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- गांधी-शास्त्री का...
भले ही देश आजादी के 75वें साल में प्रवेश करने पर 'अमृत महोत्सव' की तैयारियों में जुटा हो, लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि आज गांधी-शास्त्री जयंती पर हम क्या उनके आदर्शों का भारत बनाने का दावा कर सकते हैं। गांधी आज के दौर में कितने प्रासंगिक हैं, इसकी याद पिछले दिनों अमेरिका यात्रा के दौरान देश के प्रधानमंत्री को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने दिलाई। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा गांधी जी की वैचारिक संपदा से इतने अभिभूत थे कि वे गाहे-बगाहे उनका जिक्र करते रहे। सवाल यह है कि हमारे सत्ताधीशों व राजनीतिक दलों ने अपने आचार-विचार में गांधी दर्शन को कितना उतारा। नीति-नियंताओं ने गांधी जी की रीतियों-नीतियों को विकास की परिभाषा में किस सीमा तक समाहित किया। जब गांधी जी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है तो उसका मतलब महानगरों पर केंद्रित विकास के खतरे से आगाह कराना था। विडंबना यही है कि सत्ताधीशों व नौकरशाही की तमाम नीतियां शहर केंद्रित होती चली गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि गांवों से भूमि पुत्रों का तेजी से पलायन हुआ और उनका खेती से मोह भंग होता चला गया। खेती घाटे का सौदा बन गई। वहीं जनसंख्या के दबाव से पहले से ही चरमराई शहरी व्यवस्था पर गांवों से आये लोगों का बोझ बढ़ता चला गया। अपनी जमीन से उखड़े लोग दिल्ली-मुंबई की तमाम झुग्गी-बस्तियों में किसान से श्रमिक में तबदील होकर दोयम दर्जे का जीवन जीने लगे। हालिया किसान आंदोलन में किसानों की उस टीस की अभिव्यक्ति है, जिसे वे अपनी खेती की विरासत से उजड़ने के खतरे के रूप में देखते रहे हैं। दरअसल, खेती के योगदान को जीडीपी में प्रतिशत के रूप में नहीं देखा जा सकता। खेती देश की बहुसंख्यक आबादी की अस्मिता का प्रतीक है। यही वजह है कि सत्तर फीसदी किसानों के एक एकड़ से कम रकबे में खेती करने के बावजूद किसान कहलाना, उनकी अस्मिता का प्रतीक है। महज खेती करने वाले लोग ही नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से करोड़ों लोग आज भी खेती से जुड़े हैं।