सम्पादकीय

वक्त के हिसाब से पुराना हो गया है इंडियन ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940, भारत में नई दवाओं की खोज में उत्पन्न करता है बाधा

Rani Sahu
24 March 2022 9:33 AM GMT
वक्त के हिसाब से पुराना हो गया है इंडियन ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940, भारत में नई दवाओं की खोज में उत्पन्न करता है बाधा
x
भारत की दवा विकास नीति की पहले भी शेयरहोल्डर्स ने आलोचना की है

शालिनी सक्सेना

भारत बायो इंटरनेशनल लिमिटेड के मुख्य प्रबंध निदेशक डॉ. कृष्णा एला ने 16 मार्च को चेन्नई में आयोजित सीआईआई (दक्षिणी क्षेत्र) की वार्षिक बैठक में दवा निर्माण को नियंत्रित करने वाले रेग्यूलेटरी सिस्टम (Regulatory System) ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940 को "भारत में वक्त के हिसाब से पुराना" बताया. उन्होंने भारत की पहली स्वदेशी कोरोना वैक्सीन (Corona Vaccine) कोवैक्सीन (Covaxin) विकसित करते समय अपनी कंपनी के सामने आने वाली कई चुनौतियों का भी जिक्र किया. 18 मार्च को एक सम्मान समारोह के लिए राजधानी में आए डॉक्टर एला ने टीवी 9 को बताया कि उनकी नाक से लेने वाली वैक्सीन जल्द ही बाजार में आने वाली है. उन्होंने कहा, "मेरी प्राथमिक चिंता यह है कि परिवार सुरक्षित रहें. हम अपने टीकों के साथ नये प्रयोग करते रहेंगे जैसे हम नाक से लेने वाले टीके के साथ कर रहे हैं लेकिन भारत में एक मूल दवा को ग्राहकों तक लाना एक बोझिल प्रक्रिया है."

भारत की दवा विकास नीति की पहले भी शेयरहोल्डर्स ने आलोचना की है. वे महसूस करते हैं कि इस कानून में बड़े बदलाव की जरूरत है. "यह अजीब है कि आप एक दवा की नकल करने की अनुमति देते हैं. जब आप नकल करते हैं तो आपको बहुत सी चीजों तक आसानी से पहुंच मिलती है. आपको एक दवा की नकल करने के लिए पुरस्कृत किया जाता है. लेकिन जब रिसर्च एंड डेवलपमेंट की बात आती है तो कई कानूनी बाधाएं सामने आती हैं. ऐसे में एक नई दवा बाजार में लाना असंभव सा है. अगर आप बिल्कुल शून्य से नई दवा बनाने जाएं तो एक बहुत लंबी प्रक्रिया है जिससे हमारी जैसी कंपनियों को गुजरना पड़ता है. दूसरे शब्दों में कानून अनुसंधान और विकास को हतोत्साहित करता है. हम आत्मानिर्भर भारत की बात करते हैं और आयात को हतोत्साहित करते हैं लेकिन हमारा कानून बहुत ही अल्पविकसित है, "मेटियोरिक बायोफार्मास्युटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक-सीईओ गौरव कौशिक ने टीवी 9 को बताया.
ड्रग्स और कॉस्मेटिक कानून शोध और विकास को असंभव बनाता है
अपने वर्तमान स्वरूप में ड्रग्स और कॉस्मेटिक कानून में कई प्रतिबंध और बाधाएं हैं – रेग्यूलेटरी एप्रूवल से लेकर लालफीताशाही तक नए प्रयोग और अनुसंधान को हतोत्साहित करता है. कौशिक वर्तमान महामारी का उदाहरण देते हैं. "जब अस्पताल में भर्ती मरीजों की लगातार मौत हो रही थी और स्थिति गंभीर थी तब भी नई दवा का विकास करने वाली कंपनियों को कानून के तहत कड़े दिशानिर्देशों का पालन करना पड़ा. इस अधिनियम को बनाने के पीछे जो नीति निर्धारक थे उन्होंने नई वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया को छोटा नहीं किया.
प्रक्रिया वैसी ही रही जैसी सामान्य वैक्सीन को विकसित किए जाते वक्त होती है – 1, 2 और 3 ट्रायल, फिर पशुओं पर परीक्षण और तब जाकर मानव पर परीक्षण. हम बिना परीक्षण के ड्रग्स और फार्मास्यूटिकल्स या वैक्सीन लोगों के बीच लाने की बात नहीं कर रहे हैं लेकिन कभी-कभी नियमों को छोटा करने की आवश्यकता होती है ताकि बाजार में तत्काल किसी जरूरी दवा या वैक्सीन की मांग को पूरा किया जा सके."
फाइजर और मॉडर्ना का उदाहरण देते हुए कौशिक ने कहा कि उन्हें सीधे मानव पर परीक्षण की छूट दे दी गई. "भारत में वैक्सीन बनाने वाली स्वदेशी कंपनियों को सभी निर्धारित चरणों का पालन करना पड़ा. हमारी नौकरशाही ने किसी भी कदम को छोड़ने की अनुमति नहीं दी जबकि उस समय तुरंत दवा और वैक्सीन की जरूरत थी. परीक्षणों में ही छह से आठ महीने तक लग गए. इस बीच, मॉडर्ना और फाइजर अपने एमआरएनए टीकों के साथ आगे बढ़ गए."
जेनेरिक और बायोफार्मा दवाओं को मंजूरी में अंतर
कौशिक ने कहा कि बायोफार्मा उत्पादों (जैसे वैक्सीन या मूल दवा) के लिए निर्धारित दिशानिर्देशों की तुलना में जेनेरिक दवाओं (जैसे पैरासिटामोल) के नियम आसान हैं. "मान लें कि हम कोरोना काल से बाहर आ गए हैं और कोई पैरासिटामोल के 10 वेरिएंट विकसित करना चाहता है, यह प्रक्रिया बहुत आसान है. कोई भी सामान्य उत्पाद की नकल कर सकता है जो पहले से बाजार में उपलब्ध है. पैरासिटामोल बनाने के कम से कम 50 संदर्भ मौजूद हैं. कोई उस रेफरेंस यानि संदर्भ को प्रस्तुत कर कुछ ही समय में बाजार में बेचने के लिए सरकार से मंजूरी प्राप्त कर सकता है. लेकिन जब बायो-प्रोडक्ट की बारी आती है तो चीजें बहुत अधिक जटिल होती हैं. नोडल एनएफटी, सेंट्रल एनएफटी जैसे रेग्यूलेटरी बॉडिज से एप्रूवल लेने के आलावा कई दूसरी जगहों से भी हरी झंडी प्राप्त करनी होती है."
जेनरिक और बायोफार्मा ड्रग्स में स्वीकृतियों में कितना वक्त लगता है?
कौशिक ने बताया कि बायोफार्मा उत्पादों के लिए आपको बिल्कुल शून्य से शुरू करना होता है और बाजार में उत्पाद लाने में 12-13 साल लग जाते हैं. जबकि यदि आप सिर्फ एक पुरानी कॉम्पोजिशन की नकल करते हैं तो दो-तीन साल में कोई भी उत्पाद बाजार में आ सकता है. उन्होंने कहा, "ऐसी कुछ कंपनियां हैं जो खुद चुनौती लेना पसंद करती हैं और रिसर्च एंड डेवलपमेंट की प्रक्रिया जारी रखती हैं. लेकिन इससे उन पर बड़ा आर्थिक बोझ पड़ता है और ज्यादा वक्त भी लगता है. आरएंडडी की लागत कंपनी वहन करती है."
कौशिक ने एक नई दवा या वैक्सीन को विकसित करने या मूल दवा से कॉपी किए गए नमूने की स्वीकृति में अंतर के बारे में बताया. "हमारी कंपनी ने हाल ही में प्राकृतिक जगह से बैक्टीरिया को निकाला. इसे जैव विविधता कानून जैसे कई चैनलों से गुजरना पड़ा. कई रेग्यूलेटरी अथॉरिटी हैं जिनकी स्वीकृति आपको लेनी होती है. हमें ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट का पालन करना होता है. समस्या यह है कि यह बुनियादी परीक्षणों से ज्यादा कुछ नहीं कहता. जेनेरिक फार्मास्यूटिकल्स और अन्य कंपनियों की तुलना में बायोफार्मा ड्रग बाजार में लाना ज्यादा कठिन है."
कानून में किन जगहों पर बदलाव की जरूरत है
गौरव कौशिक ने निष्कर्ष निकाला, "अधिनियम समावेशी होना चाहिए. चूंकि नियामक और औषधि अधिनियम को करीब 80 साल से नहीं बदला गया है यह आज के समाज में पुराना पड़ चुका है. इसीलिए पब्लिक लाइबिलिटी इंश्योरेंस एक्ट 1991 को भी सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जा सका. उन्हें पुरानी ड्रग्स एंड कॉसमेटिक्स एक्ट का ही पालन करना पड़ा. निर्धारित दिशानिर्देशों से अलग हट कर काम करना संभव नहीं है. इसमें बदलाव किए बिना किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला है. जब कोई नया उत्पाद लॉन्च कर रहा है तो उसे एक नई पहचान भी जरूर दी जानी चाहिए. पूरे अधिनियम को एक बार फिर से शून्य से अध्ययन कर इसमें संशोधन की जरूरत है – कच्चे माल से लेकर तैयार उत्पाद तक. यदि हम दोनों को शामिल करते हैं तो और अधिक जैविक दवाओं का निर्माण किया जा सकेगा. समस्या यह है कि भारत जेनरिक दवाओं को बनाने में विश्व में सबसे आगे है इसलिए कोई भी 82 साल पुराने इस अधिनियम पर दोबारा मेहनत करने की जहमत नहीं उठाना चाहता."
Next Story