सम्पादकीय

भारतीय समृद्धि और किसान

Gulabi
10 Jan 2021 9:24 AM GMT
भारतीय समृद्धि और किसान
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सरकार और किसानों के बीच चली वार्ता से एक सकारात्मक परिणाम यह निकला है कि दोनों अपने रुख में परोक्ष रूप से लचीलापन ला रहे

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सरकार और किसानों के बीच चली वार्ता से एक सकारात्मक परिणाम यह निकला है कि दोनों पक्ष अपने-अपने रुख में परोक्ष रूप से लचीलापन ला रहे हैं। वार्ता लम्बी चलने की यह 'रासायनिक प्रतिक्रिया' कही जा सकती है। सकारात्मक पक्ष यह है कि सरकार अब एेसे विकल्प पर विचार करने को तैयार है जिससे उसकी प्रतिष्ठा भी बची रहे और किसानों की मांग भी पूरी हो जाये। विकल्प यह है कि सरकार तीन नये कृषि कानूनों को लागू करने का फैसला राज्य सरकारों पर छोड़ दे। इससे गैर भाजपाई शासित राज्यों समेत सभी मुख्यमन्त्रियों को अधिकार मिल जायेगा कि वे चाहें तो इन कानूनों को लागू करें और न चाहें तो लागू न करें। इसे बीच का रास्ता भी कहा जा सकता है परन्तु 11 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय में कृषि कानूनों पर जो सुनवाई होगी वह भी काफी महत्वपूर्ण होगी क्योंकि न्यायालय इन कानूनों की संवैधानिक वैधता के बारे में कोई मत प्रकट कर सकता है। हालांकि न्यायालय में आन्दोलनकारी किसान संगठनों में से कोई भी नहीं गया है फिर भी मामला न्यायालय में तो लम्बित है। इस बारे में स्पष्ट नजरिये की जरूरत है क्योंकि व्यापार व वाणिज्य समवर्ती संवैधानिक सूचि का विषय है इसलिए केन्द्र सरकार को कृषि उपज के व्यापार व वाणिज्य के बारे में कानून बनाने का हक है मगर केन्द्र को कृषि उपज के विपणन (मार्केटिंग) के बारे में कानून बनाने का हक नहीं है क्योंकि यह विषय पूरी तरह राज्य सरकारों के अधिकार में राज्य सूचि में आता है।


मैं पहले भी खुलासा कर चुका हूं कि कृषि उपज का व्यापार व वाणिज्य तब शुरू होता है जब उपज बाजार में आकर बिक जाती है। निश्चित रूप से यह तकनीकी मुद्दा है जिसकी समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है परन्तु हमें यह भी समझना होगा कि भारत का किसान अज्ञानी कभी नहीं रहा है। यह इस तथ्य से 'सम्बद्ध' है कि भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा है। इस तर्क के पक्ष में सबसे बड़ा सबूत यह है कि 1756 में जब लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिरोजुद्दौला को छल-कपट से हरा कर संयुक्त भारत की इस सबसे बड़ी सल्तनत पर अपना कब्जा किया तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत था।

यह सब भारत के किसानों, दस्तकारों, शिल्पकारों व तकनीकी विशेषज्ञों के बूते पर ही संभव था। मुगलकाल के दौरान भारत की धरती से उपजी फसलों और इसके दस्तकारों द्वारा बुने गये कपड़े की धाक पूरी दुनिया में थी। इसी वजह से अंग्रेजों ने औरंगजेब के शासनकाल के अन्तिम दिनों में 1700 से पहले मुम्बई में एक कपड़ा मिल लगाने की अनुमति ले ली थी जिससे भारत के समक्ष इस कपड़ा उद्योग में प्रतियोगिता खड़ी की जा सके परन्तु 1756 के बाद अपने दो सौ वर्ष के शासन के दौरान अंग्रेजों ने भारतीयों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी और वाणिज्य की दृष्टि से इसे अपने बनाये गये माल की खपत का क्षेत्र बना डाला जिसकी वजह से 1947 तक विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा घट कर केवल एक प्रतिशत रह गया। यह सब विवरण लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि भारत के किसानों ने कृषि के मोर्चे पर अपने जमीन ज्ञान से क्रान्ति की थी। चावल की विभिन्न किस्में पैदा करके और उनमें विभिन्न खुशबुएं भर कर इन्होंने दुनिया को एक से बढ़ कर एक खाद्य तोहफे दिये। बागवानी में आम की सैकड़ों किस्में सृजित करके उन्होंने दुनिया को चौका दिया।

आम के रस को स्वादिष्ट व्यंजनों की गन्ध से किसानों ने आम के पेड़ों में ही भर कर अपनी कृषि विशेषज्ञता का परिचय दिया। इतना ही नहीं इसी देश के किसानों ने सबसे पहले नदियों के खादर में उगने वाले सरकंडों व सरुए के पेड़ों में रस भर कर उन्हें गन्ना बना दिया और लोेगों में मीठा बांटा। अतः जब हम कहते हैं कि भारत कभी गरीब देश नहीं रहा तो अपनी कृषि के हुनरमन्दों और दस्तकारी के फनकारों का ही गौरवगान करते हैं। यह दस्तकारी कपड़े से लेकर मिट्टी के बर्तन व धातुओं के बर्तन से लेकर आभूषणों तक के क्षेत्र में अपना सानी नहीं रखती थी। अतः यह मत उचित नहीं है कि किसान को केवल उपज से मतलब होता है।

भारत का इतिहास बताता है कि न तो कभी यह देश गरीब था और न ही कभी इसके किसान या अन्य लोग बुद्धि व ज्ञान में किसी से कम थे। इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने कृषि को राज्य सूचि का विषय बनाने में लम्बी बहस की थी और पाया था कि भारत की भौगोलिक विविधता के बीच कृषि विविधता का रहना प्राकृतिक है जिसे देखते हुए राज्य सरकारें ही किसानों की तरक्की के लिए उत्तरदायी बनाई जानी चाहिएं। अतः कृषि मन्त्री श्री नरेन्द्र तोमर जिस वैकल्पिक प्रस्ताव पर कार्य कर रहे हैं वह किसानों में रोष को कम कर सकता है। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसमें सभी प्रकार के विक्लपों के लिए रास्ते खुले रहते हैं और हर कदम की संवैधानिक वैधता होती है। हमें इसी तरफ चलना चाहिए।


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