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संवाद बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे ज्ञान को सत्य की कसौटी पर कसा जा सकता है
डॉ.प्रवीण तिवारी। संवाद बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इससे ज्ञान को सत्य की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाषा ही संवाद का माध्यम है। भारत और वैदिक विज्ञान के लेखों पर पाठकों की कई टिप्पणियां पढ़ने को मिलती है। आर्य और द्रविड़ों पर लिखे विगत् लेख पर कुछ सुधि पाठकों ने तमिल भाषा की संस्कृत से उत्पत्ति पर प्रश्न उठाया। उन्हें इस विषय में और जानकारियां मिलें, इसलिए ये लेख लिखा गया है।
बहरहाल, पहले तो भाषा हम सबकी पहचान है और इसे लेकर स्वाभिमान का भाव होना गलत बात नहीं है। संस्कृत की ही तरह तमिल भी निश्चित तौर पर भारत की प्राचीनतम् भाषा है। जब हम भाषा कहते हैं तो हमें स्पष्टतः इस भेद को समझ लेना चाहिए कि हम उस परिष्कृत भाषा की बात कर रहे हैं जिसका व्याकरण तैयार किया गया और जिसमें प्राचीनतम् साहित्य मिलता है।
निश्चित तौर पर बोलियों और अन्य भाषाओं का भी बहुत महत्व है लेकिन हम सभी जानते हैं कि इनमें बहुत तेजी से बदलाव होता है। ठीक वैसे ही जैसे मूल स्त्रोत से निकलने वाली नदी आग जाकर कई छोटे बड़े रूपों में विभक्त हो जाती है। अब बात करते हैं भाषा के उस मूल स्त्रोत की जिससे भारत भूमि ही नहीं बल्कि विश्व की तमाम भाषाओं का जन्म हुआ। यूरोपीय भाषाओं पर संस्कृत के प्रभाव पर काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन भारतीय भाषाएं भी इससे अछूती नहीं हैं खास तौर पर तमिल जैसी प्राचीनतम भाषा।
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. डी. पी. त्रिपाठी देश में संस्कृत के उत्कृष्ट जानकारों में से एक हैं। विश्वविद्यालय में हो रहे शोधों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आज जब भी किसी शोध की बात की जाती है तो संदर्भों का महत्व होता है। इसमें तो किसी को भी संदेह नहीं कि विश्व की प्राचीनतम् ज्ञात भाषा संस्कृत है। इस भाषा से जुड़े किसी भी शोध के लिए संस्कृत के जानकारों का विशेष महत्व है। निश्चित तौर पर यही बात इस भाषा में लिखे गए साहित्य और इतिहास के विषय में भी है।
मैंने भारत और वैदिक विज्ञान के विषय पर कुलपति महोदय से लंबी चर्चा की है। जिसमें संस्कृत विद्वानों द्वारा काल निर्धारण और संदर्भों की व्यवस्था और पाश्चात्य पध्दति से चलने वाले शोधों पर भी बात की। हम हर बात में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बात करते हैं लेकिन शोध के मामले में हम पूरी तरह पाश्चात्य इतिहासकारों पर निर्भर नजर आते हैं। ऐसा क्यों?
शोध के विषय में इस लेख में ये बात उद्धृत करने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि संस्कृत को जानना है तो संस्कृत के जानकारों से जानना चाहिए। खासतौर पर उनसे जो वैदिक संस्कृत और पाणिनी कृत संस्कृत के व्याकरण के भेद को भी समझते हैं।
जिस वैज्ञानिक परिपाटी को आज महत्व का बताया गया है भारतीय वैदिक विज्ञान उससे कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और व्यवस्थित दिखाई पड़ता है। - फोटो : Istock
प्रो. त्रिपाठी कहते हैं-
निर्विवाद रूप से विश्व की प्राचीनतम ज्ञात भाषा संस्कृत है। साथ है वे अपने तर्क को मजबूत करते हुए कहते हैं कि भाषा के विकास को उसके सुसंस्कृत व्याकरण के इतिहास के विकास से देखना चाहिए।
इस दृष्टि से संस्कृत का व्याकरण भी प्राचीनतम व्याकरण है। संस्कृत व्याकरण का उल्लेख वेदों में भी किया गया है। साथ ही पाणिनी से बहुत पहले संस्कृत के 14 और वैयाकरणों का उल्लेख भी मिलता है। स्पष्टतः संस्कृत के सबसे प्राचीन होने में किसी को संदेह नहीं। अब बात संस्कृत के मूल स्त्रोत होने की करते हैं।
ऋग्वेद अपने आप में प्रमाण
ऋग्वेद के समकक्ष प्राचीन कोई ग्रंथ नहीं है। इस बात पर आधुनिक इतिहासकारों में भी विरोधाभास नहीं। निश्चिततौर पर उसके काल निर्धारण में इतिहासकार गड़बड़ियां करते हैं क्योंकि वे सिर्फ भाषा तक सीमित रह जाते हैं और खगोल विज्ञान के आधार पर की जाने वाली प्राचीन काल गणना के विज्ञान से उनका परिचय तक नहीं है। जबकि वैदिक साहित्य में काल निर्धारण को जितना सुस्पष्ट तरीके से बताया गया उतना कभी किसी ने नहीं कहा।
दरअसल, जिस वैज्ञानिक परिपाटी को आज महत्व का बताया गया है भारतीय वैदिक विज्ञान उससे कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और व्यवस्थित दिखाई पड़ता है। पहला व्याकरण संस्कृत का है और उसे भारत भूमि पर लिखा गया, निश्चित ही इसके बाद भारत भूमि पर अन्य व्याकरण लिखे गए, जिनमें ज्ञात सबसे प्राचीनतम् भाषा तमिल भी है।
पाणिनी और बुध्द के समकक्ष सबकुछ समेटने का प्रयास करने वाले आधुनिक इतिहासकार अगस्त्य ऋषि तक पहुंचने का सामर्थ्य ही नही करते। यदि पुराणों के इतिहास को समझा जाए तो कई महत्वपूर्ण साक्ष्य मिलते हैं। आज के शोधार्थी 100-50 साल पहले लिखी गई पुस्तकों के आधार पर अपनी बातें कहते हैं, जबकि उन्हें हजारों वर्ष पहले लिखे गए ग्रंथों की कोई समझ ही नहीं।
दिनकर तमिल भाषा के उद्गम के विषय में लिखते हैं-
अगस्त्य ने अगस्त्यम नामक व्याकरण लिखा, जो तमिल भाषा का आदि व्याकरण माना जाता है।
तमिल परंपरा में ये बात आज भी स्वीकार्य है लेकिन भाषा तत्वज्ञों को इसका पता ही नहीं।' उत्तर और दक्षिण का भेद बहुत बाद में पैदा किया गया। इस बात का प्रमाण इससे भी मिलता है कि संस्कृत के महानतम आचार्यों का जन्म दक्षिण में ही हुआ। आदि शंकराचार्य और ऋग्वेद के प्राप्त प्राचीनतम् भाष्य के रचनाकार सायणाचार्य जैसे विद्वान भी दक्षिण के ही थे।
ये स्वीकार्य सत्य है कि दक्षिण की अन्य भाषाओं जैसे मलायलम, कन्नड़ आदि का मूल तमिल है। संस्कृत में रचे गए आदि ग्रंथों का संस्कृत में ही विकास हुआ। ये तथ्य भी संस्कृत के महत्व और वैज्ञानिकता का प्रमाण है।
प्रो. डी. पी. त्रिपाठी एक महत्वपूर्ण बिंदू ये भी उठाते हैं कि बात सिर्फ भाषा के जानकारों की नहीं है, विषय के जानकारों की भी है। - फोटो : Pixabay
बोली और भाषा का इतिहास
अब बात बोली और भाषा विकास की करते हैं। मनुष्य ने भावाव्यक्ति के लिए भाषा का अनुसंधान और विकास किया होगा। ये सतत् प्रक्रिया है। पग-पग पर लोग अलग-अलग बोलियां और भाषाएं बोलते हैं। बहुत सी बातों में साम्य मिलता है। कुछ भाषाएं लोकप्रिय होती हैं और ज्यादा बड़े इलाके में बोली जाती है। भारत भूमि पर संस्कृत के साथ ही कई और भाषाओं का निश्चित तौर पर विकास हुआ होगा। दक्षिण में भी अन्य बोलियों की तरह तमिल जैसी ही भाषा अवश्य ही रही होगी।
निश्चित तौर पर बोलने चालने के इन तरीकों का असर संस्कृत पर भी पड़ा होगा। व्याकरण लिखने की परंपरा की बात करें, तो निर्विवाद रूप से ये स्वीकार करना ही होगा कि सबसे पहले संस्कृत का ही व्याकरण लिखा गया था। आज भी इसे सबसे समृध्द ध्वनि भाषा के रूप में जाना जाता है। व्याकरणों की परंपरा इसके बाद शुरू हुई। तमिल व्याकरण भी निश्चित तौर पर बाद में ही आया। दक्षिण में वेदों का जाना और भाषा का विकास साथ साथ हुआ। यही वजह है कि तमिल का विकास सीधे-सीधे संस्कृत से जुड़ा हुआ है।
दिनकर अपनी पुस्तक में डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
तमिल का 'आइरम' शब्द संस्कृत के 'सहस्त्रम' का रूपान्तरण है। इसी प्रकार, संस्कृत के स्नेह शब्द को तमिल ने केवल 'ने' (घी) बनाकर तथा संस्कृत के कृष्ण को 'किरुत्तिनन' बनाकर अपना लिया है। तमिल भाषा में उच्चारण के अपने नियम हैं। इन नियमों के कारण बाहर से आए हुए शब्दों को शुध्द तमिल प्रकृति धारण कर लेनी पड़ती है।
दिनकर आगे लिखते हैं-
वैदिक धर्म के ग्रंथ भी केवल उत्तर में ही नहीं लिखे गए, उनमें से अनेक की रचना दक्षिण में हुई थी। चिन्तकों, विचारकों और विशिष्ट समाज की भाषा दक्षिण में भी संस्कृत ही थी तथा दक्षिण की भाषाएं भी संस्कृत के स्पर्श से ही जागृत और विकसित होकर साहित्य भाषा के धरातल पर पहुंच सकी है।"
प्रो. डी. पी. त्रिपाठी से वैदिक संस्कृति और इतिहास के सही काल निर्धारण पर विस्तृत बातचीत हुई है, इसे भारत और वैदिक विज्ञान के अंतर्गत जल्द ही रखूंगा। यहां उनके द्वारा संस्कृत और उससे उद्भूत भाषाओं के विषय में व्यक्त किए गए विचारों को रख रहा हूं।
डॉ. त्रिपाठी का स्पष्ट मत है। वे कहते हैं-
अभी तो आधुनिक इतिहासकार संस्कृत के विकास को लेकर ही गड़बड़ा जाते हैं, तो काल निर्धारण और भी गूढ़ विषय है। प्राचीन खगोल विज्ञान और ज्योतिष की सही समझ इसके लिए आवश्यक है। पाणिनी ने स्वयं भी वैदिक संस्कृत के साथ छेड़छाड़ नहीं की बल्कि उसके लिए अलग अध्याय लिखा। ये भी स्पष्ट कर दिया कि किसी शब्द को वैदिक संस्कृत में कैसे लिखा या कहा जाता है।
वैदिक संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है। स्पष्टतः तमिल के प्राचीनतम भाषा होने के बावजूद उसके विकास और व्याकरण के बीज संस्कृत से ही निकले हैं। ऐसे में ये कहना बिल्कुल भी अप्रामाणिक नहीं होगा कि तमिल भाषा की जननी भी संस्कृत ही है।
अंत में दिनकर की इन पंक्तियों से बात और स्पष्ट होती है-
उम्र की दृष्टि से संस्कृत बड़ी, भारत की अन्य सभी भाषाएं उससे छोटी, बहुत छोटी हैं। यहां तक कि तमिल जो भारत की अर्वाचीन भाषाओं में सबसे प्राचीन है, संस्कृत उससे भी, कम-से-कम दो हजार वर्ष अधिक पुरानी भाषा है। अतएव, भारत को जो कुछ कहना था, उसने पहले संस्कृत में कहा। बहुत बाद को जब अर्वाचीन भाषाओं का उदय हुआ, उनमें भी भावानुभूति और चिंतन की वही प्रक्रिया उद्धृत हो गई, जो संस्कृत में विकसित हुई थी अतएव, हिंदू-संस्कृति की मूल भाषा संस्कृत रही। बाकी भाषाओं का एक लंबा-सा इतिहास केवल संस्कृत की उद्धरणी का इतिहास है।'
तमिल और संस्कृत के बीच भेद वैसा ही है जैसा आर्य और द्रविड़ के बीच भेद पैदा करना। स्पष्टतः इस बात से ये भी स्पष्ट है कि जो आर्य और द्रविड़ों के भेद को मानते हैं वो इस भाषा भेद के भी पक्षकार होंगे। जहां तक भाषा में स्थानीय शब्दों और उच्चारणों का भेद है वो क्या उत्तर क्या दक्षिण हर जगह मिलेगा।
इस लेख का उद्देश्य इस बात को स्थापित करना है कि भारतीय संस्कृति की मूल भाषा संस्कृत रही है इसीलिए उत्तर से दक्षिण तक सभी ने इसी भाषा को साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकार किया। भारत के असली इतिहास को जानना है तो संस्कृत के उन गूढ़तम रहस्यों को भी समझना होगा जो वैदिक और वैदिकोत्तर काल की संस्कृत, तक में देखने को मिलता है। यहीं कई पाश्चात्य भाषाकारों ने वेदों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया।
आधुनिक विज्ञान की विडंबना ये है कि वो भारतीय शिक्षा पध्दति खासतौर पर संस्कृत शिक्षा पध्दति को साध नहीं पा रही है। ये उनके बस में भी नहीं है। प्रो. डी. पी. त्रिपाठी एक महत्वपूर्ण बिंदू ये भी उठाते हैं कि बात सिर्फ भाषा के जानकारों की नहीं है, विषय के जानकारों की भी है।
जिन्हें भाषा ज्ञान है उन्हें विषय का ज्ञान नहीं और जिन्हें विषय का ज्ञान है उन्हें संस्कृत भाषा का नहीं। यदि संस्कृत वैदिक वांग्मय को मानव कल्याण के लिए उपयोग करना है तो इन दोनों बातों का ज्ञान होना आवश्यक है। किस तरह के प्रयास संस्कृत विश्वविद्यालयों द्वारा भारत में किए जा रहे हैं और कैसे आधुनिक शोध के साथ संस्कृत के शोधों को जोड़ा जा सकता है पर भी प्रो. त्रिपाठी से बातचीत हुई। इस पूरी बातचीत को जल्द इसी स्तंभ में आपके साथ साझा करुंगा
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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