सम्पादकीय

भारतीय फिल्मों ने स्वतंत्रता पर बदलते हुए समय में नए विचारों का किया प्रयोग है

Gulabi
26 Jan 2022 8:31 AM GMT
भारतीय फिल्मों ने स्वतंत्रता पर बदलते हुए समय में नए विचारों का किया प्रयोग है
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गौरतलब है कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयास लंबे समय तक चलते रहे थे
जयप्रकाश चौकसे का कॉलम:
गौरतलब है कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयास लंबे समय तक चलते रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगत सिंह और उनके साथियों ने देश की आजादी की लड़ाई के दौरान बड़े कष्ट सहे और आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। देश की आजादी के लिए 1857 में सशस्त्र संग्राम लड़ा गया। इसके पूर्व में भी ऐसे ही प्रयास होते रहे। लेखक एरिक एरिक्सन का कहना है कि ये सारे प्रयास पूरी ईमानदार और निष्ठा से किए गए थे परंतु ये किसी क्षेत्र तक सीमित रहे।
महारानी लक्ष्मी बाई ने भी इस संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एरिक एरिक्सन का कहना था कि गांधी जी के प्रयास अखिल भारतीय रहे। लगभग 200 वर्षों तक इस देश पर बहुत कम संख्या में अंग्रेज राज करते रहे लेकिन उन्होंने राज करने के लिए संख्या में कम होने के बावजूद एक व्यवस्था बनाई। इस व्यवस्था के तहत अधिकारियों का दल था और कमिश्नर, कलेक्टर, दरोगा ये सब बड़े पद थे और काम करने वाले व्यवस्था के तहत ही काम करते थे।
जब गांधी जी ने आम लोगों से कहा कि वे अपने काम पर तो जाएं परंतु अंग्रेजी शासन व्यवस्था का कोई काम नहीं करें तो इस तरह असहयोग आंदोलन ने जोर पकड़ा और गांधी जी के इसी असहयोग आंदोलन ने अंग्रेज व्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह तोड़ दी थी। गौरतलब है कि पहले हम भारतीयों पर कोड़े बरसाने वाले हाथ भी भारतीय ही थे। स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के दिनों में भारतीय फिल्मकारों ने भी माइथोलॉजी की कथा में देश प्रेम के धागे इतनी चतुराई से पिरोए कि अंग्रेज पहचान ही नहीं पाए कि उन फिल्मकारों का आखिर इसके पीछे मंसूबा क्या है!
इस तरह उस समय के भारतीय फिल्मकार अपनी फिल्मों के माध्यम से अपना काम बखूबी करते रहे। दूसरी तरफ अपने दौर के मशहूर फिल्मकार शांताराम ने इतिहास प्रेरित फिल्मों के माध्यम से देश प्रेम की अलख जगाए रखी। उनकी फिल्म 'उदयकाल' भी कुछ ऐसी ही थी। इधर गांधी जी ने देश और समाज से कुरीतियों के विनाश की बात की तो शांता राम ने इससे प्रेरित 'दुनिया न माने', 'पड़ोसी' 'आदमी' आदि फिल्मों का निर्माण किया और अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों को जागृत करने और उन्हें देश हित की बात समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आजादी के बाद कवि प्रदीप जी के लिखे एक गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों तुम खूब लगा लो नारा ये शुभ दिन है हम सबका लहरा लो तिरंगा प्यारा, को जब लता मंगेश्कर ने इस गीत को एक समारोह में गाया तो इस गीत से वहां उपस्थित तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू जी इतने प्रभावित हुए कि वे इसे सुनकर अपने आंसू रोक नहीं पाए और रो दिए।
यह वाकई कवि प्रदीप के लिखे उस गीत का जादू था जो उन्होंने नेहरू जी को भी भावुक कर दिया, लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि आज देश में कई स्थानों के नाम बदले जा रहे हैं तो प्रदीप जी के जन्म नगर बड़नगर का नाम प्रदीप नगर क्यों नहीं किया जा रहा है? भारतीय फिल्मों ने भी स्वतंत्रता पर बदलते हुए समय में नए विचारों का प्रयोग किया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की आमिर खान, माधवन और सोहा अली खान अभिनीत फिल्म 'रंग दे बसंती' भी सराही गई है।
इस फिल्म के मस्त युवा 'रिबेल विदाउट कॉज' की तरह हैं। इस फिल्म में वहीदा रहमान की भूमिका भी सशक्त रही है। उन्होंने एक ऐसे युवा की मां का किरदार निभाया है, जिस युवा की मृत्यु एक प्लेन क्रैश में होती है और इस दुर्घटना के मूल में कारण मुख्य रूप से भ्रष्टाचार ही था। बहरहाल, सर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' भी एक सार्थक प्रयास सिद्ध हुआ। गोया की किसी भारतीय फिल्मकार ने एटनबरो की तरह ऐसी फिल्म नहीं बनाई।
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