सम्पादकीय

भारत और वैदिक विज्ञान:  आर्यों के आगमन की झूठी कहानी और विश्व के प्राचीनतम् ज्ञान-विज्ञान का असली इतिहास

Rani Sahu
21 Sep 2021 6:49 AM GMT
भारत और वैदिक विज्ञान:  आर्यों के आगमन की झूठी कहानी और विश्व के प्राचीनतम् ज्ञान-विज्ञान का असली इतिहास
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पुरातत्ववेद्ताओं के अनुसार द्रविड़ भी सिंधु घाटी सभ्यता से ही जुड़े हुए हैं। आमतौर पर ये माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के बाद आर्य यहां पर आए

डॉ.प्रवीण तिवारी। पुरातत्ववेद्ताओं के अनुसार द्रविड़ भी सिंधु घाटी सभ्यता से ही जुड़े हुए हैं। आमतौर पर ये माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के बाद आर्य यहां पर आए। संस्कृत साहित्य और वैदिक वांग्मय भारत में हिमालय से कन्याकुमारी तक एक जैसा है। ऐतिहासिक प्रमाण भी इसकी पुष्टि करते हैं कि संस्कृत न सिर्फ उत्तर भारत की भाषाओं की जनक है अपितु तमिल जैसी प्राचीनतम दक्षिण भाषाओं की भी जनक है। स्पष्टतः संस्कृत की उत्पत्ति भारत भूमि पर हुई और वेदों को इसी भाषा में रचा गया। खुदाई के साक्ष्य भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि द्रविड़ उत्तर भारत में ही रहे।

सिंधु घाटी सभ्यता के लोग गोरे थे या काले, ये तो किसी भी शोध से पता नहीं चलता, लेकिन भौगोलिक स्थिति और वर्तमान 'जीन विज्ञान' को भी देखें तो ठंडे प्रदेशों में अपेक्षाकृत गोरे लोग मिलते हैं। अब आते हैं महत्वपूर्ण प्रश्न की तरफ, क्या आर्य बाहर से आए थे? ऐसा कोई समय काल नहीं रहा, जब बाहर से लोग भारत भूमि पर न आए हों।
आधुनिक इतिहासकार- आर्यों का आगमन 1500 ई. पू. का बताते हैं। आर्यों को इंडो-इरानियन के तौर पर भी जाना जाता है। वर्तमान समय का पारसी धर्म यहीं से उपजा। जिन आर्यों की कल्पना आधुनिक इतिहास में आप पाते हैं, दरअसल उन्हें वर्तमान समय के पारसी धर्म को मानने वालों के तौर पर आप देख सकते हैं।
पारसी धर्म की शुरुआत जरथ्रुस्त से मानी जाती है। 'स' और 'ह' के बारे में भी आपने सुना होगा। सिंधु को हिंदू कहने से ही, हिंदू शब्द की उत्पत्ति के बारे में भी आप जानते होंगे। आदिम हिंद-ईरानी सभ्यता के नाम से भी इसके बारे में जानकारी मिलती है। वेदों के समकक्ष ही जेंद अवेस्ता इस सभ्यता के लोगों का प्राचीनतम ग्रंथ है। इस ग्रंथ में 'अहुर' को देवता माना जाता है। ये 'स' और 'ह' का भेद यदि आपको याद हो तो उन्हें ही हमारे शास्त्रों में 'असुर' कहा गया है। इंद्र आदि देवताओं का उल्लेख भी अवेस्ता में है, लेकिन वहां उन्हें वर्जित माना जाता है या यूं कहें हमारे देवता उनके 'असुर' या खलनायक हैं।
तथ्य कहते हैं कई कहानियां
अब उपरोक्त लिखे तथ्यों को थोड़ा बारिकी से समझिए। अवेस्ता की रचना का काल आधुनिक इतिहासकार 1000 ई. पू. बताते हैं। अवेस्ता की ऋचाएं हूबहू ऋग्वेद की ऋचाओं की तरह ही है। बस देवता और असुरों के बीच का भेद है। ये बातें समझनी इसलिए जरूरी है क्योंकि यहीं से आए लोगों को आर्य कहा गया। फिर ये भी कहा गया कि इन्हीं आर्यों ने वेदों की रचना की। जो तथ्य ऊपर लिखे हैं इनके बारे में जानने के लिए आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
ये धर्म के सामान्य जानकार भी आपको बता देंगे। आज भी यदि किसी पारसी समुदाय के व्यक्ति से बात करेंगे तो वो आपको अवेस्ता और देव और असुर के विषय में बता देंगे। ऐसे ही हिंदू धर्म के मानने वाले भी वेदों की कहानियों और सतही ज्ञान से तो वाकिफ हैं ही। इन बातों को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि ये आर्यों के आगमन और फिर यहां सभ्यता के विकास की एक पूरी थ्योरी को सवालों के घेरे में डाल देती है।
सबसे पहला बिंदु तो ये है कि वेदों के रचनाकाल को 1500 ई. पू. का बताना ही गलत मालूम पड़ता है और अवेस्ता का रचनाकाल तो और बाद का है। निश्चित तौर पर वेदों की रचना सतत् जारी रही। पुराणों और उपनिषदों का रचनाकाल भी समानांतर रहा होगा। वेदों और अन्य पौराणिक साहित्यों में मिलने वाला साम्य बताता है कि ये एक ही धारा का साहित्य है। वहीं अवेस्ता के बाद कोई रचना आदि इंडो ईरानियन सभ्यता में देखने को नहीं मिलती, कम से कम उपनिषदों और पुराणों के समकक्ष तो बिलकुल नहीं।
वेदों की रचना संस्कृत में की गई जबकी अवेस्ता की रचना अवेस्ताई भाषा में हुई। ये एक प्राचीन ईरानी भाषा थी जो अब सिर्फ अवेस्ता के माध्यम से बची हुई है। संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है। संस्कृत आज भी पल्लवित पुष्पित हो रही है। संस्कृत का व्याकरण समय-समय पर लिखा जाता रहा है। पाणिनी का अष्टाध्यायी तो बहुत बाद का है, जिन पुराणों को कल्पना माना जाता है उनमें भी संस्कृत के व्याकरण को बहुत सुंदरता से समझाया गया है।

वेदों और अन्य पौराणिक साहित्यों में मिलने वाला साम्य बताता है कि ये एक ही धारा का साहित्य है। - फोटो : सोशल मीडिया
सुप्रसिध्द जर्मन विद्वान जैकोबी ने ऋग्वेद के रचना काल को लगभग 6500 वर्ष पूर्व यानी 4500 ई. पू. का माना है।
रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं-
कृष्ण द्वैपायन बोलकर लिखाते थे, ये संदिग्ध नहीं हैं (उनके लिपिक गणेश थे)। वेद जिन संहिताओं से हमें मिलते हैं, उनका संपादन कृष्ण द्वैपायन व्यास ने किया जो महाभारत काल में जीवित थे।
दिनकर जी आगे अपनी पुस्तक में कहते हैं-
भारतीय परंपरा के अनुसार कलियुग का आगमन राजा परीक्षित के राज्यकाल में हुआ। परीक्षित के पिता अभिमन्यु महाभारत युध्द में मारे गए थे। अतएव, महाभारत की लड़ाई ईसा से कोई 3000 वर्ष पूर्व तो हुई होगी। और उससे चार सौ साल पूर्व संहिताएं लिखी गईं। उससे भी सात सौ वर्ष पूर्व से वेदों की रचना होती आ रही थी।
ये तो कुछ उल्लेख हैं यदि हम पौराणिक साक्ष्यों और महाकाव्यों के आधार पर भी आंकलन करें तो वैदिक परंपरा की पुरातनता का आधुनिक आंकलन कोरी गप्प मालूम पड़ता है। कुल मिलाकर ये बात सिंधु घाटी सभ्यता के पहले जाती दिखाई पड़ती है। सिंधु घाटी सभ्यता के अचानक खत्म होने की वजह कभी उल्कापात तो कभी सरस्वती का सूखना बताया जाता है। ये बात भी नहीं पचती है जबकि देवासुर संग्राम या महाभारत जैसे किसी युध्द की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता, पर पौराणिक साक्ष्यों को कल्पना मानकर स्वयं की कल्पनाओं को आधार मानना पाश्चात्य इतिहासकारों की आदत हो गई है।
वर्तमान समय पाश्चात्य पुरातत्वविदों पर निर्भरता का नहीं है, इसीलिए कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। मैंने सीधी के शक्ति पीठ पर एक विस्तृत लेख लिखा था उसे अवश्य पढ़ें। इस लेख में, मैं 1985 में हरियाणा के हिसार के पास हुई एक अन्य खुदाई का उल्लेख करना चाहूंगा। हरियाणा के फतेहाबाद जिले के गांव कुनाल में हड़प्पाकाल से भी पुरानी सभ्यता के साक्ष्य मिले।
पुरातत्व विभाग ने अपने शोध के बारे में कहा कि यहां मिले अवशेष 6000 वर्ष यानी करीब 4000 ई. पूर्व के हैं। यहां बेशकीमती चीजें, जिनमें आभूषण इत्यादि हैं भी मिले। साथ ही नदियों के किनारे गोल घर, जो कि सिंधु घाटी सभ्यता के चौकोर घरों से बिल्कुल अलग हैं, के भी अवशेष मिले हैं।
अब उपरोक्त सभी बातों का निचोड़ निकाला जाए तो आधुनिक इतिहासकारों ने काल निर्धारण में बहुत जल्दबाजी की है। निश्चित तौर पर भारत में खुदाई करके साक्ष्य पाने का इतिहास महज 100 वर्ष पुराना है, जबकि मान्यताओं का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना यहां कि संस्कृति का।श्रुति और स्मृति का इस्तेमाल यहां पहले साहित्य की रचना और उसके संरक्षण में होता था और बाद में जब रचनाएं लिख ली गईं तो परंपराएं श्रुति और स्मृति से आगे बढ़ीं। निश्चित तौर पर वेदों की परंपरा बहुत वैज्ञानिक थी इसीलिए उसकी एक व्यवस्था थी। अलग-अलग शाखाएं थीं और उन्हीं के जरिए वेद, पुराण और उपनिषदों की वृहद परंपरा जीवित रही।
आर्यों ने ईरान से आकर यहां वेदों की रचना कर दी और उसके पहले की सभ्यता किसी कारणवश खत्म हो गई, जैसी थ्योरी बिल्कुल भी वैज्ञानिक नहीं लगती। भारत के इतिहास को समझना है तो उन राजाओं और राजवंशों को भी समझना होगा जिनका उल्लेख पुराणों में मिलता है।
वेद और अवेस्ता के ऊपर दिए विवरण से ये स्पष्ट है, कि वेदों से ही ज्ञान लेकर अन्य साहित्यों की रचना हुई। ऐसे में आर्य यहां आकर कोई रचना करेंगे की बात भी हजम नहीं होती।
द्रविड़ों का वैदिक विज्ञान को आगे बढ़ाने में योगदान किसी से छिपा नहीं। आज भी दक्षिण में वेदों की परंपरा और प्राचीन ऋषियों की भूमि का दक्षिण में होना इस बात का स्पष्ट संकेत करता है। ऐसे में ये कहना कि भारत भूमि पर सबकुछ सिंधु घाटी के क्षेत्र में हो रहा था और बाकी सब ओर जीवन और सभ्यता का कोई निशान नहीं था ये तर्क सम्मत नहीं होगा। सिंधु घाटी सभ्यता के विकसित होने में किसी को संदेह नहीं क्योंकि खुदाई में साक्ष्य मिले हैं। उसी के समकक्ष अन्य स्थानों पर अविकसित सभ्यताएं रही होंगी ये भी आधारहीन बात लगती है।
जैन और बौध्द, दोनों ही धर्म हिंदू परंपरा की नास्तिक या अवैदिक धारा से ही निकले, लेकिन यदि उनके साहित्य को भी देखें तो वो पूरी तरह से वेदों और उपनिषदों से ही प्रभावित हैं, बस भाषा का परिवर्तन कर दिया गया। - फोटो : iStock
जो हिस्सा हमारे हाथ लगता है
निष्कर्ष यही निकलता है कि निश्चित तौर पर ईरान से भी लोग यहां आए होंगे, लेकिन वे यहां कि पूर्व में चल रही संस्कृति में ही रच बस गए होंगे। ये कहना भी गलत नहीं कि वे अपनी कुछ पुरानी यादों को लाए होंगे और असुर और देवता के भेद भी जानते होंगे। आर्यों ने असुरों को असुर ही कहा न कि जरथ्रुस्त के अनुयायियों कि तरह अहुर या उनके ईश्वर। एक स्पष्ट भेद 'मूल जाति' और कथित तौर पर भारत भूमि पर आए आर्यों में दिखता है। वहीं अवेस्ताई भाषा में और कोई साहित्य नहीं, यानी भाषा का विकास भी नहीं हुआ। न ही उपनिषदों और पुराणों की तरह कोई परंपरा वहां दिखाई पड़ती है।
कुल मिलाकर ये बात ज्यादा हजम होती है कि यहां से कुछ बातें वहां गई बनिस्बत इसके कि वहां से कुछ यहां आया। यहां पहले से ही एक समृध्द परंपरा रही होगी, जिसके साक्ष्य भी मिलते हैं। बाद में भाषा आदि का भी जमकर विकास हुआ।
जैन और बौध्द, दोनों ही धर्म हिंदू परंपरा की नास्तिक या अवैदिक धारा से ही निकले, लेकिन यदि उनके साहित्य को भी देखें तो वो पूरी तरह से वेदों और उपनिषदों से ही प्रभावित हैं, बस भाषा का परिवर्तन कर दिया गया। निश्चित तौर पर संस्कृत का ज्ञान सीमित किया गया होगा।
ये मानने में भी कोई दिक्कत नहीं कि उच्च कोटि का ज्ञान सभी को उपलब्ध नहीं रहा होगा। यहीं से एक टकराहट का जन्म हुआ होगा और वर्तमान समय में आधुनिक इतिहास, जिस बौद्ध काल के इर्द गिर्द अपनी पुरानी कहानी बुनता है, उसका जन्म हुआ होगा।
वर्तमान इतिहासकारों के प्रयासों से मुझे कोई आपत्ति नहीं। फिर भी वेदों और पुराणों को समझने में उनकी असमर्थता हमेशा सत्य से दूरी बनाए रखती है। यही वजह है कि वे आर्यों को भी बाहर की जाति बताने की थ्योरी ले आते हैं। जबकि सत्य ये है कि भारत भूमि की वैदिक परंपरा ने ही बाहर की अन्य प्रजातियों को भी प्रेरित किया। अवेस्ता जैसे पवित्र ग्रंथों का ऋगवेद के समान ही होना या इसी से प्रेरित होना, इसका बड़ा साक्ष्य है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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