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सम्पादकीय
रीजनल इकोनॉमी को बढ़ावा देने के लिहाज से भारत को SAARC में जान फूंकने की जरूरत है
Gulabi Jagat
12 April 2022 11:41 AM GMT
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SAARC इस साल 8 दिसंबर को 37 साल पूरे कर रहा है.
मेजर जनरल (रिटा.) अशोक कुमार
साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन (SAARC) इस साल 8 दिसंबर को 37 साल पूरे कर रहा है. क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने के लिहाज से संगठनों में सार्क का गठन विश्व के उस हिस्से में हुआ, जहां बड़ी मानव आबादी निवास करती है और जिसके कई सदस्यों में मध्यम से उच्च आय वाला देश बनने की क्षमता है. विकास की विशाल संभावनाएं छिपी होने के बावजूद, यह क्षेत्र सबसे कम कनेक्टेड है और इसलिए सबसे कम एकीकृत है. इसके आठ सदस्य देश – अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान (Pakistan) और श्रीलंका (Sri Lanka) – राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों से जूझ रहे हैं, जो बाहरी हस्तक्षेप और आंतरिक कमजोरी के बोझ से दबे हुए हैं. इसकी असल क्षमता आज तक छिपी हुई है.
श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित इस क्षेत्र के कई देशों के आम लोगों द्वारा हाल ही में झेले गए भयंकर आर्थिक अभाव ने फिर से इस क्षेत्र के आर्थिक एकीकरण की आवश्यकता की तरफ ध्यान आकर्षित किया है, ताकि आपसी हितों को बढ़ाया जा सके, सदस्य देशों में लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा किया जा सके और वैश्विक बदलाव के प्रतिकूल प्रभावों से क्षेत्र की रक्षा हो सके. हालांकि सार्क की विफलता के अधिक सामान्य वजहों में से एक भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिकूल संबंध रहा है, लेकिन अब तक इसकी नाममात्र की मौजूदगी के लिए बाकी सदस्यों को भी कुछ ज़िम्मेदारी लेने की जरूरत है.
क्षेत्रीय साझेदारी से जुड़े अन्य पहलू अपने आप ठीक हो जाएंगे
1940 के दशक के अंत में दक्षिण एशिया में आपसी सहयोग बढ़ाने के विचार पर चर्चा शुरू हुई थी, लेकिन 1970 के दशक में संगठन बनाने को लेकर फिर से चर्चा शुरू हुई. मिस्र और सीरिया के एकजुट होकर थोड़े समय के लिए संयुक्त अरब गणराज्य की स्थापना करने और यूरोपियन कोल और स्टील कमेटी के गठन इसके संभावित मॉडल के तौर पर सामने आए.
हालांकि आधिकारिक तौर पर सार्क 8 दिसंबर 1985 को सात सदस्यों के साथ अस्तित्व में आया, 2007 में अफगानिस्तान आठवें सदस्य के रूप में शामिल हुआ. इसके अलावा यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, चीन, ईरान, जापान, मॉरीशस, अमेरिका, म्यांमार और दक्षिण कोरिया सहित कुछ देशों और समूहों को आब्जर्वर (observer) का दर्जा दिया गया. रूस सहित कई देशों ने मेम्बरशिप/ऑब्ज़र्वर स्टेटस के लिए आवेदन किया है. जबकि संगठन का विस्तार उत्साहजनक रहा, लेकिन यह अब तक की अपनी पूरी यात्रा में कुछ उत्साहजनक कामों को छोड़कर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में विफल रहा.
सार्क अपने वर्तमान स्वरूप में जारी रह सकता है जबकि इसके ज्यादातर सदस्य देशों की विफल अर्थव्यवस्थाओं को वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने चार्टर पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है. यदि सार्क एक आर्थिक समूह के तौर पर वर्तमान आर्थिक चुनौतियों से निपटता है, तो क्षेत्रीय साझेदारी से जुड़े अन्य पहलू अपने आप ठीक हो जाएंगे. इसलिए, इस परिवर्तन के लिए सार्क के चार्टर, उसकी वर्तमान रूपरेखा और भविष्य की दिशा पर ध्यान देना आवश्यक है.
वर्तमान चार्टर के उद्देश्य
सार्क के उद्देश्य काफी नेक थे और इसके सदस्य देशों की प्राकृतिक और आर्थिक वास्तविकताओं के अनुरूप थे. इनमें लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना, आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए जीवन की गुणवत्ता में सुधार, सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास, सम्मान से जीने का अवसर, आत्मनिर्भरता बढ़ाना, आपसी विश्वास बनाए रखना, सक्रिय सहयोग को बढ़ावा देना और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने के अलावा अन्य सभी क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी सहयोग को मजबूत करना है.
उपरोक्त चार्टर के आधार पर, सहयोग के लिए पहचाने गए क्षेत्र इस प्रकार हैं:
मानव संसाधन विकास और पर्यटन
कृषि और ग्रामीण विकास
पर्यावरण, प्राकृतिक आपदाएं और जैव प्रौद्योगिकी (biotechnology)
आर्थिक, व्यापार और वित्त
सामाजिक मामले
सूचना और गरीबी उन्मूलन
ऊर्जा, परिवहन, साइंस एंड टेक्नोलॉजी
शिक्षा, सुरक्षा और संस्कृति
पारस्परिक लाभ के अन्य क्षेत्र
संगठन अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हुआ, लेकिन यह महसूस किया गया कि आर्थिक सहयोग से पहले एकीकरण (integration) और संपर्क की आवश्यकता होगी. इसके बाद, सार्क ने दक्षिण एशियाई वरीयता व्यापार समझौता (साप्टा) – South Asian Preference Trade Agreement (SAPTA) का विस्तार किया, जिसे सार्क चार्टर अपनाने के आठ वर्षों के भीतर 1993 में शुरू किया गया. हालांकि SAPTA में कुछ सकारात्मक पक्ष थे, लेकिन यह अपने सदस्य देशों के बीच संबंधों में कोई बड़ी सफलता हासिल करने में विफल रहा. आर्थिक हितों के लिए प्रयास जारी रहे, जिसके परिणामस्वरूप 2004 में दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (साफ्टा) – South Asian Free Trade Area (SAFTA) – का जन्म हुआ, जिसमें सदस्य देशों ने अलग-अलग मौकों पर इसकी पुष्टि की.
साफ्टा (SAFTA) का उद्देश्य सदस्य देशों के उत्पादों को टैरिफ लाभ प्रदान करना था, लेकिन इसका भी कई बार अप्रत्यक्ष व्यापार (indirect trade) के लिए दुरुपयोग किया गया, जैसा कि मलेशिया ने नेपाल के जरिए भारत को अपने पाम ऑयल एक्पोर्ट करने का प्रयास किया था, जब भारत में उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. आर्थिक हितों का वास्तविक उद्देश्य साफ्टा के साथ हासिल नहीं हो सका, जबकि यूरोपीय संघ (European Union) जैसे समूहों ने न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक एकीकरण हासिल किया, जिससे इसकी तुलना नहीं की जा सकती. इसलिए इस समूह के फिर से बदलाव करने का सुझाव देने से पहले फॉल्ट लाइन्स की जांच करना उचित होगा.
फॉल्ट लाइन
अविश्वास सहित कई फॉल्ट लाइन्स हैं, इनमें सबसे प्रमुख है ब्रिटिश विरासत जिसके तहत उपमहाद्वीप (sub-continent) के विभाजन के समय आदिवासी या जातीय भावनाओं पर ध्यान दिए बिना सीमाओं को विभाजित किया गया. यह हाल के दिनों में सबसे अधिक तब महसूस हुआ जब पाकिस्तान के विरोध करने के कारण भारत द्वारा अफगान नागरिकों तक सहायता नहीं पहुंच पाई. इसी तरह, पाकिस्तान पहले से ही रिकॉर्ड बेरोजगारी और महंगाई के दौर से गुजर रहे अपने लोगों की पीड़ा को बढ़ाते हुए, भारत के साथ सीधे आपसी व्यापार से दूर रहता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सार्क (SAARC) के उद्देश्य और साप्टा (SAPTA) के साथ-साथ साफ्टा (SAFTA) के उद्देश्य प्रतीकात्मक और तेजी से अलग-अलग हो गए. विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो इस क्षेत्र की आबादी को सीधे प्रभावित करते हैं, आर्थिक सहयोग पर विशेष ध्यान देने के अलावा नए सिरे से प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है.
आगे का रास्ता
हालांकि सार्क के चार्टर और उद्देश्यों के साथ-साथ साप्टा और साफ्टा को अपनाने के सभी इरादे नेक थे, लेकिन वे विफल रहे क्योंकि, कम से कम अमल करने के मामले में, इसका सीधा फोकस आम लोग नहीं थे. अफगानिस्तान, पाकिस्तान में लोगों को इसका परिणाम भुगतना पड़ रहा है और अब श्रीलंका में भयावह स्थिति है. यह सभी साझेदार देशों के लिए अपनी राजनीतिक कुशलता दिखाने का उपयुक्त अवसर है, जिसमें भारत बड़ी जिम्मेदारी ले रहा है. सामान्य रूप से आर्थिक एकीकरण और विशेष रूप से जन-केंद्रित विचारों को एक नया प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है. सार्क (People Economics-PE) या किसी अन्य नाम को निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ बनाने की आवश्यकता है:
रेल, सड़क, शिपिंग और एयर ट्रेवल के साथ कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास
आवाजाही आसान बनाना और विकसित एकाउंटिंग नॉर्म्स के साथ सदस्य देशों के बीच बेरोकटोक माल का परिवहन
खाद्यान्न, फलों, सब्जियों और दूध उत्पादों पर जीरो टैरिफ
मेडिसिन और मेडिकल केयर से संबंधित वस्तुओं पर जीरो टैरिफ के लिए कदम बढ़ाना, और वीजा-मुक्त अस्पताल की सुविधा
जल और स्वच्छता से संबंधित आंदोलन
लोगों द्वारा सीधे उपयोग किए जाने वाले बिजली/एनर्जी के सामानों के लिए जीरो टैरिफ लागू करना
डॉलर के मुकाबले एक-दूसरे की करेंसी में व्यापार करना या यूरोपीय संघ की तर्ज पर भारतीय / नई करेंसी अपनाना
इस सूची में और सुधार किया जा सकता है और इसे ठीक किया जा सकता है, बशर्ते कि योगदान देने वाले देशों में इच्छाशक्ति हो. कुछ लोग इस तर्क के खिलाफ सीमा विवाद और आर्थिक विकास के मुद्दों से जुड़े विरोधाभासी दलीलें पेश कर सकते हैं. भारत-चीन संबंधों का एक उदाहरण दिया जा सकता है जिसमें भूमि विवाद और सीमा संघर्ष के बावजूद बड़े द्विपक्षीय व्यापारिक सहयोग कायम है. इतना ही नहीं, एलएसी (LAC) गतिरोध के बावजूद आपसी व्यापार पहले से कहीं अधिक बढ़ा है.
लोगों के हितों पर आधारित दृष्टिकोण के साथ अच्छे आर्थिक संबंध दुनिया के इस हिस्से में एक नए युग की शुरुआत करेंगे, जहां दुनिया की 20 प्रतिशत से अधिक आबादी रहती है. अपने-अपने संघर्ष की स्थिति पर बिना किसी प्रभाव के देश इन उपायों को अपना सकते हैं. इस तरह का दृष्टिकोण, वास्तव में, सार्क सदस्यों के बीच कई 'बर्लिन की दीवारों' को तोड़ सकता है और 21वीं सदी में दुनिया का भविष्य बनने के लिए लोगों को एकजुट करने में मदद कर सकता है, जिससे यह एक वास्तविक एशियाई सदी बन सकती है, खासकर जब संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और यूरोप में चीजें बिगड़ती जा रही हैं.
भारत को सत्ता में बैठे लोगों को शामिल करने के अलावा, इस क्षेत्र के लोगों के साथ आर्थिक हितों के मुद्दे पर सीधा संवाद स्थापित करना है. इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए हमारे अपने राजनीतिक दलों का सहयोग लिया जा सकता है, जिनमें से कई के पड़ोसी देशों के राजनीतिक नेताओं के साथ अच्छे संबंध हैं. भारत भविष्य में बेमिसाल रोल निभाने के स्थिति में है. भारत के कई पड़ोसी इस बात से बेहद निराश हैं कि भारत ने सार्क में अपने नेतृत्व की भूमिका की अनदेखी की है. श्रीलंका जैसे कुछ देशों ने, जो आर्थिक विकास के लिए चीन पर निर्भर थे, इस नासमझी को महसूस किया है. हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान को ध्यान में रखना चाहिए जो सिखाता है कि 'एक खुशहाल पड़ोस एक सुरक्षित पड़ोस है'. देखना होगा कि हम इस चुनौती का सामना करते हैं या इसे पहले की तरह अपने हाथ से खिसकने देते हैं. अगर हम अभी इस चुनौती के लिए नहीं उठे तो अब तक जो किया गया, वह हमारी आने वाली पीढ़ी की समीक्षा के दायरे में आएगा.
(लेखक के पास कारगिल युद्ध का अनुभव हैं और वे चीन से जुड़े रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
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