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यूक्रेन पर हमले के बीच उस पूर्वी यूरोपीय देश में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हजारों छात्रों को भारत लाने के प्रयास जारी हैं
राकेश गोस्वामी
यूक्रेन पर हमले के बीच उस पूर्वी यूरोपीय देश में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हजारों छात्रों को भारत लाने के प्रयास जारी हैं। भारतीय छात्रों का मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन जाने का कारण है देश में एमबीबीएस सीटों की कमी और निजी मेडिकल कॉलेजों में शिक्षा का अत्यधिक महंगा होना। विदेश में न सिर्फ आसानी से दाखिला मिल जाता है, बल्कि वहां शिक्षा भी सस्ती है। देश लौटे छात्रों से बात करते हुए पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उनका प्रयास है, देश के हर जिले में एक मेडिकल कॉलेज हो, ताकि अगले 10 साल में अधिक से अधिक युवा डॉक्टर बनकर निकलें।
भारत में चिकित्सकों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार, प्रत्येक 10,000 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस हिसाब से देश की 138 करोड़ जनसंख्या के लिए 13.8 लाख चिकित्सकों की आवश्यकता है, पर नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2021 के अनुसार, सिर्फ 12 लाख चिकित्सक हैं।
पिछले साल मेडिकल की 83,000 सीट के लिए 16 लाख छात्रों ने नीट-यूजी की परीक्षा दी थी। 83,000 सीटों में आधी ही सरकारी मेडिकल कॉलेजों में हैं। सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए नीट-यूजी परीक्षा में उच्च स्कोर की जरूरत होती है। इन कालेजों में एमबीबीएस का कोर्स कुछ लाख रुपये में हो जाता है। जिन्हें सरकारी कॉलेज नहीं मिल पाते, उन्हें निजी मेडिकल कॉलेजों में सीट मिलती है, पर उनमें फीस इतनी अधिक है कि हर छात्र इसे वहन नहीं कर पाता। ऐसे छात्र चीन, रूस और यूक्रेन का रुख करते हैं। अपने यहां निजी मेडिकल कॉलेज एमबीबीएस कोर्स के लिए 50 लाख से डेढ़ करोड़ तक की फीस वसूलते हैं, जबकि विदेश में पूरा कोर्स करीब 20 लाख में हो जाता है।
भारत में डॉक्टरों की कमी का एक कारण यह भी है कि विदेश से आने वाले चिकित्सा स्नातक यहां आयुर्विज्ञान में राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित की जाने वाली अनिवार्य स्क्रीनिंग परीक्षा पास नहीं कर पाते। एफएमजीई नामक इस परीक्षा का आयोजन साल में दो बार-जून और दिसंबर-में किया जाता है, और विदेश से पढ़ाई करके आए स्नातकों को इसे पास करने के तीन अवसर मिलते हैं, फिर भी करीब 80 फीसदी छात्र इसे पास नहीं कर पाते। राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में इस परीक्षा में सम्मिलित हुए 21,315 स्नातकों में से महज 4,449 यानी करीब 20 फीसदी ही इसे पास कर पाए। परीक्षा में बैठने वालों में 7,795 चीन से, 3,517 रूस से और 2,734 यूक्रेन से एमबीबीएस करके आए थे। जबकि पिछले पांच साल में एफएमजीई में बैठने वाले स्नातकों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। वर्ष 2015 में इस परीक्षा में 12,116 स्नातक बैठे थे, लेकिन 2020 में यह संख्या 35,305 हो गई।
इसका मतलब है कि विदेश से मेडिसिन की पढ़ाई कर आने हर 10 भारतीयों में आठ देश में डॉक्टरी करने के लायक नहीं पाए जाते। यानी विदेश की मेडिकल शिक्षा में भी गुणवत्ता का अभाव है। यह कहना कठिन है कि यदि देश के मेडिकल स्नातकों के लिए भी इस इस स्क्रीनिंग परीक्षा को उत्तीर्ण करना अनिवार्य बना दिया जाए, तो परिणाम क्या होंगे। कुछ प्रतिष्ठित नामों को छोड़ दें, तो देश के निजी मेडिकल कॉलेजों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। कई कॉलेज बिना पर्याप्त शिक्षकों और मरीजों के चल रहे हैं।
ऐसे में, प्रधानमंत्री का यह संकल्प, कि मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जाए, ताकि छात्र देश में ही मेडिकल शिक्षा पा सकें, आश्वस्त करता है। पहले देश में 300 से 400 मेडिकल कॉलेज थे। अब उनकी संख्या बढ़ाकर करीब 700 कर दी गई है। इनमें सीट की संख्या भी 80-90 हजार से बढ़कर डेढ़ लाख हो गई है। जैसे-जैसे देश में चिकित्सा शिक्षा का ढांचा मजबूत होगा, उम्मीद है कि विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में गिरावट आएगी। इसके साथ ही सरकार को निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस नियंत्रित करने के प्रयास करने होंगे, ताकि देश में मेडिकल की शिक्षा सुलभ हो सके।

Rani Sahu
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