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सम्पादकीय
देश की आजादी और श्री अरविंद : महायोगी के योगदान देख पाना आसान नहीं, इसे सिद्ध कर पाना और भी मुश्किल
Rounak Dey
14 Aug 2022 1:48 AM GMT

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भारत के प्रबुद्ध वर्ग को तमसो मा ज्योतिर्गमय का स्मरण दिलाना बहुत जरूरी है।
भारत अपनी आजादी का 75 वां वर्ष यानी अमृत महोत्सव मनाए और उसमें श्री अरविंद के अभूतपूर्व योगदान का स्मरण न हो, तो यह बात बहुत अधूरी लगती है। वह इसलिए कि जिस ढंग का योगदान श्री अरविंद का है, वैसा किसी और का नहीं है-कोई और ऐसा योगदान दे भी नहीं सकता था, जैसा कि एक योगी ही दे सकता है। और श्री अरविंद तो एक महायोगी थे। वह भारत की अंतरंग आत्मा से जुड़े हुए थे।
ताओ उपनिषद् पर अपने एक उद्बोधन में ओशो ने उल्लेख करते हुए कहा है : 'श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही आप इस तरह पलायनवादी कैसे हो गए कि सब छोड़-छाड़कर अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में बैठ गए? वर्ष में एक बार आप दर्शन देने के लिए निकलते हैं। आप जैसा संघर्षशील और तेजस्वी व्यक्ति, जो जीवन के घनेपन में खड़ा था और जीवन को रूपांतरित कर रहा था, वह अचानक इस भांति पलायनवादी होकर अंधेरे में क्यों छिप गया?
आप कुछ करते क्यों नहीं? क्या आप यह सोचते हैं कि करने के लिए कुछ नहीं बचा या फिर करने योग्य कुछ नहीं है? या समाज और मनुष्य की समस्याएं हल हो गई हैं, इसलिए अब आप विश्राम कर सकते हैं? समस्याएं तो बढ़ती ही चली जाती हैं। आदमी कष्ट में है, दुःख में है, वह गुलाम है, भूखा है, बीमार है, कुछ करिए। श्री अरविंद ने कहा कि मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है। वह आदमी चौंक गया। फिर उसने यह पूछा, यह किस प्रकार का काम करना है कि आप अपने कमरे में आंख बंद किए बैठे हैं, इससे क्या होगा?'
एक सच्चा योगी जीवन से कभी पलायन नहीं करता है। हमें ज्ञात है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही शिक्षा दी थी कि वह पलायन न करे। दिखता तो ऐसा ही है कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे।
अपने ध्यान प्रयोगों के द्वारा श्री अरविंद अपने अंतरतम में यह समझ गए थे कि हमारे कर्म हमारे जीवन के बहुत उथले तल पर होते हैं, चाहे वे कर्म क्रांतिकारी ही क्यों न प्रतीत होते हों। हमारे वे कर्म दूसरों को मार तो सकते हैं, लेकिन उन्हें रूपांतरित नहीं कर सकते। ऐसी ही एक झलक अंगुलिमाल को भगवान बुद्ध के सान्निध्य में मिली थी।
ओशो का कहना है कि श्री अरविंद को प्रत्यभिज्ञा हुई कि दूसरों को बदलना हो, तो स्वयं के भी अंदर में प्रवेश कर जाना जरूरी है। जहां से सूक्ष्म तरंगें उठती हैं अगर वहां से मैं तरंगों को बदल दूं, तो वे तरंगें अनंत तक फैलती चली जाती हैं। पृथ्वी के चारों ओर रेडियो की ही आवाज नहीं घूम रही है, टेलीविजन के चित्र ही हजारों मील तक नहीं जा रहे हैं, बल्कि सभी तरंगें अनंत की यात्रा पर निकल जाती हैं। जब आप गहरे में शांत होते हैं, तब आपके अंदर झील-सी शांत तरंगें उठने लगती हैं। वे शांत तरंगें फैलती चली जाती हैं।
वे पृथ्वी को छुएंगी, चांद को छुएंगी, तारों और ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाएंगी। और जितनी ही सूक्ष्म तरंगों का कोई मालिक हो जाए, उतना ही दूसरों में प्रवेश करने की क्षमता आ जाती है। अरविंद ने कहा कि अब मैं महाकार्य में लगा हूं। जबकि पहले मैं क्षुद्र कार्य में लगा था। अब मैं उस महाकार्य में लगा हूं, जिसमें मनुष्य से बदलने को कहना भी न पड़े और बदलाव हो जाए। लेकिन जो व्यक्ति उनसे पूछने के लिए गया था, वह आदमी तो उनके जवाब से असंतुष्ट होकर ही लौटा होगा।
इसलिए ओशो का यह निष्कर्ष अनूठा है कि भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। यह आकस्मिक नहीं है कि जिस 15 अगस्त को भारत को आजादी मिली, वह अरविंद का जन्मदिन है। लेकिन उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। भारत की आजादी में अरविंद का कोई योगदान है, इसे भी लिखने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। कोई इस बारे में लिखता भी नहीं।
ध्यान और योग भारत की एक विलक्षण संपदा है, जिसे देर-सबेर विश्व के संवेदनशील लोगों द्वारा मान्यता मिल सकती है कि जीवन का वास्तविक रूपांतरण तो हमेशा भीतर से बाहर की ओर ही होता है। हम भीतर बदलें, तो हमारे आसपास का जीवन भी बदल जाता है। लेकिन बड़ी आशंका इस बात की है कि इस आयाम को स्वयं भारत ही कहीं खो न दे, क्योंकि भारत का एक बहुत बड़ा शिक्षित वर्ग जाने-अनजाने एक ऐसी बहिर्यात्रा में खो-सा गया है, जो तमस से आच्छादित है। आजादी के इस अमृत महोत्सव के समय पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को तमसो मा ज्योतिर्गमय का स्मरण दिलाना बहुत जरूरी है।
सोर्स: अमर उजाला
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