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- महापौर चुनाव पर कशमकश
आदित्य चोपड़ा: दिल्ली के महापौर चुनाव को लेकर जिस तरह आम आदमी पार्टी और भाजपा में खींचतान चल रही है वह हमारे लोकतन्त्र की स्वस्थ परंपराओं के हित में कदापि नहीं कही जा सकती। इससे जो सन्देश आम जनता को जा रहा है वह राजनैतिक दलों के साथ पूरे राजनैतिक तन्त्र की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े करता है जिससे उस जनता के एक वोट के संवैधानिक अधिकार की महत्ता भी प्रभावित होती है। भारत में हर चुने हुए सदन के ले पृथक-पृथक नियम बने हैं। ये नियम सदन की कार्यपरिधी व मतदाताओं की अपेक्षाओं को देखते हुए बनाये गये हैं। स्थानीय निकाय इकाइयों में राजनैतिक पहचान को गौण रखा गया है। इसकी वजह यह है कि निकाय के चुने हुए सदनों में आम आदमी की उन मूलभूत समस्याओं का हल खोजा जाता है जिन्हें लेकर किसी प्रकार की राजनैतिक विचारधारा के आड़े आने का कोई मतलब नहीं होता। सामुदायिक सेवाओं से लेकर बिजली, पानी व साफ-सफाई के मसले ऐसे होते हैं जिनका किसी भी राजनैतिक दल की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं होता बल्कि सभी दलों का मत इन सुविधाओं को नागरिकों को सुगमता से सुलभ कराने का होता है।महानगरों में जो नगर निगम होती है उस पर भी यही सिद्धान्त काम करता है मगर इसके चुनाव लड़ने पर किसी भी प्रत्याशी पर अपनी राजनैतिक पहचान छिपाने के लिए भी कोई दबाव नहीं होता अतः चुनावों में पार्टियां दलगत आधार पर भी अपने उम्मीदवार मैदान में उतारती है और नतीजे आने पर अपनी- अपनी हार-जीत को स्वीकार करती हैं परन्तु सदन के भीतर सभी पार्षद एक समान होते हैं। इसकी संरचना विधानसभा से भिन्न होती है। यही वजह है कि नगर निगम के भीतर दल गत आधार पर कोई नियम नहीं बनता जिसकी वजह से इसके सदस्यों पर दल-बदल विरोधी कानून लागू नहीं होता। भारत की त्रिस्तरीय प्रशासनिक व्यवस्था में पहले पायदान के चुने हुए सदनों जैसे नगर पंचायत या नगरपालिका अथवा नगर निगम को 'दल विहीन' किन्तु 'लोक-प्रमुख' प्रणाली का बनाया गया जिससे स्थानीयजन समस्याओं के निराकरण में किसी भी प्रकार से राजनीतिक विद्वेष या लाग-डांट न आने पाये। अतः आमजन को इस भेद को जानने की जरूरत है जिससे महापौर के चुनाव की पेचीदगियां उसकी समझ में स्पष्ट तरीके से आ सकें। दिल्ली नगर निगम के चुनाव दो महीने पहले हो चुके हैं मगर महानगर का महापौर अभी तक नहीं चुना जा सका है। उसके चुनाव के लिए तीन बार तारीख निश्चित की गई मगर तीनों ही बार आम आदमी पार्टी व भाजपा के चुनाव चिन्हों पर जीते पार्षदों के बीच इस प्रकार का विवाद छिड़ा कि चुनाव तक नौबत ही नहीं पहुंची और उससे पहले ही निगम के सदन में भारी शोर-शराबा औऱ हंगामा किसी न किसी मुद्दे को लेकर खड़ा हो गया। दलगत आधार पर आम आदमी को बहुमत प्राप्त हुआ और भाजपा विपक्ष में बैठी। परन्तु महापौर चुनाव में इस दलगत आधार पर मिले बहुमत का ज्यादा अर्थ इसलिए नहीं है क्योंकि कोई भी पार्षद महापौर के लिए खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को अपनी मनपसन्द के अनुसार वोट डाल सकता है। इस तक्नीकी किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न को लेकर पहले तो भाजपा व आप उलझते रहे। प्रथम दृष्टया साफ था कि आम आदमी का प्रत्याशी ही अपनी दलगत ताकत के आधार पर विजय प्राप्त करेगा मगर दोनों पार्टियों के रणनीतिकार यह भी समझते थे कि इस चुनाव में पार्टी का कोई मतलब ही नहीं होता है और हर पार्षद को स्वतन्त्रता है कि वह जिसे चाहे वोट डाले। अतः पार्षद तोड़ने के इल्जाम भी सामने आये। उसके बाद राज्यपाल द्वारा मनोनीत 11 पार्षदों के शपथ लेने का मुद्दा गरमाया कि उन्हें सीधे चुने गये पार्षदों से पहले शपथ दिलवाई जाये या बाद में। यह मुद्दा सुलझा तो नया मुद्दा यह सामने आ गया कि इन मनोनीत पार्षदों को महापौर चुनाव में वोट देने का अधिकार है अथवा नहीं? यह सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण था और सीधे संविधान से जुड़ा हुआ था।महापौर नगर निगम का संरक्षक होता है और शहर का पहला नागरिक भी होता है। दिल्ली चूंकि पूर्ण राज्य नहीं है। अतः यहां उपराज्यपाल प्रशासनिक मुखिया होते हैं। वह ही मनोनीत पार्षदों का मनोनयन करते हैं। मगर मनोनीत पार्षद भी निगम के सदन का हिस्सा होते हैं। प्रश्न पैदा होता है कि क्या मनोनीत पार्षद प्रत्यक्ष रूप से जनप्रतिनिधी भी होते हैं? जबकि महापौर जन प्रतिनिधियों के वोट से ही चुने जाने चाहिए क्योंकि वह दिल्ली के मतदाताओं के बीच प्रथम नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित होंगे। दूसरी तरफ मनोनीत पार्षद केवल दिल्ली के नागरिक होने की वजह से ही सीधे निगम के सदस्य बनते हैं। हजारों लोगों द्वारा चुने गये एक पार्षद की बराबरी किसी मनोनीत सदस्य से कैसे हो सकती है? परन्तु निगम की स्थायी समिति का सदस्य बनने से उन्हें इसलिए नहीं रोका जा सकता है क्योंकि यह समिति नागरिकों की दैनिक समस्याओं के निराकरण करने के लिए ही गठित होती है। ये समस्याएं जनता द्वारा चुने गये पार्षद और मनोनीत पार्षद के लिए एक समान ही होती हैं। इसके बावजूद मनोनीत पार्षदों को वोट का अधिकार देने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई पहुंच चुकी है और देश की इस सबसे बड़ी अदालत मे 17 फरवरी को निर्णायक सुनवाई होगी।संपादकीय :चीन की खतरनाक चालनये राज्यपालों की नियुक्तिनिवेशकों को भाया उत्तर प्रदेशबाल विवाह : असम में बवालहम भारत के वासीइंसान हों या जानवर- आशियाना सबको चाहिए13 फरवरी को इसी अदालत में मामले की सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह टिप्पणी भी की कि जब संविधान में दिल्ली के सन्दर्भ में यह व्यवस्था है कि मनोनीत पार्षदों के पास मतदान का अधिकार नहीं है तो प्रशासन उस पर विवाद क्यों खड़ा कर रहा है? मगर यह केवल एक टिप्पणी ही है क्योंकि 17 फरवरी को दोनों पक्षों के वकील अपने-अपने तर्क पेश करेंगे। अब चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचार में है तो फैसला आने पर दोनों ही पक्षों को उसे शिरोधार्य करते हुए दिल्ली को महापौर देने की तैयारी करनी चाहिए। वैसे भी महापौर का चुनाव केवल एक वर्ष के लिए ही होता है।
क्रेडिट : punjabkesari.com