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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सरकार और किसानों के बीच चली वार्ता से एक सकारात्मक परिणाम यह निकला है कि दोनों पक्ष अपने-अपने रुख में परोक्ष रूप से लचीलापन ला रहे हैं। वार्ता लम्बी चलने की यह 'रासायनिक प्रतिक्रिया' कही जा सकती है। सकारात्मक पक्ष यह है कि सरकार अब एेसे विकल्प पर विचार करने को तैयार है जिससे उसकी प्रतिष्ठा भी बची रहे और किसानों की मांग भी पूरी हो जाये। विकल्प यह है कि सरकार तीन नये कृषि कानूनों को लागू करने का फैसला राज्य सरकारों पर छोड़ दे। इससे गैर भाजपाई शासित राज्यों समेत सभी मुख्यमन्त्रियों को अधिकार मिल जायेगा कि वे चाहें तो इन कानूनों को लागू करें और न चाहें तो लागू न करें। इसे बीच का रास्ता भी कहा जा सकता है परन्तु 11 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय में कृषि कानूनों पर जो सुनवाई होगी वह भी काफी महत्वपूर्ण होगी क्योंकि न्यायालय इन कानूनों की संवैधानिक वैधता के बारे में कोई मत प्रकट कर सकता है। हालांकि न्यायालय में आन्दोलनकारी किसान संगठनों में से कोई भी नहीं गया है फिर भी मामला न्यायालय में तो लम्बित है। इस बारे में स्पष्ट नजरिये की जरूरत है क्योंकि व्यापार व वाणिज्य समवर्ती संवैधानिक सूचि का विषय है इसलिए केन्द्र सरकार को कृषि उपज के व्यापार व वाणिज्य के बारे में कानून बनाने का हक है मगर केन्द्र को कृषि उपज के विपणन (मार्केटिंग) के बारे में कानून बनाने का हक नहीं है क्योंकि यह विषय पूरी तरह राज्य सरकारों के अधिकार में राज्य सूचि में आता है।