सम्पादकीय

भारत न बने किसी का मोहरा

Gulabi
25 Oct 2020 9:56 AM GMT
भारत न बने किसी का मोहरा
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समझौते का मुख्य उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रही चीन की दादागीरी को पछाड़ना है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर 26-27 अक्तूबर को दिल्ली में हमारे विदेश और रक्षा मंत्री से मिलकर एक समझौता करेंगे, जिसका विचित्र-सा नाम है- 'बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौता' (बेसिक एक्सचेंज एंड कोआॅपरेशन एग्रीमेंट)। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रही चीन की दादागीरी को पछाड़ना है। यह उसी तरह का सामरिक समझौता है, जैसे कि 2016 और 2018 में दोनों देशों के बीच में हुए थे। इस समझौते के तहत भारत को अमेरिका ऐसी तकनीकी मदद करेगा, जिससे वह लद्दाख क्षेत्र में अपने प्रक्षेपास्त्रों और ड्रोनों की मार को बेहतर बना सकेगा। यह समझौता इसी वक्त क्यों किया जा रहा है ? अब जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में मुश्किल से एक हफ्ता बचा है, यह समझौता करना खतरे से खाली नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप जीतेंगे या बाइडन, इसका कुछ पता नहीं है। सरकार पलटने पर इस तरह के समझौते भी खटाई में पड़ जाते हैं जैसे कि 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के समय डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन का पक्ष लेने के फेर में नरेंद्र मोदी ने गांधी जयंति के दिन पेरिस जलवायु समझौते की घोषणा कर दी।

उस समय अमेरिका में ओबामा की सरकार थी। उस सरकार के उलटते ही डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर कई फूहड़ फब्तियां कसीं और अमेरिका को उन्होंने उस पेरिस समझौते से बाहर कर लिया। अमेरिका के अरबों डालरों पर मोदी सरकार की जो लार टपक रही थी, वह मुंह में ही रह गई। ये अलग बात है कि ट्रंप को पटाने के लिए ह्यूस्टन और अहमदाबाद में मोदी को खुशामदों का अंबार लगाना पड़ा लेकिन ट्रंप घनघोर राष्ट्रवादी और यथार्थवादी हैं। उन्होंने भारत के साथ सिर्फ उन्हीं मामलों में सहयोग किया है, जिनसे उनके देश को फायदा हो। भारत-अमेरिका व्यापार की समस्याएं ज्यों की त्यों है, भारतीयों को कार्य-वीजा की परेशानी बनी हुई है, रुसी प्रक्षेपास्त्र खरीद पर प्रतिबंधों का अडंगा अभी तक हटा नहीं है लेकिन ट्रंप-प्रशासन चाहता है कि चीन की घेराबंदी का सिपाहसालार भारत बन जाए। तोक्यो में हुई चौगुटे (अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया, भारत) की बैठक में भारत ने अपने कदम बहुत ही फूंक-फूंककर रखे हैं। अब भी भारत को चीन से निपटने के लिए अमेरिकी मोहरा बनने से बचना होगा। चीन को घेरने के हिसाब से ये दोनों अमेरिकी मंत्री श्रीलंका और मालदीव भी जानेवाले हैं। उन्होंने तिब्बत पर भी शोर मचाना शुरु कर दिया है। यदि ट्रंप दुबारा राष्ट्रपति बन गए तो उनका कोई भरोसा नहीं कि वे क्या करेंगे ? हो सकता है कि वे फिर चीन से गलबहियां मिला लें। भारत की सामरिक मजबूती जिन तरीकों से हो सकती है, सरकार उन्हें जरुर करे लेकिन वह यह भी ध्यान रखे कि भारत का चरित्र ऐसा है कि वह किसी नाटो, सीटो, सेंटो या वारसा-पैक्ट जैसे सैन्य'-गुट का सदस्य कदापि नहीं बन सकता।

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