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भारत सदा तटस्थ रहा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस व यूक्रेन के राष्ट्रपतियों से बात करते हुए उन्हें संवाद के लिए प्रेरित किया। यह अच्छी पहल है। अब वे पांच राज्यों के चुनावी झंझट से मुक्त हो चुके हैं। वे चाहें तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से भी सीधी बात कर सकते हैं। यूक्रेनी संकट की असली जड़ अमेरिका में ही है। यदि अमेरिका यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की को नाटो में शामिल होने के लिए नहीं उकसाता तो यूक्रेन पर रूसी हमले की नौबत ही क्यों आती?
क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने हाल में अपने बयान में कहा है कि यूक्रेन के खिलाफ रूस अपनी सैन्य-कार्रवाई एक क्षण में ही बंद करने के लिए तैयार है, बशर्ते वह मास्को की मांगों पर ध्यान दे। मांग यह है कि यूक्रेन नाटो के सैन्य गुट में शामिल न होने की घोषणा करे, क्रीमिया को रूसी क्षेत्र घोषित करे और दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र राष्ट्रों की मान्यता दे।
पेस्कोव ने यह भी स्पष्ट किया कि रूस नहीं चाहता कि वह यूक्रेन को अपना प्रांत बना ले या कीव पर कब्जा कर ले। पिछले डेढ़ हफ्ते में रूस ने यूक्रेन के खिलाफ जो कुछ भी किया, उसे वह युद्ध नहीं, सिर्फ सैन्य कार्रवाई कह रहा है। इसीलिए मारे जाने वाले लोगों की संख्या सैकड़ों में है, हजारों-लाखों में नहीं। लगभग 20 लाख यूक्रेनी भागकर पड़ोसी देशों में चले गए हैं और वे तथा भारतीय छात्र भी सुरक्षित बाहर निकल सकें, इस दृष्टि से रूस ने चार 'सुरक्षित गलियारों' की घोषणा की थी लेकिन यूक्रेन ने इसे शुद्ध पाखंड बताया है।
यूक्रेन को पता चल गया है कि अमेरिका और नाटो राष्ट्रों ने उसे पानी पर चढ़ाकर मुंह फेर लिया है। अब भी यूक्रेन के नेता और लोग बड़ी हिम्मत से रूसी हमले का मुकाबला कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता है कि यदि यह हमला लंबा खिंच गया तो मुश्किल होगी। ऐसी हालत में यह सही होगा कि जेलेंस्की यूक्रेन की तटस्थता की घोषणा तो कर ही दें। दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र राष्ट्रों की तरह मान्य करने के बजाय वे वैसा ही करें, जैसा कि क्रीमिया में किया था।
क्रीमिया पर से रूसी कब्जा हटाने की कोशिश यूक्रेन ने नहीं की और उस कब्जे को मान्यता भी नहीं दी। अभी तक बेलारूस में दोनों देशों के अफसर बात करते रहे हैं लेकिन अब खबर है कि तुर्की में रूसी-यूक्रेनी विदेश मंत्री मिलेंगे। तुर्की नाटो का सदस्य है लेकिन रूस-यूक्रेन से उसके घनिष्ठ संबंध हैं। इन देशों की सीमाएं काले समुद्र की वजह से तुर्की से भी जुड़ती हैं। तुर्की ने हमले को अनुचित बताया है लेकिन उसने रूस के विरुद्ध घोषित प्रतिबंधों का भी विरोध किया है।
भारत चाहे तो इस शांति-संवाद में तुर्की से आगे निकल सकता है। वह दिल्ली में अमेरिकी, रूसी और यूक्रेनी विदेश मंत्रियों में संवाद करवा सकता है। यूक्रेन-विवाद पर जब भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मतदान हुआ, भारत सदा तटस्थ रहा। उसने न तो रूस का पक्ष लिया और न ही यूक्रेन या अमेरिका का! भारत के लगभग 20 हजार छात्रों और नागरिकों को यूक्रेन से बाहर निकाल लाने के भारी काम में यूक्रेन और रूस दोनों ने हमारी मदद की।
भारत सरकार ने इस मामले में देर से ही सही, लेकिन बड़ी मुस्तैदी से सराहनीय काम करके दिखाया। यदि भारत इस युद्ध को तुरंत रुकवा सके तो रूस और यूक्रेन को ही नहीं, सारे विश्व को वह कई आर्थिक संकटों से बचा ले सकता है। यदि यूरोपीय देशों को होने वाली रूसी तेल और गैस की आपूर्ति बंद हो जाए तो उनके होश फाख्ता हो जाएंगे। इसीलिए इन देशों ने अभी तक रूसी तेल और गैस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। पिछले 12-13 दिनों में कच्चा तेल 44 प्रतिशत महंगा हो गया है।
सोना, चांदी और डाॅलर की कीमतें बढ़ती चली जा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी नए समीकरणों का विकास हो रहा है। तीन दशक पुराने शीत युद्ध की नरम शुरुआत तो हो ही चुकी है। अब एक तरफ अमेरिकी खेमा होगा और दूसरी तरफ चीनी-रूसी खेमा। इस दूसरे खेमे का नेतृत्व अब रूस नहीं, चीन करेगा।
इसीलिए चीन हर कदम फूंक-फूंककर रख रहा है। चीन अब रूस और यूक्रेन में मध्यस्थता की पहल करने लगा है। इस पर अमेरिका सशंकित रहेगा लेकिन भारत इस समय रूस और अमेरिका दोनों का प्रेमपात्र है। वह मध्यस्थता की पहल कर सकता है। वह तुर्की से पहले शांति-संवाद भी करवा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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