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मुझे कुछ काम से अजमेर जाना हुआ
शंभूनाथ शुक्ल कई साल पहले की बात है. मुझे कुछ काम से अजमेर जाना हुआ. तब मैं तब मैं वहां के सरकिट हाउस में ठहरा. जिले के जनसंपर्क अधिकारी ने जब बताया कि सर आज आपके आने पर वही कमरा खोला गया है जो परवेज मुशर्रफ के लिए बनाया गया था. मालूम हो कि एनडीए शासन काल में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बुलावे पर पाकिस्तान के सदर परवेज मुशर्रफ जब भारत आए तो अजमेर जाकर उन्होंने जियारत की मंशा जाहिर की थी. लेकिन बाद में समिट के नतीजे मन मुताबिक नहीं निकलने पर उन्होंने वह यात्रा टाल दी थी. लेकिन तब तक उनकी अगवानी के लिए राजस्थान सरकार ने सरकिट हाउस को पांच सितारा का स्वरूप तो दे ही दिया था. बाद में वह कमरा बंद कर दिया गया.
ख़्वाजा की मज़ार पर पुरोहित!
और यह मैं तो कहता हूं कि ख्वाजा साहब की कृपा कि मेरे लिए ही वह कमरा खोला गया. शाम को मैं ख्वाजा की दरगाह पर गया. वहां जाकर लगा कि समूचे भारत का मिजाज सूफियाना है. यहां कोई भी कट्टरपंथी ताकत सफल नहीं हो पाती है क्योंकि उसे जनसमर्थन मिलता ही नहीं. यही कारण है कि मेला-मजार और सूफी संतों की दरगाहों पर मुसलमानों से अधिक हिंदू पहुंचते हैं. मेरे दरगाह पर जाने पर वहां के सज्जादानशीन ने बही निकाली और मेरा नाम-पता दर्ज कर लिया. ये सज्जादानशीन साहब कानपुर के जायरीनों का हिसाब-किताब रखते थे. तब मुझे पता चला कि ठीक हिंदू तीर्थ पुरोहितों की भांति ये दरगाह भी अपने यहां की बहियों में आने वाले यात्रियों का हिसाब किताब रखते हैं. मुझे जो चढ़ाना था सो चढ़ाया लेकिन इस बात का अहसास पूरा हो गया कि मूल रूप से आदमी की प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती. धार्मिक बाधाएं कितना भी उसके हाथ-पैर बांधें लेकिन आदमी मूल रूप से इंसान ही रहता है. जो कोई भी गैरइंसानी काम करने से पहले खुदा से डरता है और ऊपर वाले से दुआ करता है कि औलिया मेरे हाथ से कोई गलत काम न हो. लेकिन यह राजनीति है जो उसे गलत दिशा में ले जाती है.
मिज़ाज सूफियाना
इसके अन्य भी उदाहरण हैं जैसे कि हेमकुंड साहिब जाने वाले सिख श्रद्धालु आमतौर पर बद्रीनाथ भी जाते हैं. बद्रीनाथ के पंडों के पास ऐसे असंख्य सिख तीर्थयात्रियों का ब्यौरा मौजूद है जिनकी पिछली दस पीढिय़ां हेमकुंड साहिब में मत्था टेकने के साथ-साथ बद्रीनारायण के दर्शनों को भी आईं. यही हाल नैना देवी दर्शनों को जाने वाले हिंदू तीर्थयात्रियों का है जो नैनादेवी के साथ-साथा आनंदपुर साहब में मत्था टेकने भी जाते हैं. नांदेड़ जाने वाले त्रयंबकेश्वर खूब जाते हैं. पर यह समरसता सिर्फ भारत में ही दिखाई पड़ती है अन्यत्र यह दुर्लभ है. येरूशलम जाने वाले अरब देशों के इस्लामिक तीर्थ स्थानों पर नहीं जाते या कोई भी गैर ईसाई रोम में वेटिकन सिटी नहीं जाता. जबकि सारे सेमेटिक दर्शन मूल रूप से एक ही हैं और लगभग सभी पैगंबरों के वजूद को स्वीकार करते हैं. इसीलिए उन्हें अब्राहमिक धर्म कहते हैं.
भारत के मूल में समरसता
लेकिन भारत में धर्म की व्याख्या अलग रही है. यहां धर्म जीवन जीने का आधार भर है कोई नीति नियामक संस्था नहीं. इसलिए भारत में धर्म को पंथ कहा गया है. और माना गया है कि "महाजनेन गयेन सा पंथ:!" यानी जिस तरफ से बुद्धिमान जन जाएं वही सही पंथ है. यहां असंख्य मत मतांतर हैं पर उनमें परस्पर कोई बैर भाव नहीं. यही कारण है कि इस्लाम शुरुआत में चाहे जिस स्वरूप में आया रहा हो भारत में आकर वह भी उसी समरसता में विलीन हो गया. यही हाल ईसाइयत का रहा. यहां तो शुरू में ही मान लिया गया था कि "मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्ना!" अर्थात दो मनुष्यों के दिमाग में कुछ न कुछ फर्क होता ही है और उसकी जो साम्यावस्था है वही असली रास्ता अर्थात पंथ है.
भारत के इस सूफियाना मिजाज के पीछे भारत का अपना दार्शनिक व आध्यात्मिक चिंतन है. यहां धर्म एक पंथ रहा है बेहतर जीवन जीने का. महाभारत में कहा भी गया है कि जो धारण करने योग्य है वही धर्म है. यहां धर्म को लेकन कोई रूढ़ चिंतन नहीं रहा. जिस कर्म को हम सहजतापूर्वक जीवन में उतार सकते हैं वही धर्म है. यहां धर्म कभी भी एक बंधी बंधाई लकीर अथवा एक किताब में बंद पेज नहीं रहा. सनातन चिंतन वही है जो निरंतर बदलता रहता है. गौतम बुद्ध ने तो कहा है कि चीजें हर क्षण बदलती है यानी परिवर्तन ही जीवन है. कुछ भी है नहीं बल्कि हो रहा है. है का अर्थ तो अस्तित्व से है पर अस्तित्व तो प्रति क्षण बदला करता है.
धर्म का उदात्त चिंतन
बुद्ध कहते हैं भंते जो कुछ देख रहे हो वह सब अनित्य है, अनश्वर है और हर पल बदल रहा है इसलिए सब कुछ हो रहा होता है कुछ भी मौजूद नहीं है. यही है भारतीय चिंतन की उदात्तता. यही कारण रहा कि विदेशी रूढ़ चिंतन भी यहां आकर उदार और वैसे ही हो गए जैसे कि भारतीय समाज का मानस है. यहां इस्लाम को भी राम को भी अपना इमाम मानने में कोई परेशानी नहीं हुई. मशहूर इस्लामिक विद्वान तथा प्रख्यात दार्शनिक व शायर सर इकबाल तो कहते ही हैं राम इमामे हिंद थे. जब राम को यह तवज्जो इस्लाम में मिली तो उसकी वजह भारत के अंदर मौजूद समरसता है. यहां रहीम हुए, रसखान हुए और वे तमाम मुस्लिम कवि हुए जिन्होंने न सिर्फ हिंदुओं के मिजाज से कविताएं लिखीं बल्कि सीधे-सीधे पुनर्जन्म की तारीफ करते प्रतीत होते हैं. प्रसिद्ध भक्त कवि रसखान तो पठान वंश के थे और राजसी परिवार से थे पर सब छोड़छाड़ कर वृंदावन की कुंज गलिन में घूमने लगे. उन्होंने लिखा ही है-
देखि नगर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादशाह वंश की ठसक छांडि़ रसखान॥
रसखान ने जब स्वयं ही कहा कि 'मानुष हौं तो वही रसखान बसहुं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन' यानी एक बादशाह के परिवार का आदमी श्रीकृष्ण की बांसुरी की छवि पर ऐसा रीझा कि वह गाने लगा कि अगर अगले जन्म में उसे फिर मानुष तन मिले तो वह बृज के गांव का ग्वाला बनना पसंद करेंगे क्योंकि वे वहां वही गाएं चराएंगे जिन्हें साक्षात भगवान कृष्ण चराया करते थे. यह तसव्वुफ की इंतहां है. रसखान कृष्ण की भक्ति में अपनी सुध बुध खो बैठे थे.
न अति वाम न अति दक्षिण
रहीम तो बादशाह अकबर के नौरत्नों में से एक थे और शासक ही थे. लेकिन उनके अंदर किसी तरह की तंगदिली नहीं थी. वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण की वंदना से ही अपने काव्य का आरंभ करते थे. इसके अलावा रहीम ने जिन प्रतीकों का इस्तेमाल किया है वे कोई ईरानी अथवा तूरानी नहीं हैं बल्कि विशुद्ध भारतीय प्रतीक हैं. रहीम बृज भाषा के बड़े कवि थे और भारतीय जनमानस को ही अपनी कर्मभूमि व जन्म भूमि मानते थे. अकबर के अंदर जो समरसता का भाव था उसकी एक वजह रहीम जैसे लोगों का सानिध्य भी था. अभी हाल तक नजीर अकबराबादी आदि तमाम मुस्लिम शायर यह सहनशीलता दिखाते रहे हैं. ठीक इसी तरह तमाम पंडित उर्दू में अपनी काव्य रचना करते रहे हैं. भारत के अंदर मौजूद समरसता के यही भाव भारत की एक धर्मनिरपेक्ष और सहनशील देश की छवि बनाते हैं. यही भारत की विशेषता है कि समरसता के भाव उसके अंदर हैं. इसलिए भारत में कोई भी कट्टरपंथ सफल नहीं हो पाता. यहां राजनीति भी वही सफल रही है जिसने मध्यम मार्ग अपनाया. भारत का रास्ता "मज्झिम निकाय" यानी मध्य मार्ग का है. न अति वाम न अति दक्षिण और यही वह वजह है कि "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा!"

Rani Sahu
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