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पिछले लेखों में हमने चर्चा की कि भारत को ‘सस्ती’ ऊर्जा की उपलब्धता बढ़ाने की जरूरत है
मनीष अग्रवाल। पिछले लेखों में हमने चर्चा की कि भारत को 'सस्ती' ऊर्जा की उपलब्धता बढ़ाने की जरूरत है और इसे वास्तव में 'स्वच्छ' बनाने पर अतिरिक्त लागत भी आएगी। हमने यह भी जाना कि शून्य कार्बन उत्सर्जन (नेट जीरो) के लिए निजी क्षेत्र की प्रतिबद्धताओं का इन लक्ष्यों पर कोई विशेष असर नहीं होगा। अब मैं इस पर बात करूंगा कि उपलब्धता बढ़ाने के लिए भारत को अपनी सीमित वित्तीय क्षमताओं पर ध्यान देने की जरूरत है और वहीं अतंरराष्ट्रीय समुदाय को भी ऊर्जा के स्वच्छ स्वरूपों पर जाने के लिए ज्यादा फंडिंग देने की जरूरत है।
सतत विकास लक्ष्य 7 (सभी के लिए सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा) के चार उप-लक्ष्य हैं- सभी के लिए बिजली की 100 फीसदी उपलब्धता, 100 फीसदी स्वच्छ रसोई (कुकिंग) ईंधन, आधुनिक रिन्यूएबल्स (नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा स्रोत) की बढ़ी हुई साझेदारी और अर्थव्यवस्था की ऊर्जा तीव्रता (यानी ऊर्जा संबंधी अक्षमता) कम करना। आज हम इस पर चर्चा करेंगे कि इनमें से दो उप-लक्ष्यों के भारत के लिए वित्तीय निहितार्थ क्या हैं।
बिजली: देश में बिजली कंपनियों को दी जाने वाली सब्सिडी अनुमानत: एक लाख करोड़ रुपए सालाना से ज्यादा है। इन्हें संबंधित राज्य सरकारें चुकाती हैं और कुछ हिस्सा समय-समय पर बेलआउट स्कीमों के जरिए केंद्र सरकार भी वहन करती है। जहां भारत ने सभी घरों तक बिजली पहुंचाने की दिशा में काफी ज्यादा प्रगति की है, लेकिन अब भी यह चुनौती है कि सभी के लिए बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए और यह सस्ती भी हो।
भारत में बिजली की प्रति व्यक्ति खपत ब्राजील की तुलना में आधी और चीन की तुलना में एक-चौथाई से भी कम है। यूके और जापान जैसे अमीर देशों के स्तर पर पहुंचने के लिए हमें इसे 6 से 8 गुना बढ़ाने की जरूरत है। ज्यादा बिजली खपत का सीधा संबंध बढ़ी हुई समृद्धि से है। लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि आने वाले समय में सरकार पर वित्तीय दबाव बढ़ेगा।
इस क्षेत्र में अक्षम लागतों को दूर करना प्राथमिकता बनी हुई है। हालांकि, संबंधित सरकारों को आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से को बिजली पर सब्सिडी जारी रखने की जरूरत होगी, जब तक कि समृद्धि का स्तर पूरी लागत को वहन करने के लिए पर्याप्त न हो जाए।
स्वच्छ रसोई(कुकिंग) ईंधन: सरकार एलपीजी सब्सिडी के रूप में सालाना करीब 35,000 करोड़ रुपए का बजट देती रही है। सब्सिडी वाले एलपीजी सिलेंडर की कीमत में समय-समय पर बढ़ोतरी की गई है। सब्सिडी अब शून्य तक हो गई है। इससे गरीब घरों में एलपीजी का उपयोग कम होता जाएगा।
कैग के मूल्यांकन का संदर्भ देते हुए काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) की रिपोर्ट बताती है कि सब्सिडी वाले एलपीजी सिलेंडर इस्तेमाल करने वाले परिवारों ने प्रतिवर्ष (2019 में) तीन से भी कम सिलेंडर रिफिल इस्तेमाल किए, जबकि बिना सब्सिडी वाले सिलेंडर इस्तेमाल करने वालों ने साल में 6.7 सिलेंडर रिफिल इस्तेमाल किए।
इसमें एक सर्वे का भी जिक्र है, जो बताता है कि 6 सबसे गरीब राज्यों में 63 फीसदी ग्रामीण परिवार अब भी खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में प्राथमिक तौर पर बायोमास (लकड़ी, कंडे आदि) ही इस्तेमाल करते हैं। जबकि सीधे खाते में पहुंचाने के तरीके से सब्सिडी बेहतर ढंग से लक्षित वर्ग तक पहुंची है, यह सुनिश्चित करने के लिए मात्रा में पर्याप्त वृद्धि की आवश्यकता होगी कि गरीब घरों में पारंपरिक ईंधन की जगह स्वच्छ ईंधनों का इस्तेमाल लगातार बढ़े।
हमने दो लक्ष्यों के वित्तीय असर की बात यहां की है। अगले लेख, जो कि सतत विकास लक्ष्य-7 से संबंधित अंतिम लेख होगा, उसमें हम रिन्यूएबल्स (नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा स्रोत) और ऊर्जा तीव्रता (यानी ऊर्जा संबंधी अक्षमता) के वित्तीय निहितार्थों पर चर्चा के साथ इनसे जुड़े कुछ समाधानों पर बात करेंगे। जैसे भारत के लिए फंड जुटाने के लिए क्या करना चाहिए, अमीर देश किस तरह से इस लक्ष्य में मदद कर सकते हैं।

Rani Sahu
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