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संप्रदाय और सांप्रदायिकता के मायने आधुनिक दौर में बहुत बदल चुके हैं। मोटे तौर पर समाज के वो अलग-अलग हिस्से जिनके जीने का
डॉ.प्रवीण तिवारी। संप्रदाय और सांप्रदायिकता के मायने आधुनिक दौर में बहुत बदल चुके हैं। मोटे तौर पर समाज के वो अलग-अलग हिस्से जिनके जीने का, पूजा का नियम तौर तरीका आदि अलग-अलग हों, वे संप्रदाय कहलाते हैं। आधुनिक समय में भारतीय संस्कृति में संप्रदायों की उत्पत्ति को समझना महत्वपूर्ण है।
दरअसल, जिन्हें हम आज धर्म कहते हैं वो संप्रदायों की परंपरा से ही निकले। इस लेख में हम भारत भूमि पर प्रतिष्ठित हुए संप्रदायों की बात करेंगे। उनमें भी वैदिक संप्रदायों की, जो आस्तिक धारा से जुड़े हुए हैं। भारतीय संस्कृति का मूल ही आस्तिकता है निश्चित तौर पर यहां आस्तिकता को फलने-फूलने का सुंदर अवसर मिला।
स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में अपने एक भाषण के दौरान कहा था-
दुनिया को धर्म और अध्यात्म सीखना है तो भारत का रुख करना चाहिए। वे वसुधैव कुंटुबकम को सभी आस्तिक संप्रदायों का मूल कहते थे। आज के सांप्रदायिक संघर्ष के दौर में भारतीय संप्रदायों का महत्व और बढ़ जाता है।
जिन्होंने ष़डदर्शनों को माना वे आस्तिक संप्रदाय कहलाए और जिन्होंने ने वेद और दर्शन नही माने वे नास्तिक दर्शन कहलाए। जैसे आजीवक संप्रदाय जो भाग्यवादी था। इसकी प्रमुख मान्यता थी कि सबकुछ पहले से तय है और कर्म की कोई विशेषता नहीं। हालांकि संप्रदाय के मूल तत्व यहीं तक सीमित नहीं थे, लेकिन नास्तिक संप्रदाय के इस दर्शन ने चार्वाक दर्शन और बाद के समय में बौध्द एवं जैन संप्रदायों को भी जन्म दिया। यहां भी वेदों और उपनिषदों से सीमित बातों को अपनी तरह से लिखा गया।
हम इन संप्रदायों के विषय में इस लेख में विस्तार से बात नहीं कर रहे हैं। इस लेख का उद्देश्य भारत के प्रमुख आस्तिक संप्रदायों को संक्षेप में रखना है। संप्रदायों के दो भागों में पहला और महत्वपूर्ण भाग है आस्तिक संप्रदाय। दूसरे हिस्से नास्तिक संप्रदाय पर संक्षिप्त टिप्पणी उपर कर दी गई है।
आस्तिक संप्रदाय की धारा
जिन संप्रदायों ने वेदों को प्रमुखता दी वे आस्तिक संप्रदाय कहलाए। पद्म-पुराण में कहा गया है-
जिस संप्रदाय में मंत्रों का महत्व नहीं वो किसी काम का नहीं।
इस बात को समझना जरूरी है कि दरअसल, आज भी मंत्रों या वेदों को समझने और स्वयं को वैदिक कहने में एक बड़ा भेद है। संप्रदायों के गठन के समय स्थितियां ये नहीं थी। मंत्रों और वैदिक ज्ञान को महत्व देने से ही संप्रदाय बने। आधुनिक सोशल सायकोलॉजी ईथनोग्राफी आदि का प्रयोग करती है।
इसके अंतर्गत किसी समूह के साथ रहकर उसे समझा जाता है फिर उसके बारे में लिखा जाता है। एक तरीका ये भी है कि उसके बारे में लिखे हुए ग्रंथों के आधार पर साक्ष्य जुटाए जाएं। यदि आस्तिक संप्रदाय की बात करें तो जिन्होंने छः हिंदू दर्शनों को माना और उनका पालन किया वे आस्तिक दर्शन कहलाए।
अब उपरोक्त कही बात को स्पष्टता से समझिए। आज यदि कोई स्वयं को किसी भी संप्रदाय का कहता तो वो मात्र प्रतीकों और पूजा पध्दति के आधार पर, जबकि संप्रदायों के प्रारंभिक काल में दीक्षा का महत्व था। मंत्र दीक्षा का मतलब ही था वैदिक मंत्रों की व्यख्या को समझना। आज भी गुरु-शिष्य परंपरा का वही रूप देखने को मिलता है, लेकिन निश्चित तौर पर अब ये प्रतीकात्मक ज्यादा हैं। हांलाकि इसकी मूल उत्पत्ति गुरु-शिष्य परंपरा से ही है।
शिव को मानने वाले शैव और विष्णु को मानने वाले वैष्णव। इसी तरह शक्ति की उपासना करने वाले शाक्त और गणपति की उपासना करने वाले गाणपत्य संप्रदाय से संबंधित हुए। - फोटो : अमर उजाला।
छह हिंदू दर्शनों को समझाने के लिए एक लेख मैं पहले भी लिख चुका हूं। मेरा निवेदन है उसे भी पढ़ें इससे संप्रदायों के इस गूढ़ विषय को समझने में आपको मदद मिलेगी। यदि संप्रदायों की बात करें तो प्राचीन परंपराओं और ग्रंथों पर अभी तक हुए शोधों के आधार पर छह प्रमुख आस्तिक संप्रदाय हैं-
शैव संप्रदाय
वैष्णव संप्रदाय
शाक्त संप्रदाय
गाणपत्य संप्रदाय
सूर्य संप्रदाय
अद्वैत संप्रदाय
इनमें शैव और वैष्णव संप्रदायों के बारे में हम सभी ने सुन रखा है, लेकिन ये जानकारियां बहुत सीमित हैं। शिव को मानने वाले शैव और विष्णु को मानने वाले वैष्णव। इसी तरह शक्ति की उपासना करने वाले शाक्त और गणपति की उपासना करने वाले गाणपत्य संप्रदाय से संबंधित हुए। इन्हीं के साथ उस संप्रदाय का भी महत्व है, जो सूर्य को ही अपने आदि और अंत के रूप में पूजता था यानी सौर या सूर्य संप्रदाय। आदि शंकराचार्य ने वैदिक परंपरा की पुनर्स्थापना की और अद्वैत दर्शन की बात कही।
इसी से अद्वैतवाद की शुरूआत हुई। अद्वैतवाद एक ऐसा संप्रदाय है जिसमें समग्रता है। अब यदि समग्रता में देखा जाए तो वर्तमान हिंदू धर्म में शिव, शक्ति, गणपति, विष्णु, लक्ष्मी और वेदों सभी का समान स्थान है। इसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है। हर आस्तिक संप्रदाय का मूलतत्व आत्मा की प्रमुखता ही रहा है। किसी ने शिव को तो किसी ने शक्ति या विष्णु के रूप में इसी परमात्म तत्व को निरूपित किया। इसी तरह संप्रदायों का निर्माण हुआ।
वेदों के अलग-अलग हिस्सों का अनुपालन भी इन संप्रदायों में हुआ। यानी जिसे जो जंचा उस हिसाब से पूजा पध्दति और नियम, आचार, व्यवहार आदि बनाए गए। जब भी दो समूहों में मान्यताओं की भिन्नता होती है तो श्रेष्ठता की लड़ाई शुरू हो जाती है। निश्चित तौर पर लंबे समय तक चले इन अलग-अलग संप्रदायों के बीच भी संघर्ष रहा होगा लेकिन मूल तत्व एक ही था, आत्मज्ञान और जगत् कल्याण।
शैव संप्रदाय की धारा और परंपरा
भगवान शिव को मानने वाले शैव कहलाए। इस संप्रदाय में ही कई अन्य संप्रदाय भी बने। उदाहरण के लिए नंदीनाथ संप्रदाय। इसका जोर योग पर रहा और इसे नाथ संप्रदाय से भी जोड़कर देखा जाता है। अब यहां नाथ संप्रदाय का भी नाम आया तो आप सोच रहे होंगे उपरोक्त उल्लेखित संप्रदायों में इसका नाम क्यों नहीं। दरअसल, इन्हीं पांच संप्रदायों से फिर कई अन्य संप्रदायों की उत्पत्ति हुई।
इससे ये बात सिध्द होती है कि एक ही संप्रदाय के विभक्त होते होते कई रूप हो जाते हैं। इसकी वजह किसी व्यक्ति विशेष या जिन्हें हम गुरु कह सकते हैं के आत्मज्ञान के बाद वे पूर्व में प्रतिष्ठित कुछ पध्दतियों और विचारों में परिवर्तन करते हैं। इसी को मानने वाले उनका अनुसरण करते हैं और मूल संप्रदाय से एक नई धारा निकल जाती है। बौध्द और जैन संप्रदाय इसका बड़ा उदाहरण हैं। हालांकि नास्तिकता या वेदों को महत्व नहीं देने की वजह से वे पूरी तरह से अलग संप्रदाय बन गए।
शैव संप्रदाय में नंदीनाथ जी को महत्वपूर्ण माना जाता है, उन्होंने शिव सिध्दांत दिए और फिर उनके कई शिष्यों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। शिव, लिंग उपासना इनकी प्रमुख पहचान था। लिंगायत, शैव, काल्पलिक आदि संप्रदाय इसी का हिस्सा हैं। वेदों और पुराणों में इसका उल्लेख स्पष्टता से मिलता है। खासतौर पर मत्स्य पुराण में लिंग उपासना का विस्तृत वर्णन है।
वैष्णव संप्रदाय की धारा और दिशा
इधर, जो विष्णु और उनके अवतारों को परमात्म तत्व के रूप में देखते थे उनसे वैष्णव संप्रदाय की शुरूआत हुई। आज भी शिव और विष्णु या कृष्ण के उपासकों के तौर तरीकों में आपको बहुत भेद मिल जाएंगे। उदाहरण के लिए अघोर शास्त्र पर चलने वाले शैव और भगवान विष्णु या कृष्ण की प्रतिमा को सजीव मानकर उन्हें कपड़े पहनाना, सुलाना, खिलाना आदि बहुत से तरीके हैं। इन सभी नियमों का विकास कालांतर में हुआ होगा।
वर्तमान हिंदू धर्म में इन्हें समग्रता के साथ लिया गया है। यानी सामान्य जन दोनों या सभी संप्रदायों के गुणों को अपने जीवन में ढाल चुके हैं। ये समग्रता सुंदर भी है क्योंकि इसमें किसी तरह का भेद नहीं, हां इन्हें स्पष्टता और गहराई से समझने की आवश्यकता है। इसके भी चार विभाग बाद में हुए। प्रक्रिया वही थी गुरुओं और शिक्षा पध्दति के आधार पर मान्यताओं और पूजा पध्दतियों में कुछ परिवर्तन। यहां भी वेदों की ही प्रमुखता है।
श्री, ब्रह्म, रूद्र और कुमार, चार प्रमुख संप्रदायों में वैष्णव संप्रदाय को बांटा जा सकता है। लक्ष्मी, शिव, ब्रह्मा और सनतकुमारों को इनका मूल स्त्रोत माना जा सकता है। बाद में तुलसीदास या चैतन्य महाप्रभु जैसे वैष्णव भक्तों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। रूद्र वैष्णव संप्रदाय ये स्पष्ट करता है कि शिव का भी वैष्णव संप्रदाय में स्थान रहा।
अतः ये कहना गलत होगा कि शिव उपासकों का वैष्णव संप्रदाय में स्थान नहीं है। राम और शिव के भक्ति पूर्ण संबंध को जिस तरह से दिखाया गया वो भी स्पष्ट करता है कि इस भेद को बाद में पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।
शाक्त्य या शक्ति संप्रदाय, धारा और प्रवाह
मां भगवती को हम शक्ति के रूप में जानते हैं। श्रुति और स्मृति के आधार पर शक्ति संप्रदाय का महत्वपूर्ण साहित्य आगे बढ़ा। शक्ति संप्रदाय को सिर्फ भगवान शिव की पत्नी माता पार्वती तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। जिन्होंने जगत् को चलायमान रखने वाली ऊर्जा में आस्था की और उसकी उपासना की वो शक्ति संप्रदाय के माने गए। शक्ति संप्रदाय के लिए देवी उपनिषद, शक्ति उपनिषद, देवी महात्म्य का विशेष स्थान है।
वर्तमान में दुर्गा सप्तशति और नवदुर्गा के समय शक्ति उपासना इसी संप्रदाय का रूप है। आज भी बंगाल, असम आदि जगहों पर देवी की ही उपासना का महत्व है। देवी के हर स्वरूप को शक्ति का रूप माना जाता है। लक्ष्मी और सरस्वती भी शक्ति के ही रूप हैं। निश्चित तौर पर देवी के ये स्वरूप प्रतीकात्मक हैं क्योंकि शैव और वैष्णव संप्रदायों के होते हुए भी शक्ति संप्रदाय का होना ये बताता है कि शक्ति के उपासकों ने ऊर्जा या आत्मतत्व को एक स्त्री का रूप माना।
कालांतर में सभी देवियों की उपासना ऊर्जा के इसी रूप की उपासना की ओर अग्रसर हुईं। इस संप्रदाय में मंत्रों के साथ-साथ तंत्र का भी विशेष स्थान रहा। जितनी भी तांत्रिक क्रियाएं हुई वो इसी संप्रदाय के अंतर्गत थी। हालांकि शैव संप्रदाय में भी इसका महत्व था खासतौर पर अघोर पंथियों में।
कुल मिलाकर संप्रदायों में भेद होने के बावजूद जबरदस्त साम्य है। इसकी वजह है सभी का मूल स्त्रोत एक ही होना, यानी वैदिक आस्तिक परंपरा और श्रुति, स्मृति।
खुदाई से मिले साक्ष्यों के आधार पर देवी का अब तक का सबसे प्राचीन पीठ मध्य प्रदेश के सीधी में मिला है, जिसे वैज्ञानिकों ने 8000 से 9000 ई. पूर्व का पाया है। निश्चित तौर पर शक्ति की उपासना इससे भी पहले होती रही होगी। ऋग्वेद के देवी सूक्त को भी इसका मूल माना जाता है जिसका अर्थ है शाश्वत् और अनंत चैतन्य, जो हर प्राणीमात्र में उपस्थित है, वो देवी का ही रूप है।
गाणपत्य संप्रदाय की धारा और दिशा
भगवान गणेश सबसे सुंदर, सबसे प्यारे और प्रथम स्मरणीय माने गए हैं। उनसे ही हर कार्य का शुभारंभ होता है। गाणपत्य संप्रदाय का ये महत्वपूर्ण बिंदु आज भी हिंदू धर्म की महत्वपूर्ण पहचान है। मुद्गल पुराण और गणेश पुराण दो ऐसे ग्रंथ हैं जो पूरी तरह से भगवान गणेश को समर्पित है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि उनके 32 रूपों और 8 अवतारों का वर्णन भी इन्हीं पुराणों में मिलता है। जब इनके बारे में आप पढ़ेंगे तो पाएंगे गूढ़तम दार्शनिक रहस्यों को उनके इन अवतारों में पिरोया गया है।
दरअसल, इसमें गणपति की उपासना में, मोह, मद, क्रोध आदि के नाश के लिए उनके अलग-अलग रूप बताए गए, तो वीरता और पालनकर्ता के रूप में भी उनका निरूपण किया गया। महाराष्ट्र में आज भी गणपति जी की पूजा उपासना का विशेष महत्व है। गणेश प्रतिमाओं और गणेश मंदिरों के अवशेषों से भगवान गणेश की पूजा उपासना की प्राचीनता का भी पता चलता है।
गणपति संप्रदाय में महागणपति को अपने पिता शिव से ऊपर बताया गया। यहां तक की त्रिपुरासुर से युध्द के समय जब भगवान शिव ने महागणपति का आशीर्वाद नहीं लिया तो उन्हें युध्द में हार दिखाई दी। गलती का एहसास होने पर उन्होंने महागणपति का आशीर्वाद लिया और विजय प्राप्त की।
जाहिर है पौराणिक गाथाओं को समझने की आवश्यकता है। हर संप्रदाय ने अपने महत्व को दिखाया। आज भी ऐसा ही होता है। सभी की भक्ति का केन्द्र सगुण ब्रह्म ही है, बस स्वरूप बदल गए। इनके रूपों के वर्णन में कई महत्वपूर्ण बातों को लिखा गया, जो जीवन के मूल मंत्र हैं। यही संप्रदायों की रूप रेखा है कि कैसे आप जीवन दर्शन को मानते हैं। हिंदू दर्शन इतना विराट है कि जिसे जो जंचा उसने वो लिया और सभी संपूर्ण भी दिखाई देते हैं। पुराणों और उनके तथ्यों पर बहस करने वाले इसके मूल तत्व को समझ ही नहीं पाते।
सौर संप्रदाय की धारा और पथ
सौर संप्रदाय हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखता था, लेकिन मुगल आक्रांताओं के आने के बाद 12 या 13 वी शताब्दी में इनकी तादाद बहुत कम हो गई। खासतौर पर वैष्णव और शैव संप्रदायों के समकक्ष तो न के बराबर। नाम से ही स्पष्ट है वे लोग जो सूर्य को सगुण ब्रह्म के रूप में पूजते थे, इस संप्रदाय से संबध्द थे। सूर्य उपासना का हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। कोणार्क के सूर्य मंदिर के बारे में आपने सुना ही है।
अमर उजाला के लिए एक चुनाव यात्रा के दौरान मुझे उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में भी ऐसा ही एक भव्य मंदिर मिला था, लेकिन अब सिर्फ मंदिर के अवशेष ही बाकी रह गए हैं। महाभारत में युधिष्ठिर की सौर ब्राह्मणों से मुलाकात का उल्लेख भी मिलता है, जिनके साथ उनके 7 हजार शिष्य भी थे।
अब सौर संप्रदाय के बहुत ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, जानकारियों के मुताबिक नेपाल में अब भी सौर संप्रदाय से जुड़ा एक छोटा ग्रंथ उपलब्ध है। इसके अलावा सूर्य स्तोत्रों, प्रार्थनाओं और प्राचीन कविताओं के आधार पर भी इस संप्रदाय के साक्ष्यों को समझा जा सकता है। सूर्य को त्रिदेवों के मूल स्त्रोत के तौर पर इस संप्रदाय ने पूजा।
वे आत्म शक्ति का मूल स्त्रोत सूर्य को ही मानते थे। एक बात को याद रखिए सभी संप्रदाय आत्म तत्व, ऊर्जा या शक्ति की ही बात कर रहे हैं बस उसे पूजने के लिए सांकेतिक रूप से अलग-अलग रूपों का इस्तेमाल कर रहे हैं। निश्चित तौर पर सौर संप्रदाय ने साक्ष्य के तौर पर सामने उपस्थित सूर्य को ही सभी शक्तियों का मूल स्त्रोत, पालक और संहारक माना। इसे आप हिंदू धर्म के वृहद वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रूप में भी देख सकते हैं। ऋग्वेद वेद के सूत्रों में भी सूर्य की उपासना अलग-अलग रूपों में की गई है। गायत्री मंत्र की भी इस संप्रदाय की प्रार्थनाओं में प्रमुखता रही।
अद्वैत वाद या संप्रदाय, जो प्रमुख रहा और प्रभावी भी
कितना सुंदर शब्द है, अद्वैत। मोटे तौर पर अर्थ है, कोई दूसरा नहीं, कोई भेद नहीं, सब एक हैं। वेदों की पुनर्स्थापना करने वाले आदि शंकराचार्य का हिंदू दर्शन शास्त्र को वर्तमान समय में पूर्ण अर्थों के साथ रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। समय के साथ-साथ मान्यताओं में जड़ता आ जाती है और लोग मूल तत्व को भूल जाते हैं। शंकराचार्य ने वेदों के सार के तौर पर कहा कि जीव ही ब्रह्म है और मुक्ति इसी जीवन में संभव है।
मुक्ति के लिए मृत्यू की प्रतीक्षा नहीं करनी। सरल भाषा में समझने के लिए आदि शंकराचार्य के कार्य को समझिए। उन्होंने कुछ उपनिषदों का भाषा, टीका किया और वैदिक जीवन को सरलीकृत किया। वे जानते थे कि वैदिक संस्कृति मानव कल्याण के लिए है लेकिन इतनी विस्तृत है और इतने संप्रदायों में बंटी है कि मूल तत्व एक होते हुए भी बहुत भेद हो जाते हैं। उन्होंने वैदिक संस्कृति में चल रही कई बातों पर शास्त्रार्थ किए और ये स्थापित करने में सफलता पाई कि जीव ही ब्रह्म है और वैदिक संस्कृति अद्वैत की बात करती है।
इस शिक्षा को आगे भी सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए उन्होंने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षा और उपनिषदों के भाषा टीका को आगे बढ़ाया। यहीं से सभी संप्रदायों की पूजा पध्दति में उसी सगुण ब्रह्म की उपासना शुरू हुई जो एक ही है और हमसे अलग नहीं।
आदि शंकराचार्य ने विश्व धर्म को अद्वैतवाद के जरिए रखा। ये सही मायनों में मानव का धर्म है। इस धर्म में पुरुषार्थ का महत्व है जहां धर्म, अर्थ, काम से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस गूढ़ विषय पर कई ग्रंथ लिखे जा चुके हैं लेकिन तेजी से बढ़ती दुनिया में अब भौतिकतावाद हावी है। ऐसे में मानव जीवन के मूल तत्व को जानने के लिए हिंदू दर्शन को समझना जरूरी है। अलग-अलग देवी देवताओं की पूजा उपासना को न समझने वालों को इन संप्रदायों को समझना जरूरी है, जो इन्हीं दर्शनों को समझाने के मकसद से उत्पन्न हुए। लक्ष्य एक ही था सगुण ब्रह्म की उपासना। अद्वैतवाद ने सभी को स्वीकार किया और वर्तमान समय में हिंदू धर्म में सभी देवी देवताओं का समान स्थान है। पूजा पध्दतियां भी कमोबेश एक जैसी ही हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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