सम्पादकीय

नसीहत देने की लाइलाज बीमारी: नि:संदेह भारत में कई क्षेत्रों में सुधार जरूरी हैं, पर पाकिस्तान से तुलना करना शरारत है

Gulabi
10 March 2021 3:33 PM GMT
नसीहत देने की लाइलाज बीमारी: नि:संदेह भारत में कई क्षेत्रों में सुधार जरूरी हैं, पर पाकिस्तान से तुलना करना शरारत है
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भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का सिलसिला थमने वाला नहीं

भारत का अंतरराष्ट्रीय कद जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे उसे नीचा दिखाने या बेवजह नसीहत देने का काम भी तेज हो रहा है। इस काम में विभिन्न पश्चिमी देश, उनकी संस्थाएं और उनका मीडिया भी शामिल है। कोरोना संक्रमण का कहर टूटने के बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक बड़े हिस्से का मानना था कि भारत में लाशों के ढेर लग जाएंगे। जब ऐसा नहीं हुआ तो यही मीडिया इस पर हैरानी जताने लगा कि आखिर बड़ी आबादी वाले देश में इतने कम लोग कैसे मरे? कुछ यह आशंका जाहिर करने में जुट गए कि कहीं कोविड से मरे लोगों की मौतों को छिपाया तो नहीं गया? उन्हें इससे निराशा हुई कि और सब चीजें तो छिपाई जा सकती हैं, लेकिन मौतें नहीं। जब भारत ने कोविड रोधी टीका बनाने में सफलता हासिल कर ली तो उसमें भी नुक्स निकालने की कोशिश की गई और भारत बायोटेक की वैक्सीन को मंजूरी देने के बाद ऐसे सवाल खड़े किए गए कि आखिर तीसरे चरण के ट्रायल का विवरण सामने आए बिना उसे मंजूरी कैसे दे दी गई? ऐसे सवाल उठाने वालों को तब निराशा हुई, जब पता चला कि ऐसे और भी टीके थे, जिन्हें इसी तरह मंजूरी मिली। कुछ समय पहले तक इसकी आशंका थी कि इस तरह के सवाल उठेंगे कि भारत अपने लोगों को टीका लगाए बगैर दूसरे देशों को टीके की आर्पूित क्यों और कैसे कर रहा है, लेकिन प्रतिदिन दस लाख से अधिक लोगों के टीकाकरण के बाद ऐसे सवाल उठाने की तैयारी कर रहे परसंतापी कसमसा कर रह गए। किसी न किसी बहाने भारत को कठघरे में खड़े करने की उनकी मंशा पूरी कर दी अमेरिकी संस्था 'फ्रीडम हाउस' की उस रपट ने, जिसमें कहा गया है कि अब भारत स्वतंत्र देश नहीं रहा।

अमेरिकी सरकार के पैसे से चलने वाले 'फ्रीडम हाउस' ने भारत को स्वतंत्र से आंशिक स्वतंत्र देश की श्रेणी में रख दिया है। भारत को 100 में से 67 अंक दिए गए हैं। 71 अंक होते तो भारत का स्वतंत्र देश का दर्जा बरकरार रहता। स्वतंत्र देश के दर्जे से मतलब है ऐसा देश, जहां लोगों को पर्याप्त राजनीतिक, व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो और जहां विभिन्न संस्थाएं भी स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम हों। नि:संदेह भारत में सब कुछ ठीक नहीं और कई क्षेत्रों में सुधार की सख्त जरूरत है, लेकिन उसे उस पाकिस्तान के समकक्ष रखना शरारत के अलावा और कुछ नहीं, जहां का शासन सेना चलाती है और जहां अल्पसंख्यक संवैधानिक तौर पर दोयम दर्जे के नागरिक हैं।

फ्रीडम हाउस को नागरिकता संशोधन कानून रास नहीं आया

ऐसा लगता है कि फ्रीडम हाउस वाले भारत का दर्जा घटाने पर तुले थे, क्योंकि इस आधार पर भी अंकों में कटौती की गई कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के सदस्य बन गए और एमनेस्टी इंटरनेशनल सरीखे संदिग्ध इरादों वाले संगठनों या फिर ऐसे ही अन्य गैर सरकारी संगठनों को विदेशी चंदे का मनमाना इस्तेमाल करने से रोक दिया गया। लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की कठिन हालात में घर वापसी को भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। इससे इन्कार नहीं कि लॉकडाउन के समय तमाम मजदूरों को विपरीत परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा, लेकिन सरकार ने जानबूझकर उनके सामने मुश्किलें नहीं खड़ी कीं। देशद्रोह कानून का अनावश्यक इस्तेमाल करने के लिए भारत की आलोचना की जा सकती है, लेकिन ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि इंटरनेट सेवा बाधित करने का काम लोगों को जानबूझकर तंग करने के लिए किया गया। फ्रीडम हाउस को नागरिकता संशोधन कानून रास नहीं आया, लेकिन उसने यह देखने से इन्कार किया कि इस कानून के विरोधी किस तरह सौ दिन तक एक व्यस्त सड़क को घेर कर बैठे रहे।
फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाएं और भी हैं, जो विभिन्न मसलों पर रेटिंग के जरिये भारत को कठघरे में खड़ा करने का काम करती हैं। जैसे तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने यह जिम्मेदारी अपने सिर ले ली है कि भारत समेत दुनिया के अन्य देशों को उनसे सीख लेनी चाहिए, उसी तरह कुछ देशों की सरकारें और वहां के राजनीतिक दल भी स्वयंभू मार्गदर्शक मान गए हैं। कृषि कानून विरोधी आंदोलन को लेकर कनाडा के प्रधानमंत्री की टिप्पणी इसी का नतीजा थी। यह वही कनाडा है, जो विश्व व्यापार संगठन में भारत सरकार की ओर से अपने किसानों को सब्सिडी देने का विरोध करता है, लेकिन अपने यहां के खालिस्तानियों को खुश करने के लिए कृषि कानून विरोधी आंदोलन को हवा देता है। बीते दिनों ब्रिटेन की संसद में भी इन कानूनों पर बहस के बहाने भारत पर हमला बोला गया। इस बहस का आधार बना एक लाख से अधिक लोगों का अनुरोध पत्र। इस बहस से यह साफ हुआ कि ब्रिटेन में कुछ ताकतें ऐसी हैं, जो भारत पर निशाना साधने के लिए आतुर थीं। ब्रिटेन की तरह अमेरिका में भी सांसदों का एक समूह ऐसा है, जिसे लगता है कि उसे भारत को हर मामले में नसीहत देने का अधिकार हासिल है।

भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। आगे भी किसी न किसी बहाने भारत को यह बताया जाएगा कि उसके यहां यह या वह गड़बड़ है। कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि उसके यहां कोई समस्या नहीं, लेकिन यह स्वीकार नहीं कि कमियों को इंगित करने के नाम पर देश विशेष के प्रति दुर्भावना का प्रदर्शन किया जाए। पश्चिमी देशों की कथित स्वतंत्र संस्थाओं से ज्यादा वहां का मीडिया भारत के प्रति दुर्भावना से भरा है। कई बार तो यह दुर्भावना नस्ली रंगत लिए दिखती है। यह सिलसिला तब तक कायम रहने वाला है, जब तक भारत में भी ऐसी संस्थाएं और समूह सक्रिय नहीं होते, जो अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा आदि की खामियों को रेखांकित करने का काम करें।


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