सम्पादकीय

भारतीय भाषाएं: भाषायी वर्गीकरण को चुनौती

Neha Dani
27 Dec 2021 1:56 AM GMT
भारतीय भाषाएं: भाषायी वर्गीकरण को चुनौती
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विनोबा भावे व्यवहारिक स्तर पर बहुत पहले स्वीकार कर चुके थे, लेकिन इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया।

भाषाशास्त्रियों की पारंपरिक अवधारणा को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान औरप्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) में चुनौती मिलने लगी है। इस अवधारणा के मुताबिक, भारतीय भाषाएं दो भाषा परिवारों-आर्य और द्रविड़ का हिस्सा हैं। सुनीति कुमार चटर्जी जैसे भाषा वैज्ञानिकों ने उत्तर, पश्चिमी और पूर्वी भारत की भाषाओं को जहां आर्य परिवार का बताया है, वहीं दक्षिण की सभी चारों भाषाओं तेलुगू, कन्नड़, तमिल और मलयालम को द्रविड़ परिवार का माना है।

स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रम में भाषाओं के इसी विभाजक आधार पर भाषा वैज्ञानिक अध्ययन कराया जा रहा है। हालांकि पारंपरिक भारतीय भाषा चिंतक इस विभाजन को ही गैर जरूरी मानते रहे हैं। एनसीईआरटी ने बहुभाषिक व्याकरण की रूपरेखा के विकास को लेकर एक परियोजना शुरू की है। भाषा विभाग के प्रोफेसर प्रमोद दुबे के मानस की उपज इस परियोजना के तहत दिसंबर के दूसरे सप्ताह में पांच दिनों तक चली पहली कार्यशाला में जिस तरह के तथ्य उभरे, उससे स्पष्ट है कि भारतीय भाषाओं के वर्गीकरण की आधुनिक अवधारणा की बुनियाद कमजोर है। परिषद में भारतीय भाषाओं के बीच एकात्मकता की अवधारणा पर करीब तीन साल से अलग से परियोजना चल रही है, जिससे साबित हुआ है कि भारतीय भाषाओं के बीच न सिर्फ उच्चारण, बल्कि व्याकरण और शब्द विन्यास तक के स्तर पर सहज एकता है। यह परियोजना भी प्रमोद दुबे के ही निर्देशन में चल रही है।
दरअसल एनसीईआरटी की बहुभाषिक व्याकरण की इस परियोजना का उद्देश्य है एक ऐसा सर्वमान्य व्याकरण तैयार करना, जिसके सहारे छात्र एक या उससे अधिक भारतीय भाषा सीख सकें। यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण लगता है, लेकिन जब इस पर विचार शुरू हुआ और विभिन्न भाषाओं के विद्वान बैठे, तो इन भाषाओं के बीच एक सूत्र निकलता चला गया। इसके बाद विद्वान भी सहमत होते नजर आए कि भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण वैज्ञानिकता के साथ ही तथ्यों पर आधारित नहीं है। हाल के दिनों में विशेषकर हिंदी को लेकर समाचार आते रहे हैं कि अच्छे हिंदी भाषी स्कूलों के छात्र ठीक से हिंदी पढ़ना-लिखना भी नहीं जानते, जबकि अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े बच्चों की अंग्रेजी के साथ ऐसा नहीं है।
विद्वानों ने अपने अध्ययनों में पाया कि चूंकि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल व्याकरण की पढ़ाई पर जोर देते हैं, लिहाजा बच्चे के मानस से होते हुए अवचेतन में व्याकरण की मूल स्थापनाएं गहरे तक पैठ जाती हैं। जबकि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं की पढ़ाई कराते वक्त उनके व्याकरणिक आधार पर जोर नहीं दिया जाता। इसलिए ऐसे बहुभाषिक व्याकरण तैयार करने का विचार आगे बढ़ा। बहरहाल इस बहुभाषिक व्याकरण को तैयार करने का बुनियादी आधार संस्कृत के महान वैयाकरण पाणिनी के सूत्रों को माना गया है। पाणिनी ने कहा है कि भारत में सिर्फ दो ही तरह की भाषाएं हैं, प्राकृत और संस्कृत। हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वाक् यानी बोलने वाले तत्व को न सिर्फ सार्वभौमिक भाषा, बल्कि व्याकरण का भी आधार माना है। इस आधार पर कम से कमएक समान सांस्कृतिक भू-भाग के लोगों के बीच एक समान भाषा का स्तर होना ही चाहिए।
भारतीय भाषाओं के लिए बहुभाषिक व्याकरण के विकास का लक्ष्य भारतीय भाषाओं को एक फ्रेमवर्क के तहत लाना है। इसके लिए एनसीईआरटी ने देसज यानी तद्भवशब्दों के अध्ययन पर जोर देना शुरू किया है। परिषद के विद्वानों को लगता है कि भारतीय भाषाओं के बीच प्रचलित तद्भव या देसज शब्दों की तरफ देखा गया, तो भाषाओं के विभाजन की लकीर बेमानी लगने लगेगी। इन दोनों परियोजनाओं से जो ध्वनि निकल रही है, वह एकता की ध्वनि है, अलगाव की नहीं। उसके संदेश स्पष्ट हैं कि भारत में स्थानीय स्तर पर उच्चारण और किंचित व्याकरण भेद हो सकते हैं, पर हमारी बोली-बानी एक ही है। इस तथ्य को विनोबा भावे व्यवहारिक स्तर पर बहुत पहले स्वीकार कर चुके थे, लेकिन इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया।
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