सम्पादकीय

India China Conflict: चीन के सामने 1962 का अधूरा एजेंडा

Neha Dani
19 Dec 2022 4:05 AM GMT
India China Conflict: चीन के सामने 1962 का अधूरा एजेंडा
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राष्ट्रीय सर्वानुमति जुटाने की आवश्यकता है।
भारत के लिए यह 1962 नहीं है, तो चीन के लिए भी नहीं है। चीन के खिलाफ गारंटीशुदा बीमे के लिए भारत को कितना भारी प्रीमियम अमेरिका को चुकाना चाहिए? दलगत राजनीति से ऊपर उठते हुए इस पर राष्ट्रीय सर्वानुमति जुटाने की आवश्यकता है।
स्तारवाद की चाशनी में पगे उग्र राष्ट्रवाद की जिन महत्वाकांक्षाओं को चीनी सम्राट और चियांग काई शेक के नेतृत्व में कम्युनिस्ट विरोधी क्यूमिंग तांग पार्टी नहीं पूरा कर पाई, 1949 के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी उसे हासिल करने में लगी है। कोरिया युद्ध में अमेरिका को शिकस्त देने के बाद चीन की उच्च प्राथमिकता थी सामरिक महत्व की तिब्बत-सिंकियांग सड़क का निर्माण। इसके लिए उस अक्साई चिन पर कब्जा जरूरी था, जो इतिहास में कभी उसका नहीं रहा। 1962 में भारत पर हमला उसकी अगली कड़ी था। इस हमले में उसने तवांग सहित नेफा (अरुणाचल प्रदेश का पूर्ववर्ती नाम) के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। असम तक चीनी सेना के पहुंच जाने की सन्निकट आशंका के मद्देनजर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी को पत्र लिख तत्काल सैनिक हस्तक्षेप का अनुरोध किया। अमेरिका और ब्रिटेन ने आपात सहायता तुरंत शुरू कर दी। उधर पाकिस्तान में अमेरिकी फौजी अड्डा कायम ही था।
नवंबर के पहले सप्ताह में एकतरफा युद्धविराम की घोषणा करते हुए चीन तवांग के साथ अन्य इलाकों से यह कहकर पीछे हटने लगा कि भारत को सबक सिखाया जा चुका है। यह न तो उदारता थी, न सबक सिखाने का मकसद पूरा हुआ था। सोवियत संघ की तटस्थता और अमेरिकी फौजी दखल के डर से उसने यह किया। चीन को यह भय भी था कि ज्यादा आगे बढ़ने पर उसकी सप्लाई लाइन कट जाएगी। अन्यथा वह तवांग पर तो काबिज बना ही रहता, क्योंकि फरवरी 1951 में मेजर खातिंग के नेतृत्व में भारतीय सेना ने इसे तिब्बती प्रशासन से मुक्त कराया था। इसी तवांग सेक्टर में विगत नौ दिसंबर को हुई मुठभेड़, गलतफहमी में एक-दूसरे की तरफ चले जाने के नतीजतन होने वाली झड़पों से बिल्कुल अलग थी।
यांगत्से में हुई झड़प पर संसद में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के संक्षिप्त बयान की यह पंक्ति गौरतलब है कि 'चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बदलना चाहता था।' यांगत्से चीनी ताकत की सीमाओं का प्रतीक है। 1986 में चीन सुमदोरांग चू में घुसा, तो भारतीय सेना ने पीछे की तरफ से सामरिक महत्व के पठारी इलाके यांगत्से पर कब्जा कर सामरिक बढ़त ले ली। दोकलाम संकट के दौरान भारत के कई टुकड़े कर देने की चीनी मीडिया की चेतावनी के पीछे सुविचारित नीति थी।
एशिया-पैसिफिक सेंटर में एशियाई सुरक्षा अध्ययन के प्रोफेसर मोहन मलिक ने अपनी चर्चित पुस्तक चाइना ऐंड इंडिया ग्रेट पावर राइवल्स में 2009 में चीन की एक नेट सेवा में प्रकाशित लेख का हवाला दिया है। इसमें कहा गया,' चीन एक झटके में तथाकथित महान भारतीय संघ के खंड-खंड कर सकता है। एक राष्ट्र के रूप में भारत का अस्तित्व कभी रहा ही नहीं। एक उभरते सुरक्षा खतरे को हटाने के लिए भारत के 20-30 स्वतंत्र देश बनाते हुए दक्षिणी तिब्बत (चीन अरुणाचल को यही कहता है) की 90 हजार भूमि मुक्त करा ली जानी चाहिए। चीन और भारत वास्तव में सद्भाव से कभी रह ही नहीं सकते, क्योंकि आकाश में दो सूर्य नहीं हो सकते।
यांगत्से की घटना के बाद अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने कहा, 'चीन भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के संधि देशों और सहभागियों को उकसाता है; इन देशों की सुरक्षा के लिए अमेरिका प्रतिबद्ध है। अमेरिका तनाव दूर करने में भारत के प्रयासों का समर्थन करता है।' अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के प्रेस सेक्रेटरी ने कहा, 'अमेरिकी रक्षा मंत्रालय वास्तविक नियंत्रण रेखा पर लगातार निगाह रखे हुए है। हमने गौर किया है कि चीन इस रेखा पर सैनिक जमावड़े में वृद्धि जारी रखे हुए है।' 1962 के कई साल पहले से एक निरंतरता मानीखेज है। 'भाई-भाई' के दौर में जब नेहरू न्यूयार्क से लेकर बांडुंग तक चीन का समर्थन कर थे, तब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार उन्हें साम्राज्यवादी पिट्ठू बताकर अपमानित करने में लगे थे।
आज सिर्फ शब्दावली बदली है, नीयत नहीं। भारत में चीन के राजदूत सुन वीदांग दो महीने पहले, कार्यकाल पूरा होने पर यह टिप्पणी कर गए, 'अगर भारत-चीन संबंधों पर भू-राजनीति की पश्चिमी थियरी लागू की जाए, तो हमारे जैसे बड़े पड़ोसी देश एक-दूसरे को खतरे और प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते रहेंगे। इस भू-राजनीतिक फंदे से हमें बाहर निकलना चाहिए और अतीत से अलग रास्ता तलाश करना चाहिए।' पश्चिमी भू-राजनीतिक थियरी से चीनी राजदूत का आशय भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के संगठन 'क्वाड' से था। चीन इसे एशियाई नाटो बताता है, जबकि 'क्वाड' सामरिक सुरक्षा डायलॉग तक सीमित है।
अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति का बुनियादी सिद्धांत यह है कि क्षेत्रीय महाशक्ति बने बिना कोई देश वैश्विक महाशक्ति नहीं बन सकता। दक्षिण एशिया और भारत-प्रशांत क्षेत्रों में ही अभी चीन मनमानी नहीं कर पा रहा। वर्ष 2049 तक अमेरिका को पीछे छोड़ सर्वशक्तिमान ताकत बनने की महत्वाकांक्षा ने चीन की गति सांप-छछूंदर वाली कर दी है। ताइवान पर कब्जे और भारत को नीचा दिखाने में वह कामयाब हो जाए, तो उसका प्रभुत्व बढ़ सकता है। मौजूदा हालत में ताइवान पर कब्जा संभव नहीं, क्योंकि अमेरिका मूक दर्शक बनकर अपनी विश्वसनीयता नहीं खोना चाहेगा। भारत के खिलाफ चीन सैनिक दांव बढ़ा दे, तब क्या होगा? भारत से पांच गुना अधिक आर्थिक ताकत और अमेरिका को पछाड़ने के लिए निर्बाध सैन्य विस्तार कर रहे चीन का मुकाबला अकेले क्या मुमकिन होगा?
भारत के लिए यह 1962 नहीं है। लेकिन चीन के लिए भी तो नहीं है। निस्संदेह, अमेरिकी इजारेदार पूंजी के भारत सहित पूरी दुनिया में निहित स्वार्थ हैं। अनेक मामलों में सैनिक-औद्योगिक धुरी अमेरिका में निर्णायक होती है। उभयपक्षीय संबंधों में बेलौस मोहब्बत नहीं हुआ करती, इसलिए भारत की सहायता के लिए तत्पर अमेरिका प्रतिफल अवश्य सुनिश्चित करना चाहेगा। चीन की सदाशयता एक धोखेबाज के किटी फंड की तरह है। चीन के खिलाफ गारंटीशुदा बीमे के लिए भारत को कितना भारी प्रीमियम अमेरिका को चुकाना चाहिए? सामरिक स्वायत्तता की कीमत पर भी? हर प्रकार के अहं और दलगत राजनीति से ऊपर उठते हुए इस पर राष्ट्रीय सर्वानुमति जुटाने की आवश्यकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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