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- सांसद का अमर्यादित...
स्वतन्त्र भारत की संसद में स्वस्थ परम्पराएं डालने के लिए इस देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ कर लोकतन्त्र हासिल करने वाले मनीषियों ने कड़ी मेहनत करके वर्तमान व्यवस्था देश की नई पीढि़यों के हाथों में सौंपी है अतः इसकी देखभाल उसी ढंग से होनी चाहिए जिस तरह देश की आजादी की होती है। संसद को सर्वोच्च बना कर हमारे पुरखों ने यही सिद्ध किया था कि भारत की सर्वोच्च सत्ता में इसके आम आदमी की सीधी भागीदारी उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के माध्यम से होगी। द्विसदनीय संसद की स्थापना करने के पीछे भी यही मकसद था कि 'राज्यों के संघ' भारत में प्रत्येक राज्य की विविधता के अनुसार हर कानून की तसदीक हो सके और केवल लोकसभा में प्राप्त बहुमत के आधार पर कोई भी सरकार लापरवाह न हो सके या मनमानी न कर सके क्योंकि संसद का उच्च सदन कही जाने वाली राज्यसभा में विभिन्न राज्यों के राजनीतिक समीकरणों के अनुसार ही इसमें बैठे हुए सदस्यों का चयन होगा। यह खूबसूरत हमारे देश की संसदीय प्रणाली का वह नक्काशीदार बूटा है जिसे बहुत बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी समस्त विशेषज्ञताओं का इस्तेमाल करते हुए संविधान सभा ने गढा था। अतः इस सदन में बैठे हुए प्रत्येक सांसद का पहला कर्त्तव्य यह बनता है कि वह सभी प्रकार की उत्तेजनाओं और झुंझलाहटों पर काबू रखते हुए इसकी मर्यादा व गरिमा को कायम रख सके। परन्तु पिछले तीन दशकों से हम देख रहे हैं कि संसद के भीतर इसके सदस्यों का व्यवहार व आचरण फौरी राजनीतिक लाभ उठाने के लालच में अमर्यादित हो रहा है। राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के सदस्य श्री शान्तनु सेन ने जिस तरह नये रेल व सूचना प्रौद्योगिकी मन्त्री श्री अश्विनी वैष्णव के हाथ से उनके वक्तव्य की प्रति छीन कर भरी सभा में फाड़ी वह स्वयं उनकी मर्यादा के अनुरूप भी नहीं थी क्योंकि श्री सेन स्वयं एक विद्वान सांसद माने जाते हैं। सभा ने उनके इस व्यवहार के लिए वर्षाकालीन सत्र के शेष समय के लिए निलम्बित करके उन्हें मर्यादित व्यवहार करने के लिए निर्देशित किया है। बेशक उनके निलम्बन की प्रक्रिया पर सवाल उठाये जा रहे हैं मगर इससे उनका दोष कम नहीं हो जाता है। हालांकि कुछ विपक्षी सांसदों का कहना है कि सदन में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है पूर्व में भी ऐसा होता रहा है। महिला आरक्षण विधेयक को लेकर 1997 से 2010 तक संसद के दोनों सदनों में ऐसे नजारे देखने को मिले हैं जिनसे संसदीय मर्यादाएं शर्मसार होती रही हैं। यही वजह थी कि इस विधेयक को 2010 में सभापति श्री हामिद अंसारी की सदारत में राज्यसभा में मार्शलों की सुरक्षा के घेरे में पारित किया गया था। इस विधेयक के समर्थन में उस समय संसद में एक ऐसा नजारा भी पेश हुआ था जिसकी कल्पना भारतीय राजनीति में नहीं की जा सकती है। इस विधेयक पर कांग्रेस व भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ आ गई थीं जबकि जनता दल (यू) व राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियां इसके विरोध में थीं। उस समय इस विधेयक के मुद्दे पर सदन के भीतर तोड़-फोड़ तक हो गई थी। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि संसद की मर्यादा भंग करने का सिलसिला पुराना है जो बदस्तूर जारी है। श्री सेन ने पेगासस जासूसी वायरस के मुद्दे पर श्री वैष्णव के हाथ से उनके वक्तव्य को लेकर फाड़ा और आसन की तरफ उछाल दिया। लोकसभा ने वह दिन भी देखा है जब 2014 में तेलंगाना निर्माण विधेयक के विरोध में काली मिर्च का 'स्प्रे' कर दिया गया था। मगर सवाल यह है कि यदि इस्रायली कम्पनी एनएसओ द्वारा विकसित इस पेगासस जासूसी इंटरनेट 'स्पाई वेयर' को इस्राइल की सरकार आतंकवाद के विरुद्ध एक हथियार बता रही है तो भारत में इसके उपयोग के बारे में सदन के भीतर बाकायदा सकारात्मक बहस होनी चाहिए थी न कि इस बारे में मन्त्री के वक्तव्य को फाड़ा जाना चाहिए था। दूसरी तरफ जब राज्यसभा में मन्त्री ने इस बारे में वक्तव्य दिया तो इस सदन में उनसे स्पष्टीकरण पूछ कर विपक्षी सांसद अपनी क्षुधा शान्त कर सकते थे मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और सीधे श्री सेन ने वक्तव्य को ही फाड़ डाला। संपादकीय :ओलिम्पिक खेल : मानव के जज्बे को सलामसंशोधित नागरिकता कानूनअनाथ बच्चों के सपनों को पंख देंनवजोत सिद्धू : पिक्चर अभी बाकी है!संसद की सर्वोच्चता का सवालOpen House का अपना आनंद हमें याद रखना चाहिए कि यह वह सदन वहीं है जिसमें कभी आचार्य नरेन्द्र देव जैसे उद्भट विद्वान और विचारक बैठा करते थे और जिसकी अध्यक्षता भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन किया करते थे। उनके पद चिन्हों का हमें कुछ तो ख्याल करना चाहिए। संसद बेशक निर्णय लेने का सर्वोच्च मंच होने के साथ ही सरकार की जवाबदेही की सबसे ऊंची पंचायत भी होती है मगर इसका यह नियम भी है कि इसमें जो भी फैसला या काम होगा वह विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच बाकायदा तर्कपूर्ण बहस के बाद ही होगा । लोकतन्त्र में संसद की प्रासंगिकता या उपयोगिता केवल इस वजह से नहीं होती कि इसने कितने नये कानून बनाये बल्कि इसलिए होती है कि इसकी कार्यवाही से देश के कितने लोगों के जीवन में बदलाव आया। यह मेरा कहना नहीं बल्कि लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष स्व. जी.वी. मावलंकर का कहना था। संसद से सिर्फ एक ही सन्देश जाना चाहिए कि यह आम लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए काम कर रही है। राजनीतिक हिसाब-किताब करने के लिए देश व राज्यों में हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं।