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- मानसिकता में परिवर्तन...
एमजे अकबर : परिवर्तन का सबसे उल्लेखनीय स्वरूप वही है, जिसकी ओर आपने कभी ध्यान न दिया हो। बहरहाल यह बात केवल आम लोगों तक ही सीमित नहीं कि यकायक आए बदलाव को देखकर वे हैरत में पड़ जाते हैं। निजी क्षेत्र और यहां तक कि सरकारें भी अक्सर उसे समय से भांप नहीं सकतीं। इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। लोकतंत्र अति-आत्मविश्वास वाली सरकारों के आख्यानों से भरा पड़ा है, जो इससे बेखबर रहती हैं कि उनके पैरों तले जमीन न जाने कब खिसक गई। आसमान में भले ही चक्रवात का कहर हो या जमीन पर भूकंप की तबाही, लेकिन बहुमत वाली सरकारों के कानों पर तब तक जूं नहीं रेंगती, जब तक कि सुधारवादी कदम उठाने में बहुत ज्यादा देरी न हो जाए। साल 1977 में हुए चुनाव इस ग्रंथि को समझने का सबसे सटीक उदाहरण हैं। श्रीमती इंदिरा गांधी को कभी भनक ही नहीं लगी कि आपातकाल के दौरान भारत का मानस आखिर कैसे बदल गया। वहीं यह बात उनकी अनुवर्ती जनता पार्टी सरकार पर भी उतनी ही सही साबित होती है, जो 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी से चारों खाने चित हो गई थी।