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भारतीय रसायन शास्त्र के साक्ष्य नागार्जुन द्वारा रचित ग्रंथों से मिलते हैं
डॉ.प्रवीण तिवारी।
भारतीय रसायन शास्त्र के साक्ष्य नागार्जुन द्वारा रचित ग्रंथों से मिलते हैं। इतिहास तारीखों से चलता है, लेकिन विज्ञान तारीखों का मोहताज नहीं है। इन प्राचीन वैज्ञानिकों का काम ही इनकी पहचान है। ये कब हुए और इन्होंने कब ग्रंथों की रचना की से ज्यादा महत्व की बात है कि इनके बताए सिध्दांत किस काल से व्यवहारिक जगत में अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
नागार्जुन की कहानी, जो एक रसायन शास्त्री रहे
दरअसल,नागार्जुन का काम भी ऐसा ही है। हालांकि इसी नाम से बाद में कुछ ख्यात विचारक भी हुए इसीलिए नागार्जुन के ठीक ठीक समय को लेकर असमंजस की स्थिति रहती है। ये तथ्य स्प्ष्ट है कि रस रत्नाकर और रसेंद्र मंगल जैसे ग्रंथों की रचना इन्होंने ही की थी। जिस तरह वेदों और महाकाव्यों की परंपरा हमारे देश में श्रुति स्मृति और विशेषज्ञों की वजह से आज तक जीवित है इसी तरह विज्ञान के अद्भुत प्रयोग भी इन ग्रंथों के रूप में सुरक्षित हैं। समय समय पर विद्वान इन ग्रंथों की पुनर्स्थापना करते रहे हैं।
आधुनिक समय में पी. सी. रे ने प्राचीन भारतीय रसायन शास्त्र पर जो कार्य किया उसमें रस रत्नाकर और रसेंद्र मंगल पर ही उन्होंने सबसे ज्यादा काम किया। उनकी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ हिंदू केमिस्ट्री को मैं पहले भी पुनर्प्रकाशित करवाने की मांग कर चुका हूं। इसकी बहुत कम प्रतियां अब बची हैं।
नागार्जुन भारत के प्राचीन रसायन शास्त्र का सबसे ज्ञात चेहरा हैं। निश्चत तौर पर जिस तरह अगस्त मुनि को कुंभ से बिजली उद्पादित करने की वजह से कुंभोद्भव कहा जाता है, उसी तरह ऋषि परंपरा में ऐसे की वैज्ञानिक हुए होंगे जिन्होंने रसायन विज्ञान पर कार्य किया होगा।
अपने समय में नागार्जुन ने इसी ज्ञान को परिष्कृत कर इन महान ग्रंथों की रचना की। प्राप्त जानकारियों के अनुसार इनका जन्म महाकौशल मे हुआ था जिसकी राजधानी श्रीपुर (श्योपुर) थी जो वर्तमान मे छत्तीसगढ़ में है।
श्रीपुर प्राचीन काल मे वैभव की नगरी कहलाती थी। हाल में वहां उत्खनन के दौरान प्राचीन बौद्ध विहार होने के साक्ष्य भी मिले हैं। विदर्भ और महकौशल की सीमा एक दूसरे के साथ मिलती थी। ये तथ्य जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि नागार्जुन ने अपनी प्रयोगशाला वर्तमान महाराष्ट्र में बनाई थी इसके भी साक्ष्य मिलते हैं।
महाराष्ट्र के नागलवाड़ी ग्राम में उनकी प्रयोगशाल होने के प्रमाण मिले हैं। कुछ प्रमाणों के अनुसार वे 'अमरता' की प्राप्ति की खोज करने में लगे हुए थे और उन्हें पारे और लोहे के निष्कर्षण का ज्ञान था। रस रत्नाकर उनकी सबसे प्रसिध्द रचना है लेकिन अन्य रचनाओं की तरह इसे भी लगातार इनके बाद के कई विद्वानों ने संकलित और संपादित किया। इसलिए कई बार इसके रचनाकारों को लेकर भ्रम की स्थिति बनती है। किंतु रस रत्नाकर ग्रंथ से ये तो सिध्द होता है कि रसायन शास्त्र का इतिहास भारत में अत्यंत प्राचीन था।
नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें रस रत्नाकर, 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।
दरअसल इसमें संदेह नहीं कि नागार्जुन चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयोग कर रहे थे। उनकी चिकत्सकीय पुस्तकों में पारे के प्रयोग पर बल दिया गया। यानी धातु विज्ञान के दौरान उन्होंने इसके मानव उपचार में उपयोगी होने पर संभवतः कई प्रयोग किए होंगे।
क्या लिखा है रस रत्नाकर ग्रंथ में?
रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस मानें गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-
(1) महारस (2) उपरस (3) सामान्यरस (4) रत्न (5) धातु (6) विष (7) क्षार (8) अम्ल (9) लवण (10) भस्म।
इनमें यदि पहले स्थान पर लिखे गए महारसों की बात करें तो उनके भी भेद बताए गए हैं
(1) अभ्रं (2) वैक्रान्त (3) भाषिक (4) विमला (5) शिलाजतु (6) सास्यक (7) चपला (8) रसक
इसके अतिरिक्त जो उपरसः-
(1) गंधक (2) गैरिक (3) काशिस (4) सुवरि (5) लालक (6) मन (7) शिला (8) अंजन (9) कंकुष्ठ
इसी तरह सामान्य रस को भी उन्होंने विभाजित किया है, जिनमें कोयिला, गौरीपाषाण, नवसार, वराटक, अग्निजार, लाजवर्त, गिरि सिंदूर, हिंगुल, मुर्दाड श्रंगकम्। इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं। रस रत्नाकर अध्याय 9 में 'रसशाला' यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें 32 से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य है, दोल यंत्र, स्वेदनी यंत्र, पाटन यंत्र, अधस्पदन यंत्र, ढेकी यंत्र, बालुक यंत्र, तिर्यक् पाटन यंत्र, विद्याधर यंत्र, धूप यंत्र, कोष्ठि यंत्र, कच्छप यंत्र, डमरू यंत्र।
नागार्जुन रस रत्नाकर में कहते हैं-
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजितः, करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्।
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा, लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्।
जिसका अर्थ है धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है। विभिन्न धातुओं को सोने में बदलने की विधि।
धातु से सोना बनाने वाले प्रयोगधर्मी नागार्जुन
नागार्जुन का नाम सबसे अधिक सोना बनाने की विधि के लिए जाना जाता है। दिल्ली के बिड़ला मंदिर में सोना बनाने की एक घटना का वर्णन नई दिल्ली के बिड़ला मंदिर में लिखा हुआ है। इतिहासकार राजेंद्र सिंह जी ने अपने एक लेख में अपने जीवन काल में भी अन्य धातुओं से सोना बनाने वाले कुछ वैद्यों को जानने का दावा किया है। उन्होंने अपने इसी लेख में बिड़ला मंदिर के इस लेख का जिक्र करते हुए लिखा है कि साल 1930-32 में बिड़ला जी ने ये प्रयोग करवाया था।
उन्होंने ऋषिकेश के एक वैद्य को बुलाया जिन्होंने एक तरल सा पदार्थ बना रखा था। इस पदार्थ को उन्होंने तांबे पर डाला तो अठारह सेर तांबा अठारह सेर सोने में बदल गया। इसे सुनारों को दिखाया गया और उन्होंने सोना होने की पुष्टि की। ये उस समय 75 हजार रुपए में बिका भी था। इस तरह के कई किस्से और घटनाएं आपको भारत में सुनने को मिलेंगी।
इन ग्रंथों से ये स्पष्ट होता है कि प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।
चिकित्साशास्त्र में अमूल्य योगदान
पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था बल्कि शरीर को निरोगी बनाने और उम्र बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल होता था। पारे और गंधक को शिव पार्वती की तरह माना जाता था। इन दोनों के मिश्रण से सिंदूर बनता है जिसे उम्र बढ़ाने वाला तत्व कहा गया है। इसी से संभवतः मांग में सिंदूर भरने की परंपरा शुरू हुई।
नागार्जुन ने चिकित्साशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने सुश्रुत संहिता की तरह ही उत्तर तंत्र नाम का ग्रंथ लिखा। इसमें कई बीमारियों के उपचार और उनके लिए उपयोग होने वाली दवाईयां बनाने की विधियां लिखी हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने आयुर्वेद पर आरोग्य मंजरी नाम का ग्रंथ भी लिखा है।
वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता ये है कि रसायन शास्त्र से जुड़े वैज्ञानिकों को इन ग्रंथों का गहन अध्ययन करना चाहिए। पीसी रे स्वयं संस्कृत के जानकार नहीं थे लेकिन वे रसायन शास्त्र को जानते थे। उन्होंने संस्कृत के जानकारों के सहयोग से ग्रंथों की जानकारियों को हासिल किया और फिर आधुनिक रसायन शास्त्र की कसौटी पर कस कर हिस्ट्री ऑफ हिंदू केमेस्ट्री लिखी। उनकी पुस्तक को भी संदर्भ की तरह सामने रखकर आधुनिक रसायनशास्त्रियों को काम करने की जरूरत है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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