सम्पादकीय

श्रीलंका में आम लोगों के साथ खड़ा भारत

Rani Sahu
11 May 2022 5:45 PM GMT
श्रीलंका में आम लोगों के साथ खड़ा भारत
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अफसोस, श्रीलंका में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच एक तरह से खूनी संघर्ष-सा छिड़ गया है

स्मृति पटनायक,

अफसोस, श्रीलंका में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच एक तरह से खूनी संघर्ष-सा छिड़ गया है। वहां दो दिन पहले आपातकाल लगाना पड़ा है। वैसे तो आपातकाल पहले भी लागू हुआ था, लेकिन वह कुछ समय के लिए था, अब जो आपातकाल लगा है, वह अनिश्चितकाल के लिए है। पहले जो आपातकाल लगा था कि उसकी पालना कड़ाई से नहीं हुई थी, जबकि अब आपातकाल का असर सड़कों पर भी दिखने लगा है। सरकार का कहना है कि लोगों की सुरक्षा और देश में शांति के लिए आपातकाल लगाया गया है, जबकि असल में आपातकाल इसलिए लगाया गया है, ताकि लोग सड़कों पर आकर प्रदर्शन न कर सकें। हमारे इस पड़ोसी देश में गुस्सा इस कदर है कि सरकार के विरोधी पाबंदियों को मानने के लिए कतई तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति बार-बार शांति बनाए रखने की अपील कर रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों को सीधे गोली मार देने के आदेश दे दिए गए हैैं।
ध्यान रहे, हिंसा तब और तेज हो गई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे से मिलकर लौटे उनकी पार्टी के लोगों ने बाहर आकर विरोधी प्रदर्शनकारियों के साथ मारपीट शुरू की दी। सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष के बीच हिंसा बढ़ गई। दोनों पक्ष से यह बयानबाजी भी हुई है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन ये बयान दिखाने के लिए हैं। प्रधानमंत्री का जो इस्तीफा हुआ है, वह भी लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए हुआ है। मंत्रिमंडल को भी इस्तीफा देना पड़ा है। राजपक्षे परिवार के अनेक लोग मंत्रिमंडल में थे, उन सभी का इस्तीफा हुआ है। कुछ रिश्तेदारों के विदेश चले जाने की भी खबर आई है। श्रीलंकाई राजनीति के दिग्गज नेता महिंदा राजपक्षे का बेशक प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा हो गया है, लेकिन उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हैं। श्रीलंका में पैदा संकट की वजह से वह बहुत हद तक अपनी लोकप्रियता गंवा चुके हैं। राजपक्षे परिवार के सत्ताधारी सदस्य पहले अड़े हुए थे, पर अब उनके इस्तीफे वास्तव में गुस्से को कम करने की दिशा में मामूली प्रयास भर हैं। यहां यह जरूर कहना चाहिए कि ताजा हिंसा अगर नहीं होती, तो ये इस्तीफे भी नहीं होते। कुछ नेताओं और लोगों की मौत हुई है। अब कोशिश तो यही होनी चाहिए कि वहां और हिंसा न हो। देश कोई भी हो, अगर किसी विरोध-प्रदर्शन के खिलाफ सत्ताधारी नेता उग्रता दिखाते हैं, तो हिंसा होती ही है।
खास बात यह है कि पहले श्रीलंका में जो प्रदर्शन चल रहे थे, उनमें केवल आम लोग शामिल हो रहे थे, लेकिन अब श्रमिक संगठन भी इसमें उतर आए हैं। प्रदर्शन की बागडोर विभिन्न संस्थाओं और संगठनों के हाथों में जाने लगी है। यह बदलाव श्रीलंका में बड़ी अस्थिरता का कारण बन सकता है। मिसाल के लिए, दो दिन पहले श्रीलंका मेडिकल एसोसिएशन ने सरकार से अपील की है कि कृपया, आप वैसा ही कीजिए, जैसा लोग चाहते हैं। हिंसा नहीं होनी चाहिए, वरना देश में अस्थिरता बढ़ जाएगी। स्वाभाविक है कि प्रदर्शनों में अगर हिंसा होगी, तो श्रीलंका की स्वास्थ्य सेवाओं पर भी दबाव बढ़ेगा। अब भी श्रीलंका की चिकित्सा व्यवस्था बहुत दबाव में है।
श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार गिरकर पांच करोड़ डॉलर पर पहुंच गया है। श्रीलंका अभी इस स्थिति में नहीं है कि चिकित्सा उपकरणों, दवाओं का आयात कर सके। अभी श्रीलंका में खाद्य पदार्थों का आयात ज्यादा जरूरी है। इसलिए चिकित्सा संगठन ने गुहार लगाई है कि हिंसा की तरफ न जाएं, ज्यादा हिंसा होगी, तो संभालना मुश्किल हो जाएगा। अभी भी जो हिंसा हो रही है, उनमें दर्जनों लोग घायल हो रहे हैं और अस्पतालों पर दबाव बढ़ रहा है। सरकार भी यही चाहती है कि हिंसा न हो, इसीलिए आपातकाल की घोषणा की गई है। इसके जरिये कोशिश यही है कि देश में अनिवार्य सेवाओं पर असर न पड़े, सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त न हो। सरकार का नियंत्रण बना रहे।
वहां राष्ट्रीय सरकार, मतलब सभी पार्टियों की मिली-जुली सरकार बनाने की चर्चा चल रही है, लेकिन यह कैसे होगा? इसके लिए विपक्षी दल तैयार नहीं हैं। वे अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए हैं, लेकिन अब इसकी जरूरत इसलिए भी नहीं रह गई है, क्योंकि महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। श्रीलंका में वैसे भी राष्ट्रपति व्यवस्था है। वहां राष्ट्रपति को हटाना कतई आसान नहीं है।
एक पहलू यह भी है कि श्रीलंका में बौद्ध धर्मगुरुओं का बहुत प्रभाव है, लेकिन वे अभी बंटे हुए हैं। वे भी हिंसा नहीं चाहते, क्योंकि उनकी पूरी तरह से समाज पर निर्भरता है। लोगों की मांग अब बिल्कुल स्पष्ट है कि राजपक्षे परिवार पूरी तरह से सत्ता से हटे। राष्ट्रीय सरकार बने। कुछ लोगों का कहना है कि नई सरकार कुछ समय के लिए बनाई जाए, तो कुछ लोग कह रहे हैं कि इसको बनाने से पहले राष्ट्रपति की शक्तियां घटाई जाएं। अभी संविधान के अनुसार, वहां राष्ट्रपति बहुत मजबूत हैसियत में हैं। एम सिरिसेना की सरकार के समय में श्रीलंका की संसद को मजबूत किया गया था, लेकिन गोटबाया जब राष्ट्रपति बने, तब संविधान में बदलाव कर फिर राष्ट्रपति को ज्यादा शक्तियां दे दी गईं।
बहरहाल, भारत अपनी ओर से श्रीलंका की पूरी मदद कर रहा है। मानवीय किस्म की मदद है, लगभग दो अरब डॉलर की। इसमें दवाएं और खाद्य पदार्थ और ईंधन भी शामिल हैं। भारत वहां के लोगों की मदद करने की कोशिश कर रहा है। वहां खाने-पीने के सामान नहीं हैं। ईंधन की कमी है। इसके लिए मदद जरूरी है। अभी एक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि वहां की सरकार इतनी अलोकप्रिय हो गई है, तो भारत को मदद क्यों करनी चाहिए? लेकिन भारत वास्तव में श्रीलंका के लोगों की मदद कर रहा है।
जरूरत के समय हमें सबसे पहले प्रतिक्रिया करनी ही चाहिए। हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि दूसरों के वहां पहुंचने से पहले हम वहां पहुंचें, क्योंकि हम श्रीलंका के ज्यादा करीब हैं। वैसे भी 'पड़ोसी पहले' की हमारी नीति है। भारत पहले भी श्रीलंका की मदद करता रहा है और आज भी संकट के समय उसके साथ खड़ा है। चीन ऐसे समय में श्रीलंका की मदद कर सकता है और उसने चर्चा की भी है। लेकिन अभी हम मदद करने में सबसे आगे हैं और हमें होना भी चाहिए।


Rani Sahu

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