातिगत चेतना या जाति आधारित भेदभाव एक रात में खत्म हो जाएगा, लेकिन जाति व्यवस्था से बचाव की दिशा में उत्साहजनक प्रवृत्तियां देखने को मिलने लगी हैं। शहरीकरण, औद्योगीकरण, टेलीविजन और सिनेमा, खुली अर्थव्यवस्था, संचार, बाहर निकलने और यात्रा (विशेषरूप से विदेश यात्रा) ने जातिगत पूर्वाग्रहों को तोड़ा है। भारतीयता को जाति के समान रखने से तो पिछले कुछ दशकों में हासिल की गई प्रगति वापस ले जाएगी।

गणतांत्रिक दृष्टिकोण

स्वाभाविक रूप से हर भारतीय में एक गुण है जिसे भारतीयता के रूप में बताया जा सकता है। मैं इसे परिभाषित करने या इसकी व्याख्या करने की कोशिश नहीं करूंगा, लेकिन एक भारतीय होने के नाते एक देश का होने का अकथनीय अहसास है। मेरा निष्कर्ष यह है कि भारतीयता की तुलना नागरिकता के साथ की जानी चाहिए जो एक संविधान के तहत गणतंत्र के एक विचार के अनुरूप है। एक नागरिक, जो भारत के संविधान के बुनियादी ढांचे में भरोसा रखता है और जो इसके बुनियादी सिद्धांतों की निष्ठा के प्रति जुड़ाव रखता है, वह भारतीय है।

हमें भारतीयों को जातिगत निष्ठा से अलग करना चाहिए और उन्हें आजादी और उदारवाद, समानता, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को अपनाने के लिए शिक्षित करना होगा। राष्ट्र निर्माण, मूल्यों को साझा करने, अधिकारों और कर्तव्यों और शांति व खुशहाली हासिल करने की सही बुनियाद 'नागरिकता' है। यही सच्चा गणतंत्रवाद भी होगा।


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