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भारत-अमेरिका 2 प्लस 2 मिनिस्ट्रियल डायलॉग (Fourth India-US 2+2 Ministerial Dialogue) यूक्रेन में चल रहे युद्ध (Russia Ukraine War) और इस संघर्ष को लेकर भारत के तटस्थ रुख की अमेरिकी अधिकारियों द्वारा खुली आलोचना पर केंद्रित रहने की संभावना है
के वी रमेश
भारत-अमेरिका 2 प्लस 2 मिनिस्ट्रियल डायलॉग (Fourth India-US 2+2 Ministerial Dialogue) यूक्रेन में चल रहे युद्ध (Russia Ukraine War) और इस संघर्ष को लेकर भारत के तटस्थ रुख की अमेरिकी अधिकारियों द्वारा खुली आलोचना पर केंद्रित रहने की संभावना है. महामारी की वजह से ये वार्ता पिछले साल से स्थगित थी. अब यह वार्ता तब हो रही है जब पश्चिमी देशों ( WESTERN COUNTRIES) ने भारत के तटस्थ रूख़ की खुली आलोचना की है, साथ ही अमेरिकी विदेश उप सचिव दलीप सिंह ने चेतावनी दी है कि तटस्थ रुख के लिए भारत को 'परिणाम' भुगतना पड़ सकता है. अमेरिकी अधिकारियों ने भारत को नरम और सख्त दोनों रूख़ दिखाए हैं. उनमें खास तौर से रक्षा सचिव ऑस्टिन की वो सलाह है जिसके तहत उन्होंने भारत की रक्षा उपकरणों के लिए रूस पर निर्भरता को समाप्त करने की बात की है, साथ ही ये वादा किया है कि अमेरिका इसकी क्षतिपूर्ति उन्नत अमेरिकी सैन्य प्रौद्योगिकी और हथियारों के साथ करेगा.
भारत ने अमेरिकी दबावों का विरोध किया है
रिपोर्ट के मुताबिक, विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिकी अधिकारियों के सार्वजनिक रूप से दिए गए बयानों का तो विरोध किया ही, साथ ही यह भी कहा कि इस तरह के बयान को दोनों पक्षों के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संवाद के तहत गोपनीय रखना चाहिए. जयशंकर और सिंह को अपने अमेरिकी समकक्षों को बताना चाहिए कि अगर वाशिंगटन वास्तव में उन्नत रक्षा उपकरणों की पेशकश को लेकर गंभीर है , तो अमेरिका को इसे इस शर्त से नहीं बांधना चाहिए कि भारत यूक्रेन मुद्दे पर अपनी तटस्थ नीति को छोड़ दे.
भारत तटस्थ रहकर एक शांति-निर्माता की भूमिका निभा सकता है. साथ ही भारत सभी को संतुष्ट करते हुए इस वार्ता का एक प्रमुख वार्ताकार भी हो सकता है जिसकी वजह से एक स्थिर और टिकाऊ यूरोपियन सुरक्षा की बहाली संभव हो सकती है. और उन्हें यह भी याद दिलाया जाना चाहिए कि भारत की अनूठी स्थिति का इस्तेमाल अभी तक पश्चिमी देशों ने नहीं किया है.जहां तक रूस के साथ सैन्य संबंध विच्छेद करने की बात है तो इसे पूरी तरह से भारत और भारतीय सशस्त्र बलों पर छोड़ दिया गया है. गौरतलब है कि भारतीय सशस्त्र बल दशकों से रूसी उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं.
क्या भारत को रूसी उपकरणों पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए
यह कतई भी राजनीतिक फैसला नहीं हो सकता. ऐसे देश जिसकी सीमा बर्फीली पहाड़ों से लेकर रेगिस्तान तक और विशाल हिंद महासागर तक फैला हुआ हो, वहां निश्चित तौर पर रक्षा उपकरणों का चुनाव और अधिग्रहण सशस्त्र बलों का अधिकार क्षेत्र है. यह राजनयिकों के बीच खेला जाने वाला ऐसा खेल नहीं है जिसमें अगर हम नुकसान उठाते हैं तो उन्हें फायदा होगा और अगर हम फायदा उठाएं तो उन्हें नुकसान होगा यानि कुल जमा शून्य का खेल नहीं हो सकता है. ये एक हकीकत है कि भारत को रूसी उपकरणों पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए. इतना हीं नहीं, जहां भी मुमकिन हो सैन्य हार्डवेयरों की आयात पर अपनी निर्भरता को कम करने का प्रयास करना चाहिए.
लेकिन कोई भी अमेरिकी डिप्लोमेट अगर ये उम्मीद करता है कि भारत राजनयिक हाशिए पर चले जाने के डर से रूसी सैन्य प्रणालियों को समाप्त कर देगा तो वह इस नौकरी के लायक नहीं है. भारत निश्चित रूप से यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से खुश नहीं है. इसने दिल्ली के लिए कई जटिलताएं ला दी है. आक्रमण की वजह से ईंधन और अन्य प्राथमिक चीजों की कीमतों में इजाफा हुई है जो दुनिया और भारत रूस और यूक्रेन से आयात करते हैं. लेकिन भारत और रूस दोनों को इस क्षेत्र में एक दूसरे की जरूरत है जहां वे रहते आए हैं.
भारत को मध्य एशिया के लिए रूस का समर्थन जरूरी
अगर एक सहायक रूस का समर्थन न रहे तो भारत के लिए मध्य एशिया में लौटने की सभी उम्मीदें समाप्त हो जाएगी. सस्ती ऊर्जा का एक संभावित स्रोत और अपने माल के लिए एक विशाल बाजार को खोना पड़ सकता है, क्योंकि पांच प्रमुख गणराज्य रूस के नेतृत्व वाले CSTO (सीएसटीओ) के सदस्य हैं जो मास्को के इशारे पर चलते हैं. इस तरह की एक तिकड़ी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में भारत को हाशिए पर धकेल सकती है. नतीजतन, SCO में इसकी सदस्यता के जारी रहने पर भी सवालिया निशान लग सकता है और इन सबका कुछ फायदा नहीं होगा. अफगानिस्तान से अमेरिका के अचानक चले जाने से भारत के लिए गंभीर सुरक्षा चुनौतियां पैदा हो गई हैं. भारत उम्मीद कर रहा था कि काबुल मध्य एशियाई बाजारों का प्रवेश द्वार होगा. अब, केवल रूस ही मध्य एशियाई देशों में भारत के अपेक्षित प्रवेश की गारंटी दे सकता है. रूस निस्संदेह ही तालिबान पर कड़ी नजर रखेगा और ये सुनिश्चित करेगा कि उनका व्यवहार अच्छा हो. इसके विपरीत अमेरिका ने तो जाते जाते अफगानिस्तान को तालिबान के रूप एक उपहार देकर निकल लिए.
पुतिन अभी तक भारत-चीन गतिरोध के मामले में तटस्थ रहे हैं
भारत-रूस संबंधों अगर अचानक ही टूट जाएं या फिर कमजोर पड़ जाएं तो इसके दूसरे परिणाम भी हो सकते हैं. पुतिन अभी तक भारत-चीन गतिरोध के मामले में तटस्थ रहे हैं . अगर संबंध टूटे या कमजोर हुए तो पुतिन को जबरदस्ती चीनी आलिंगन में धकेला जा सकता है. इससे भी बदतर हालात तो तब होंगे जब रूस अपने सब्सिडी वाले सैन्य हार्डवेयर पाकिस्तान को देने लग जाएगा. और पाकिस्तान तो इस सरह की अप्रत्याशित लाभ की उम्मीद लगाकर बैठा ही हुआ है. पाकिस्तान को अगर मॉस्को एक नए दोस्त के रूप में मिल जाता है तो वो फिर से पश्चिमी मोर्चे पर अपनी शरारत शुरू कर सकता है.
मॉस्को में अगर किसी भी तरह से ऐसी धारणा बनाई जाती है कि भारत अब पश्चिम की ओर झुक रहा है, तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. चीन-रूस की धुरी पहले से कहीं ज्यादा मजबूत होगी और ये भारत के लिए ऐसा खतरा पैदा करेगा जिसकी भरपाई क्वॉड जैसा गठजोड़ भी नहीं कर पाएगा. चीन-रूस-पाकिस्तान की तिकड़ी भारत के लिए बेहद खतरनाक होगी. जब रूस भी अपने संयमित दबाव का इस्तेमाल नहीं करेगा तो चीन हाल के दिनों की तुलना में अधिक आक्रामक हो सकता है.
भारत के लिए मायने रखता है अपना राष्ट्रीय हित.
चीन और पाकिस्तान की दोस्ती के मद्देनज़र भारत अपने वजूद के लिए खतरों का सामना करता है. इसलिए भारत को उच्च स्तर की रक्षा तैयारियों को बनाए रखने की जरूरत है साथ ही उन रक्षा उपकरणों के निरंतर विकास को भी सुनिश्चित करना है जिसका मुख्य आपूर्तिकर्ता रूस है. रूस के साथ सैन्य संबंधों के विच्छेद का सशस्त्र बलों पर गंभीर परिणाम पड़ सकता है जिसे भारत बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है.
इसलिए, जयशंकर का अपने पश्चिमी वार्ताकारों से एक सवाल यह होना चाहिए: चूंकि कठोर भू-राजनीति में भावुकता की कोई जगह नहीं होती है, इसलिए पश्चिम देश भारत को रूस के साथ अपनी स्थिति को बदलने के लिए क्या सार्थक पेशकश कर सकता है? यह चर्चा हर किसी को तब तक ऊपर और नीचे कूदने में व्यस्त रखेगा जब तक कि युद्ध के मैदान यूक्रेन में चीजें बेहतर या बदतर नहीं हो जातीं.
Rani Sahu
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