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उन्हें क्यों नहीं जीएसटी के दायरे में लाया जाता? वाकई जनहित में इस कानून में कुछ सुधारों की सख्त जरूरत है।
इन दिनों हमारी अर्थव्यवस्था में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के आंकड़े बहुत उत्साहजनक हैं। यह एक सकारात्मक संदेश है कि अर्थव्यवस्था प्रगति कर रही है। चालू वित्तीय वर्ष के लिए प्रस्तुत किए गए बजट में सरकार ने 9.5 प्रतिशत की विकास दर का अनुमान लगाया है। जीएसटी की रफ्तार से यह संभव भी है। फिर भी कुछ पक्ष अभी बहुत उलझे हुए हैं, जिनमें बेरोजगारी व महंगाई मुख्य हैं। ऐसे में करों का संग्रहण आखिर बढ़ कैसे रहा है? और अगर बढ़ भी रहा है, तो उसका प्रत्यक्ष फायदा आम आदमी को क्यों नहीं हो रहा है?
बेरोजगारी के मुद्दे का हल तो संरचनात्मक आर्थिक सुधारों से ही होगा तथा इसके अंतर्गत ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती सबसे महत्वपूर्ण है। रही बात महंगाई की तो यह प्रश्न लगातार चर्चा में रहता है कि जीएसटी की अधिक दरें, इसका एक कारण है। इस पर अभी एक राय नहीं बनी है, लेकिन ये सोच लगातार चिंतन में रहती है। किसी भी देश के आर्थिक विकास को नई धार देने के लिए दो तरह की सोच का एक साथ चलाना अत्यंत आवश्यक होता है। एक - राजस्व संग्रहण लगातार बढ़े।
दूसरा- राजस्व का अनुपातिक वितरण तुरंत हो। वर्तमान मोदी सरकार के पिछले आठ वर्षों के कार्यकाल का इस पक्ष पर विश्लेषण किया जाए, तो यह पाया जाएगा कि सरकार की प्रथम प्राथमिकता करों के संग्रहण को बढ़ाना रही। इस हेतु एक दूरगामी सोच के तहत सरकार ने उसे 2017 में वस्तु व सेवा कर के रूप में अमलीजामा पहनाया था। वहीं दूसरी तरफ सरकार ने अपने राजस्व के संग्रहण को शुरू से ही आधारभूत ढांचे के विकास पर तेजी से वितरित करना शुरू कर दिया था।
इसके परिणाम भारत में तेजी से बढ़ रहे राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तार से समझे जा सकते हैं। अर्थव्यवस्था में करों के संग्रहण में बढ़ोतरी इस बात का प्रत्यक्ष आधार होता है कि बाजार में तेजी का रुख कायम है, ग्राहक का विश्वास बना हुआ है, मांग में निरंतर वृद्धि है तथा इसी के परिणाम स्वरूप अंततः उद्योगों व व्यापारों में मुनाफा भी है। इसी संदर्भ में अगर पिछले वित्तीय वर्ष में विभिन्न राज्यों के कर संग्रहण की बात की जाए, तो देखा गया है कि सभी बड़े राज्यों में कर संग्रहण में बढ़ोतरी ही पाई गई।
उत्तर प्रदेश में ये 16 प्रतिशत , राजस्थान में 19 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 25 प्रतिशत, कर्नाटक में 19 प्रतिशत, गुजरात में 17 प्रतिशत व मध्य प्रदेश में नौ प्रतिशत रही है। सबसे अधिक दर अरुणाचल प्रदेश में रही जो 90 प्रतिशत थी, तो सबसे कम सिक्किम व पंजाब में रही, जोकि क्रमशः दो व चार प्रतिशत थी। इस अधिनियम के द्वारा जैसे ही कर की जटिलताएं खत्म हुईं, तो उसका प्रत्यक्ष फायदा करदाताओं की संख्या में एकाएक खूब बढ़ोतरी से हुआ। विभिन्न आंकड़ों के अनुसार प्रथम दो वर्षों में ही करीब 80 प्रतिशत से अधिक नए करदाता जुड़े।
यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, इसके कई वैश्विक मायने भी हैं। एक अन्य फायदा यह भी हुआ, जो कि आम सोच के दायरे से बाहर है। वह यह है कि जीएसटी के माध्यम से आयकर का संग्रहण भी बढ़ा है, क्योंकि इस अधिनियम के द्वारा टेक्नोलॉजी के माध्यम से पारदर्शिता को सिस्टम में स्थापित करने की कोशिश भी की गई थी। इन सब के बावजूद अभी यह नहीं कहा जा सकता कि कर व्यवस्था का ढांचा पूर्णतया सही हो चुका है तथा आम आदमी को इससे सुविधा मिल रही है। बहुत सारे प्रश्न लगातार कई समस्याओं को इंगित करते हैं। विश्व के दूसरे मुल्कों की तुलना में हमारी कर-दरें अधिक क्यों है?
भारत एक आत्मनिर्भर मुल्क बनना चाहता है और इस संदर्भ में उसकी पहली टक्कर चीन से हो रही है। चीन में कर की अधिकतम दर 17 प्रतिशत है, जबकि भारत में अभी यह 28 प्रतिशत है। यह प्रश्न बहुत जायज है, क्योंकि बढ़ता कर संग्रहण जहां एक सकारात्मक रूप प्रस्तुत करता है कि भविष्य में आर्थिक सफलता देगा, परंतु जब वर्तमान परिस्थिति में बढ़ती महंगाई से बचत न हो रही हो तो आम आदमी के लिए यह पक्ष व्यर्थ हो जाता है। इसके अलावा पिछले काफी समय से यह चर्चा भी आम रही है कि पेट्रोल व डीजल के मूल्य, जोकि हर आम आदमी को परेशान कर रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं जीएसटी के दायरे में लाया जाता? वाकई जनहित में इस कानून में कुछ सुधारों की सख्त जरूरत है।
सोर्स: अमर उजाला
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