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- रूस-यूक्रेन पर भारतीय...
आदित्य चोपड़ा: रूस व यूक्रेन के युद्ध मोर्चे पर जिस प्रकार स्थितियां तेजी के साथ नये मोड़ ले रही हैं उन्हें देख कर लगता है कि शान्ति कायम होने में समय लग सकता है और इस दौरान 'एकल ध्रुवीय' कहे जाने वाले विश्व के विभिन्न देशों के बीच अमेरिका व पश्चिमी देशों की 'गुटबाजी' नया रंग ला सकती है। अतः राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में रूस की यूक्रेन में सैनिक कार्रवाई के विरुद्ध जो प्रस्ताव रखा गया उसमें मतदान के समय अनुपस्थित रह कर भारत ने दुनिया को यह सन्देश देने का प्रयास किया है कि समस्या का हल युद्ध से नहीं बल्कि कूटनीतिक वार्ता से ही निकलेगा अतः विश्व को युद्ध के विनाश के रास्ते को छोड़ कर शान्ति का मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास करना चाहिए। यह समय किसी एक पक्ष का साथ या उसके विरुद्ध खड़ा होने का नहीं है बल्कि बातचीत द्वारा समस्या का हल निकालने का है जिससे समूचे सोवियत क्षेत्र में शान्ति का माहौल बन सके और रूस व यूक्रेन अपने आपसी विवाद समाप्त करके शान्ति के साथ सह अस्तित्व की भावना से रह सकें। सुरक्षा परिषद में रखे गये रूस विरोधी प्रस्ताव पर रूस को वीटो करना ही था जिससे इसका वजूद विवादास्पद हो जाये, अतः रूसी प्रतिनिधि ने एेसा ही किया मगर कुल 15 देशों में से 11 ने इसका समर्थन किया और भारत के साथ चीन व संयुक्त अरब अमीरात ने अपनी अनुपस्थिति दर्ज कराई। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि रूस यूक्रेन में अपने सैनिक हस्तक्षेप को शान्ति स्थापित करने वाली फौज के रूप में देख रहा है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि 2014 में यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्र के इलाकों द्वारा स्वयं को स्वतन्त्र गणतन्त्र घोषित करने के बाद यहां के लोग अपनी स्वतन्त्र सत्ता के लिए यूक्रेन के सैनिक बलों से उलझ रहे हैं। रूसी समर्थक तथा इसकी संस्कृति से सामंजस्य रखने वाले पूर्वी यूक्रेन के विशिष्ट क्षेत्रों के लोगों की यह लड़ाई 2014 से ही जारी है जिसे रूस के राष्ट्रपति श्री व्लादिमर पुतिन ने अब जाकर खुला समर्थन दिया है और मान्यता भी प्रदान की है। वास्तव में रूस की इस कार्रवाई के पीछे पुराना इतिहास भी है। 1991 में सोवियत संध के नेता गोर्बाचेव के समय में उनके द्वारा चलाई गई 'ग्लासनोस्त' व 'पेरस्त्रोइका' जैसी उदार व खुली सत्वाधिकार की नीतियों का पश्चिमी दुनिया ने खुल कर लाभ उठाया था और 1917 की एेतिहासिक क्रान्ति के बाद गठित सोवियत संघ को 15 देशों में तोड़ने में सफलता प्राप्त कर ली थी। इसके बाद से अमेरिका व पश्चिमी देशों ने हर मोर्चे पर बचे हुए रूस की ताकत को नाकारा बनाने का प्रयास किया । अतः श्री पुतिन ने पूर्व सोवियत संघ के ही हिस्से यूक्रेन में जिस तरह रूसी राष्ट्रवाद के नाम पर अपने देश की ताकत का प्रदर्शन करने का प्रयास किया है उसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जा सकता है। यूक्रेन के सन्दर्भ में यह और अधिक उजागर इसलिए हो रहा है क्योंकि यहां के राष्ट्रपति जेलेन्सिकी की नीतियां धुर रूस विरोधी व पश्चिम व अमेरिका समर्थक हैं जिनकी वजह से वह पश्चिमी यूरोप के देशों के सामरिक संगठन 'नाटो' की सदस्यता पाने की तैयारी कर रहे थे। यह जानना जरूरी है कि सोवियत संघ के वजूद में रहते कथित कम्युनिस्ट कहे जाने वाले पूर्वी यूरोपीय देशों ने नाटों के विरोध में अपना अलग 'वारसा' सामरिक संगठन बनाया था जिससे नाटो की शक्ति को सन्तुलित किया जा सके। मगर सोवियत संघ के बिखरने के बाद वारसा संगठन का अस्तित्व ही समाप्त हो गया जिसके बाद विश्व एकल ध्रुवीय कहा जाने लगा। जाहिर तौर पर यह एकल ध्रुव अमेरिका ही था। अतः यूक्रेन के मुद्दे पर भारत के साथ चीन की सहमति के कूटनीतिक अर्थों को समझा जाना चाहिए और उसके आधार पर ही भारत व चीन के कदम को देखा जाना चाहिए। इसमें भावुकता की गुंजाइश नहीं है। अब हालत यह है कि यूक्रेन की राजधानी 'कीव' के भीतर तक रूसी सैनिक पहुंच चुके हैं और रूस ने घोषणा कर दी है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति लेजेन्सकी कीव छोड़ कर कहीं बाहर चले गये हैं।संपादकीय :हे भगवान स्टूडेंट्स पर मेहर करो...न्यायपालिका का सुधारात्मक कदमकच्चे तेल के भावों में उफानपुतिन का अमेरिकी दादागिरी को जवाबगहलोत की सौगातेंतीसरे विश्व युद्ध की आहटनिश्चित रूप से अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों खास कर यूरोपीय संघ के सदस्य देशों को यूक्रेन का रूस के विरुद्ध रक्षात्मक होना खटक रहा है और वे सब मिल कर रूस के खिलाफ विभिन्न प्रकार के आर्थिक व सामरिक प्रतिबन्धों को लगाने की घोषणा कर रहे हैं। मगर इनसे रूस इस वजह से नहीं घबरा रहा है क्योंकि वह ईरान या इराक नहीं है। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से वह एक है और परमाणु सामरिक कार्यक्रम से लेकर अन्य आधुनिक आयुध सामग्री के क्षेत्र में भी वह पश्चिमी देशों से कम नहीं है। यही वजह है कि फ्रांस के राष्ट्रपति श्री मेक्रोन ने रूस को चेतावनी जैसे लहजे में कहा है कि यूक्रेन में उसके द्वारा शुरू किया गया युद्ध लम्बा खिंचेगा। परन्तु 1998 में संयुक्त युगोस्लाविया के विघटन में निभाई गई अपनी भूमिका को स्वयं फ्रांस कैसे भूल सकता है! अतः भारत का पूरे मामले पर शान्ति बनाये रखने का दृष्टिकोण ही विश्व के अन्य सभी देशों को उम्मीद की किरण दिखा सकता है। फ्रान्स के राष्ट्रपति भी जानते हैं कि दुनिया में हुए दो विश्व युद्धों का अन्तिम परिणाम क्या निकला ? अंत में बातचीत की मेज पर ही बैठ कर सभी मसलों का हल निकाला गया और शान्ति स्थापित की गई। अतः भारत के रुख का समर्थन यदि चीन व अमीरात देश कर रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। वैसे भी हम जानते हैं कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति स्व. रोनाल्ड रीगन ने वैश्विक प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा चक्र को अमली जामा पहनाने की बात कही थी तो एशिया व पूर्वी यूरोपीय क्षेत्र के लिए 'भारत-रूस-चीन' के सुरक्षा चक्र का विचार सामने आया था।