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भारत को बदलनी होगी अपनी चीन नीति
सोर्स- Jagran
डा. अभिषेक श्रीवास्तव। पिछले सात दशकों से भारत-चीन संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। भारत के तमाम शांति प्रयासों के बावजूद चीन द्वारा भारतीय सीमाओं और हितों पर चोट करना लगातार जारी है। जून 2020 में गलवन घाटी में हुई झड़प ने दोनों देशों के बीच कड़वाहट को और गहरा कर दिया है। चाहे 1962 का युद्ध हो और उसके पश्चात सीमा विवाद के समाधान के प्रयास हों या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थायी सदस्य बनने का, चीन लगातार अड़ियल रुख अपनाए हुए है।
चीन हिंद महासागर में 'स्ट्रिंग आफ पर्ल्स' नीति के तहत भारत के चारों तरफ अपने सैन्य अड्डे का विस्तार करता रहा है। इसके साथ ही वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध भारत के प्रस्तावों पर भी रोड़ा लगाता रहा है। इससे चीन की नई दिल्ली के प्रति दुर्भावना स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। चीन के अड़ियल रुख के कारण ही द्विपक्षीय स्तर पर लगातार वार्ता के बाद भी भारत-चीन के बीच सीमा विवाद मामले में कोई सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। अब यह साफ है कि वह सीमा विवाद सुलझाने का इच्छुक ही नहीं।
गलवन में हुई झड़प के बाद 16 दौर की सैन्य वार्ता और अन्य मंचों पर द्विपक्षीय वार्ताओं के बाद भी सीमा पर तनाव की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। भारत लगातार कह रहा है कि समग्र द्विपक्षीय संबंधों में प्रगति के लिए सीमा पर शांति एवं स्थिरता पूर्व शर्त है। इसके बाद भी पूर्वी लद्दाख में टकराव वाले सभी स्थानों में चीन अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए हुए है। यह स्थिति चीन द्वारा संबंध सुधार के दावों को पूरी तरह खोखला साबित करती है।
चीन द्वारा हिंद महासागर क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय नियमों और छोटे देशों की संप्रभुता का उल्लंघन जारी है। यह क्षेत्रीय अशांति का कारण बन रहा है। हिंद महासागर के अफ्रीकी देश जिबूती में चीन द्वारा 2016 से नौसैनिक अड्डा का निर्माण किया जा रहा है, जिससे स्वेज नहर से आने जाने वाले व्यापारिक जहाजों पर चीन को रणनीतिक बढ़त हासिल हो सकती है। यह हिंद महासागर में भारतीय हितों के विपरीत है। हाल में भारत की आपत्तियों के बावजूद चीन का जासूसी जहाज 'युआन वांग 5' श्रीलंका के हंबनटोटा द्वीप पर गया, जबकि श्रीलंका के विदेश मंत्रालय ने आधिकारिक अनुमति भी नहीं दी थी। चीन के जासूसी जहाज का इस क्षेत्र में आना भारत-चीन संबंधों के गिरते ग्राफ को ही दर्शाता है।
अनेक वैश्विक मुद्दों पर भारत-चीन में आम सहमति नहीं है। वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में चीन द्वारा भारत के प्रयासों में बार-बार रोड़ा अटकाया जा रहा है। पिछले दिनों भारत और अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अब्दुल रहमान मक्की को वैश्विक आतंकी घोषित करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन चीन ने मक्की को सूचीबद्ध करने के प्रस्ताव पर 'तकनीकी रोक' लगा दी। यही हरकत उसने एक अन्य आतंकी अब्दुल रउफ अजहर के मामले में भी की।
गलवन की घटना के बाद स्थितियां काफी बदल गई हैं। भारत में चीनी विरोध की लहर चल रही है। भारत सरकार द्वारा सैकड़ों चीनी एप को प्रतिबंधित किया गया है। अब भारत को वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी चीन नीति का समग्र विश्लेषण करना चाहिए और उसमें बुनियादी बदलाव लाना चाहिए। हाल में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने यह चिंता प्रकट की कि बीजिंग ने भारत-चीन सीमा पर जो किया, उसके बाद दोनों देशों के बीच संबंध 'बेहद कठिन दौर' से गुजर रहे हैं। यदि दोनों देश हाथ नहीं मिला सके तो यह क्षेत्र एशिया की सदी बनने से चूक जाएगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वैश्विक राजनीति आजकल अपने सबसे अनिश्चित दौर में है। कुछ विश्लेषक शी चिनफिंग के नेतृत्व वाले चीन की तुलना हिटलर के नेतृत्व वाले जर्मनी से कर रहे हैं। चीन की विस्तारवादी नीतियों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अशांत कर दिया है। चीन द्वारा अपने पड़ोसी देशों के क्षेत्रों पर दावा करना और अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमाओं एवं कानूनों के लगातार उल्लंघन से इस क्षेत्र में अशांति और युद्ध की आशंका प्रबल होती जा रही है। ऐसी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत को चीन के प्रति अपनी नीति में कुछ बड़े बदलाव करने की आवश्यकता है।
भारत को व्यापक वैश्विक समर्थन हासिल करना चाहिए, जिससे चीन की वैश्विक पहुंच को संतुलित किया जा सके। भारत को अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में और सक्रिय होना चाहिए। इसके साथ वैश्विक एवं क्षेत्रीय आपूर्ति चेन को नियमित रखने के प्रयासों पर लगातार ध्यान देना चाहिए, जिससे चीन की व्यापारिक तानाशाही को नियंत्रित किया जा सके। क्षेत्रीय आपूर्ति चेन के लिए नए सिरे से विचार करना चाहिए, जिसमें दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को मिलकर एक आर्थिक गलियारे के निर्माण पर विचार करना चाहिए।
ताइवान मुद्दे पर चीन लगातार विश्व के सभी देशों से 'वन चाइना पालिसी' पर समर्थन मांग रहा है। यदि चीन को 'वन चाइना पालिसी' की वैधता की चिंता है तो उसे अपने पड़ोसी देशों की संप्रभुता का भी सम्मान करना चाहिए। चीन को भारत की जमीन पर अपनी अनधिकृत उपस्थिति को समाप्त करते हुए भारत की संप्रभुता और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को खुला एवं मुक्त रखने में सहयोग करना चाहिए।
यह उल्लेखनीय है कि भारत ने 2010 के बाद से अब तक एक बार भी आधिकारिक मंचों से 'वन चाइना पालिसी' का जिक्र नहीं किया है। यह चीन के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है। अब समय आ गया है कि भारत यह स्पष्ट करे कि वह इन-इन कारणों से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकता। यदि चीन को भारत की संवेदनशीलता की परवाह नहीं तो फिर भारत को भी उसकी संवेदनशीलता की चिंता करना छोड़ देना चाहिए। इसी तरह यदि चीन द्वपक्षीय समझौतों का पालन नहीं कर रहा है तो फिर भारत को भी यह स्पष्ट करना होगा कि वह उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती।
Rani Sahu
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