सम्पादकीय

अफगानिस्तान में भारत

Triveni
13 July 2021 2:48 AM GMT
अफगानिस्तान में भारत
x
अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबानों के सहारे छोड़ कर जिस तरह का व्यवहार किया है

आदित्य चोपड़ा| अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबानों के सहारे छोड़ कर जिस तरह का व्यवहार किया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि यह देश अपने हित साधने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। पिछले 20 साल से भी ज्यादा वक्त से अफगानिस्तान जिस प्रकार की अराजकता में जी रहा है उसके लिए एक सीमा तक पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही जिम्मेदार हैं। अमेरिका ने इस मुल्क में ही खुद ही तालिबानों को खड़ा किया और उन्हें हर तरह की इमदाद देकर तत्कालीन सोवियत संघ की फौजों से मुकाबला करने के लिए तैयार किया मगर जब इन तालिबानों ने अमेरिका को ही आंखें दिखानी शुरू कर दीं और न्यूयार्क में 11 सितम्बर 2001 को जब उसके वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को दहशत गर्द हमला करके गिरा दिया तो अमेरिका ने पाकिस्तान को अपने साथ रख कर अफगानिस्तान को बाकायदा अपने फौजी साये में लेने का कार्यक्रम चलाया। तब तक तालिबानों ने पूरे अफगनिस्तान को अपने मजहबी फतवों की सरकार के साये में ले लिया था। इसके बाद अमेरिका ने अपने पश्चिमी मित्र देशों की मदद से अफगानिस्तान में स्थानीय जनता के हाथ में शासन देने व इस देश के पुनर्निर्माण का शगूफा छोड़ा जिसे कुछ अन्य देशों का समर्थन भी मिला। मगर अफगानिस्तान में अमेरिका व मित्र देशों की सेना के बीच विभिन्न अफगानी ठिकानों पर कब्जा करने के लिए युद्ध चलता रहा और अफगानिस्तान समानान्तर रूप से बर्बाद भी होता रहा। इसके बाद ही इसके पुनर्निर्माण की योजनाएं उछाली गईं।

भारत के अफगानिस्तान के साथ ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंधों को देखते हुए यह जरूरी था कि इस देश की सरकार मुसीबत के समय अफगानियों की मदद करती और इसने ऐसा ही किया मगर भारत ने कभी भी फौजी कार्रवाई में भाग नहीं लिया। हालांकि अमेरिका व मित्र देशों की तरफ से इस पर सैनिक भेजने के लिए कई बार दबाव भी बनाया गया। मगर भारत की छवि अफगानिस्तान में एक ऐसे दोस्त मुल्क की है जो हर मुसीबत में अफगानियों के साथ खड़ा रहा है और आजादी के बाद से ही भारत ने अफगनिस्तान के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मगर अमेरिका ने जिन तालिबानों को अपने फायदे के लिए इस मुल्क में खड़ा किया था उनकी महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने अमेरिका को ही अपना निशाना बना डाला था।
2001 से लेकर अब तक अमेरिका ने अफगानिस्तान के बारे में कई बार रुख बदला और ऐसे -ऐसे फलसफे पेश किये कि बाकी दुनिया उन्हें सुन कर ही चकराने लगी। मसलन अमेरिका ने तालिबानों के बीच ही अच्छे और बुरे की श्रेणियां खोज डालीं। पाकिस्तान को अफगानिस्तान में उसकी फौजों को रणनीतिगत मदद देने के लिए भारी वित्तीय मदद दी। जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद फैलाने तक के लिए किया। इसका हश्र यह हुआ कि खुद पाकिस्तान ही आतंकवादियों की सैरगाह बनता चला गया। मगर अमेरिका जब अपने ही बोये हुए तालिबानी बीज की लहलहाती खेती के बीच धंसता चला गया और उसे अहसास होता चला गया कि पाकिस्तान उसकी गोदी छोड़ कर चीन के कन्धे पर जा बैठा है तो अफगानिस्तान में अपनी कानपकड़ी सरकार बनाने के उसके मंसूबे ढेर होने लगे और वह अफगानिस्तान से पीछा छुड़ाने के बहाने ढूंढने लगा। उसने तालिबानों से पहले परोक्ष रूप से बातचीत शुरू की और बाद में प्रत्यक्ष रूप से शुरू कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि तालिबान अपने मजबूत ठिकानों पर अपनी पकड़ को स्थानीय लोगों की मदद से पक्की करते रहे। अमेरिकी फौजों की मौजूदगी का हौवा जो शुरू में खड़ा हुआ था वह धीरे-धीरे सिमटने लगा और तब अमेरिका ने सोचा कि अब अफगानिस्तान में अपनी फौजों की शहादत करना ऐसी कार्रवाई है जिसका कोई नतीजा उसके हक में नहीं निकल सकता। पाकिस्तान को दी गई उसकी सारी इमदाद जाया गई। इसलिए उसने अफगानिस्तान चुनाव तक करा कर जो सरकारें बनवाईं उनका शासन भी पूरे अफगानिस्तान पर नहीं हो सका और तालिबान अपने मजबूत इलाकों में काबिज रहे। अब जब अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से जा चुकी हैं तो तालिबान पुनः पूरे देश पर अपना कब्जा करने को उतावले हो रहे हैं और अफगानी फौजों से लड़ रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बाइडेन ने यह कह कर तस्वीर बहुत साफ कर दी है कि अमेरिका वहां कोई पुनर्निर्माण करने नहीं गया था बल्कि तालिबानों को अमेरिका पर हमला करने का सबक सिखाने गया था। तालिबानी लड़ाकू अफगानिस्तान के दुर्गम समझे जाने वाले इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत करते आ रहे हैं जिसकी वजह से कन्धार जैसे शहरों में खतरा पैदा हो गया है और भारत ने यहां स्थित अपने वाणिज्य दूतावास से भारतीय कर्मचारियों को विशेष विमान भेज कर वापस बुला लिया है। यही हालत मजारे शरीफ शहर की भी है जिसके करीब ही तालिबानी मंडरा रहे हैं। यहां भी भारत का वाणिज्यिक दूतावास है। कन्धार को भारतीय नागरिक कैसे भूल सकते हैं। वह नजारा अभी तक आंखों के सामने घूमता रहता है जब 2000 में भारत की जेलों से खूंखार आतंकवादियों को छुड़ा कर तत्कालीन वाजपेयी सरकार के विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह खुद उन्हें बाइज्जत तरीके से कन्धार हवाई अड्डे पर छोड़ आये थे। इसलिए समझा जा सकता है कि आज कन्धार के हालात कैसे होंगे। अब सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत का अफागानिस्तान में तीन अरब डालर का निवेश अभी तक हो चुका है और यह सच्चे मन से इस देश का विकास करना चाहता है। मौजूदा परिस्थितियों में अपने हितों का संरक्षण इसे स्वयं ही करना होगा। क्योंकि अमेरिका तो 'सुल्फैया यार किसके-दम लगाये खिसके' की तर्ज पर अपने ठिकाने पर जा चुका है।


Next Story