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देश में नए श्रम कानूनों (Labor Laws) को लागू करने की आहट फिर से सुनाई देने लगी है
प्रवीण कुमार देश में नए श्रम कानूनों (Labor Laws) को लागू करने की आहट फिर से सुनाई देने लगी है. कहा जा रहा है कि अगर ऐसा हुआ तो कर्मचारियों को हफ्ते में चार दिन ही काम करना पड़ेगा. बाकी के तीन दिन वो छुट्टियां मना सकेंगे. लेकिन क्या इससे भारत ऐसा देश भी बन सकेगा जहां दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले काम के घंटे कम हो जाएंगे? तो इसका जवाब है- बिल्कुल नहीं. काम के घंटे पहले की तरह ही सप्ताह में 48 घंटे की बनी रहेगी.
इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के तमाम देशों में श्रम कानूनों के तहत काम के जो घंटे निर्धारित हैं उसमें भारत में काम के घंटे और काम का सप्ताह दुनिया में सबसे ज्यादा लंबा है. यह एक कठोर सत्य है. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होने वाली. मुश्किलें और भी बढ़ने वाली हैं. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ भारत में ही 48 घंटे का साप्ताहिक कार्य दिवस है. बांग्लादेश, वियतनाम, ब्रिटेन आदि में भी 48 घंटे का ही साप्ताहिक कार्य दिवस है, लेकिन ये भी सत्य है कि कानूनी तौर पर 48 घंटे से ज्यादा काम के घंटे दुनिया के किसी भी देश में नहीं है.
भारत में वाकई काम के घंटे सबसे ज्यादा हैं?
दुनिया के कई देशों में काम के घंटे की कानूनी प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन नहीं किया जाता है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) की पहली आवर्ती श्रम बल सर्वे (PLFS) के डेटा का तो यही कहना है कि दुनिया के अन्य देशों के कर्मचारियों की तुलना में भारत के लोग सबसे ज्यादा घंटे काम करते हैं. भारत की सांख्यिकी एजेंसी की ओर से काम के घंटे पर किया गया यह पहला आधिकारिक सर्वे है, जिसमें यह बात सामने आई कि यहां के शहरों में औसतन एक कर्मचारी हर हफ्ते 53 से 54 घंटे काम करता है और गांव में 46 से 47 घंटे. काम के ये घंटे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ओर से तय किए गए काम के घंटों की सीमा से ज्यादा है.
हालांकि सरकार ने इस सर्वे को जारी नहीं किया. अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स और एजेंसियों के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के कुछ प्रमुख देशों मसलन ऑस्ट्रेलिया में सप्ताह में 38 घंटा, दक्षिण कोरिया में 40 घंटा, फ्रांस में 35 घंटा, अमेरिका में 40 घंटा, रूस में 40 घंटे का ही कार्य दिवस तय है. आर्थिक इतिहासकार माइकल ह्यूबरमैन और क्रिस मिंस का अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि दुनिया के ज्यादातर देशों खासतौर से अधिक आय वाले देशों में पिछले 150 सालों में काम के औसत घंटे में काफी कमी आई है. 1870 की औद्योगिक क्रांति के बाद काम के घंटे कम हुए. खासकर उन देशों में, जहां औद्योगीकरण पहले हुआ. लेकिन भारत जैसे देश में आर्थिक उदारीकरण की बयार के साथ गैरकानूनी तरीके से काम के घंटे को बढ़ा दिया गया. देश में बहुत सारे संस्थान इस रूप में काम करने लगे जो कागजी तौर पर तो श्रम कानूनों का अक्षरश: पालन करते हैं, लेकिन व्यवहार में इसकी घनघोर अनदेखी करते हैं.
क्यों होती है 'काम के तय घंटे' की अनदेखी?
मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स ने 1930 में भविष्यवाणी की थी कि तकनीकी परिवर्तन और उत्पादकता में सुधार के साथ एक ऐसा वक्त आएगा जब हम सप्ताह में सिर्फ 15 घंटे काम कर रहे होंगे, मतलब हर रोज तीन घंटे काम. आज जब हम काम के घंटों के आंकड़ों में झांकते हैं तो हम में से अधिकांश अभी भी सप्ताह में औसतन 42 घंटे से अधिक काम कर रहे हैं. और भारत की तो बात ही जुदा है जहां कानूनी तौर पर दुनिया में सबसे ज्यादा, सप्ताह में 48 घंटे की कार्य अवधि तय है. आखिर कीन्स से गलती कहां हुई? हमें ऐसा लगता है कि कीन्स ने जिन चीजों को कम करके आंका, उनमें से एक है हमारे साथियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की मानवीय इच्छा. एक ऐसी इच्छा जो हममें से अधिकांश को जरूरत से ज्यादा काम करने के लिए मजबूर करता है.
उन देशों में तो और भी ज्यादा जहां बड़ी आबादी के बीच भीषण बेरोजगारी और इस वर्क फोर्स का शोषण करने के लिए बड़े-बड़े महाजन यानि कॉरपोरेट हैं. दरअसल कीन्स एक कट्टर अर्थशास्त्री थे और इस बात की सूक्ष्मता को आंकने में चूक गए कि मानव जाति की सामाजिक व आर्थिक इच्छा से जुड़ी स्पर्धा भी एक फैक्टर हो सकता है जो अर्थशास्त्र के बने-बनाए सिद्धांत को झकझोर कर रख देता है. इससे इतर, श्रम कानून से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की आबादी का एक बड़ा श्रम बल असंगठित क्षेत्र से जुड़ा है. इन असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले कर्मचारियों का वेतन बहुत कम होता है, जिसकी वजह से उन्हें ज्यादा घंटे तक काम करने को मजबूर होना पड़ता है. हालांकि फैक्टरी अधिनियम 1948 में कहा गया है कि मजदूरों से सप्ताह में 48 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता और अगर इससे ज्यादा काम कराया जाता है तो ओवरटाइम देना होगा. लेकिन इसका पालन कितना हो पाता है वह किसी से छिपा नहीं है.
कहीं जापान जैसा हाल न हो जाए भारत का भी
अगर आप काम के घंटे को लेकर जापान के हालात का अध्ययन करें तो तथ्य काफी डराते भी हैं और चौंकाते भी हैं कि कहीं भारत का वर्क फोर्स जापान की तर्ज पर तो आगे नहीं बढ़ रहा. जापान जैसे देश में लोग रोजाना 16-16 घंटे काम कर रहे हैं. लोगों के काम करने के एडिक्शन से यहां की सरकार भी परेशान है. चेक गणराज्य की राजधानी प्रॉग में जन्मे डेविड टेसिन्स्की की जापानी श्रमिकों की दिनचर्या को दिखाने वाली उन तस्वीरों को कौन भूल सकता है. 'The Man-Machine' नाम की फोटो सीरिज वाली रिपोर्ट में डेविड कहते हैं कि उन्हें जापानी कर्मचारी रोबोट की तरह लगे.
सालों-साल उनका एक ही रुटीन रहता है. सुबह काम पर निकलना, दिनभर काम, फिर ओवरटाइम, उसके बाद सहकर्मियों के साथ बातचीत, ड्रिंक्स और फिर देर रात घर वापसी. इतना ही नहीं, ज्यादातर लोग बस, ट्रेन जैसी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का इस्तेमाल करते हैं. टैक्सी लेना या खुद की कार रखना उनके जेब से बाहर की बात होती है. देर रात जब बस और ट्रेन बंद हो चुकी होती है तो कई वर्कर सड़क किनारे ही सो जाते हैं. डेविड कहते हैं कि लोग सड़कों पर भूत की तरह चलते हैं, खुद में खोए-खोए, नींद भरी आंखों के साथ. कई लोग तो खड़े-खड़े सोते मिले. इनमें से हर कोई यही कहता है कि बस पांच साल इस तरह काम कर लूं, फिर फलां पोजीशन पर पहुंच जाऊंगा. भारत में काम के घंटे की परिस्थिति की गंभीरता को समझने की अगर कोशिश की जाए तो संकेत अच्छे नहीं हैं. कोविड काल में हमने बहुत कुछ नंगी आंखों से देखा भी.
काम के घंटों में हो सकता है और इजाफा
साल 1870 की बात करें तो ज्यादातर देशों में लोग साल में 3,000 घंटे से अधिक काम करते थे, मतलब हर हफ्ते 60-70 घंटे. लेकिन आज के वक्त में काम के घंटे तब के मुकाबले आधे हो गए हैं, उदाहरण के लिए, जर्मनी में जहां काम के घंटे 60 प्रतिशत कम हुए हैं वहीं ब्रिटेन में काम के घंटों में 40 प्रतिशत की कमी आई है. लेकिन भारत और चीन की बात करें तो यहां काम के घंटे पहले से बढ़े हैं. भारत में 1970 में जहां लोग औसतन साल में 2,077 घंटे काम करते थे, साल 2020 में बढ़कर 2,117 घंटे हो गए यानि इसमें 2 फीसदी का इजाफा हुआ है. चीन का आंकड़ा भारत से भी दो कदम आगे है.
यहां 1970 में लोग 1976 घंटे सालाना काम करते थे, 2020 में बढ़कर 2,174 घंटे हो गए यानि 10 फीसदी का इजाफा. पिछले पांच दशक का इतिहास इस बात की ताकीद करता है कि आने वाले दिनों में भारत में काम के घंटों में और इजाफा हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो 'आठ घंटे का आंदोलन' का वजूद ही मिट जाएगा जिसने लंबे संघर्ष के दौरान हजारों कुर्बानियां दीं. 1886 में एक नारा गढ़ा गया था- 'आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम और आठ घंटे मनोरंजन!' और इसी नारे के साथ अमेरिका के 13 हजार से अधिक व्यापारिक प्रतिष्ठानों में काम करने वाले करीब तीन लाख मजदूर अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर उतर आए थे. कहते हैं कि 'आठ घंटे का आंदोलन' इन मजदूरों के पांच दशक के संघर्षों की गाथा का चरम था.
बहरहाल, हालात एक बार फिर से 1886 के पहले जैसी होती दिख रही है जब लोग हर दिन 15 घंटे से ज्यादा काम करते थे. कोविड महामारी के संकट से जूझ रही पूरी दुनिया और खासतौर से भारत में मजदूरों की जिंदगी तो खतरे में पड़ी ही, उसके 8 घंटे के कार्यदिवस पर भी सरकार और कॉरपोरेट का हथौड़ा चलने लगा है. फैक्ट्रियों से लेकर बड़े-बड़े कॉरपोरेट दफ्तरों तक में 8 घंटे के कार्यदिवस को आईना दिखाया जा रहा है और कहा जाने लगा है कि दफ्तर में आने का समय होता है, जाने का नहीं. आने वाले वक्त में 12 घंटे या उससे अधिक वक्त तक काम करने की परिस्थिति तमाम मजदूरों-कर्मचारियों, चाहे वह शारीरिक श्रम से जुड़ा हो या फिर मानसिक श्रम से, उसे शारीरिक, आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक तौर पर तोड़कर रख देगा, उसके अस्तित्व को नष्ट कर देगा. चूंकि श्रमिकों के हितों की रक्षा करने वाली तमाम संगठन और यूनियन्स पहले ही अपनी मौत मर चुकी हैं लिहाजा आने वाली मुश्किलों से लड़ने के लिए 'दुनिया के मजदूरों एक हों' का नारा फिर से बुलंद करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं होगा.
Rani Sahu
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