सम्पादकीय

जलवायु परिवर्तन से बढ़ती मुश्किलें

Subhi
8 Sep 2022 4:10 AM GMT
जलवायु परिवर्तन से बढ़ती मुश्किलें
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संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने भी पाया था कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन प्रकृति में खतरनाक और व्यापक व्यवधान पैदा और दुनिया भर के अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है।

निरंकार सिंह: संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने भी पाया था कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन प्रकृति में खतरनाक और व्यापक व्यवधान पैदा और दुनिया भर के अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। पैनल ने अपनी इस साल की रिपोर्ट में कहा कि चरम मौसम की घटनाओं के चलते लाखों लोगों को गंभीर भोजन और पानी की असुरक्षा का सामना करना पड़ा है, खासकर अफ्रीका, एशिया, मध्य और दक्षिण अमेरिकों, छोटे द्वीपों और आर्कटिक में।

ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में पिघलती बर्फ अगामी कुछ दशकों में इस धरती पर प्रलय का नजारा दिखा सकती है। पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ और चीन में भंयकर सूखा इसकी एक छोटी झांकी भर है। ग्लोबल वार्मिंग न हो तब भी यह उन इलाकों को डुबो देगी, जहां आज करोड़ों लोगों का बसेरा है। अब सब कुछ इस पर निर्भर है कि इंसान बढ़ती गर्मी को रोकने के लिए क्या कुछ कर पाता है।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पृथ्वी पर सागरों के उभार का सबसे प्रमुख कारक है। आर्कटिक क्षेत्र में गर्मी धरती के बाकी क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। 'नेचर क्लाइमेट चेंज' में छपे नए अध्ययन में ग्लेशियर विज्ञानियों ने बताया है कि भविष्य में जीवाश्म र्इंधन का प्रदूषण और बढ़ती गर्मी ग्रीन लैंड के बर्फ की चादर के आयतन का 3.3 फीसद पिघला देगी। नतीजतन सागर का जल स्तर 27.4 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। इससे दुनिया का नक्शा बदल जाएगा।

नासा के वैज्ञानिकों का कहना है कि वर्ष 2100 तक सागरों में तीन से चार फीट पानी अकेले ग्रीनलैंड में पिघलने वाली बर्फ से बढ़ सकता है। इतना पानी दुनिया के कई हिस्सों को डुबोने के लिए काफी होगा। इसका मतलब है कि फिलहाल सागर का जलस्तर बढ़ने का माडल कहीं पीछे छूट जाएगा। गर्मी और न बढ़े, तो भी तबाही आएगी। हैरत में डालने वाले ये नतीजे भी सबसे कम नुकसान वाली स्थिति को बता रहे हैं, क्योंकि इनमें भविष्य की गर्मी के असर का हिसाब नहीं जोड़ा गया है। नेशनल जियोलाजिकल सर्वे आफ डेनमार्क ऐंड ग्रीनलैंड के प्रमुख लेखक जेसान बाक्स के अनुसार ग्रीनलैंड के आसपास की जलवायु का गर्म होना जारी रहेगा।

आज दुनिया में जगह-जगह बाढ़, सूखा, जंगल की आग, कटिबंधीय क्षेत्रों में तूफान आदि की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ने का कारण खत्म होते जंगलों और जीवाश्व र्इंधन से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडल में बढ़ती मात्रा है। इसमें कोई शक नहीं कि ग्रीष्म लहर भी ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रत्यक्ष प्रभाव है। यूरोप के ठंडे मुल्कों में रिकार्ड गर्मी के बाद, चीन भी अभूतपूर्व गर्मी और सूखे के दौर से गुजर रहा है।

इन दिनों भारत और उसके आसपास के देशों में कहीं भंयकर बारिश तो कहीं कम वर्षा से सूखे का भारी संकट है। पाकिस्तान भीषण बाढ़ की चपेट में है। इस साल उत्तर भारत में भीषण गर्मी और लू के प्रकोप के बीच यूरोप में प्रचंड गर्मी पड़ने की खबरें आर्इं। चीन इस साल भीषण गर्मी की समस्या से जूझ रहा है। बताया जा रहा है कि इस साल चीन में इकसठ सालों में सबसे भयंकर गर्मी पड़ी है। तेजी से बढ़ते तापमान को देखते हुए लोगों को घरों में ही रहने की सलाह दी गई है। वहां बारिश न होने की वजह से कई इलाकों में भयंकर सूखा पड़ गया है। चीन की लाइफलाइन कहलाने वाली सबसे लंबी यांग्त्जी नदी लगभग सूख चुकी है।

जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को लेकर विशेषज्ञों की राय है कि ग्रीष्म लहर वैश्विक ताप का सीधा और स्पष्ट पैमाना बन गया है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने भी पाया था कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन प्रकृति में खतरनाक और व्यापक व्यवधान पैदा कर और दुनिया भर के अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। पैनल ने अपनी इस साल की रिपोर्ट में कहा कि चरम मौसम की घटनाओं के चलते लाखों लोगों को गंभीर भोजन और पानी की असुरक्षा का सामना करना पड़ा है, खासकर अफ्रीका, एशिया, मध्य और दक्षिण अमेरिका में, छोटे द्वीपों और आर्कटिक में। 3.6 अरब लोग जलवायु परिवर्तन की चपेट में हैं।

रिपोर्ट ने अपनी चेतावनी में यह कहते हुए जोड़ा कि दुनिया अगले दो दशकों में 1.5 डिग्री सेल्सियस की ग्लोबल वार्मिंग के साथ कई अपरिहार्य जलवायु खतरों का सामना कर रही है, जिसमें कहा गया है कि इस बढ़ते तापमान के कुछ परिणाम अपरिवर्तनीय होंगे। बढ़ी हुई ग्रीष्म लहर, सूखा और बाढ़ पहले से ही पौधों और जानवरों की सहनशीलता की सीमा से अधिक है, जिससे पेड़ों और मूंगा जैसी प्रजातियों में बड़े पैमाने पर मृत्यु दर बढ़ रही है।

इससे लाखों लोगों को, विशेष रूप से अफ्रीका, एशिया, मध्य और दक्षिण अमेरिका, छोटे द्वीपों और आर्कटिक में भोजन और पानी की असुरक्षा रेखांकित हुई है। आइपीसीसी की रिपोर्ट में आग्रह किया गया है कि 'जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है, साथ ही ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तेजी से, गहरी कटौती करनी होगी।' आइपीसीसी के अध्यक्ष होसुंग ली ने कहा है कि 'यह रिपोर्ट निष्क्रियता के परिणामों के बारे में एक गंभीर चेतावनी है।

यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन हमारी भलाई और एक स्वस्थ ग्रह के लिए गंभीर और बढ़ता खतरा है। आज हमारे कार्य तय करेंगे कि लोग कैसे रहेंगे और प्रकृति बढ़ते जलवायु जोखिमों के प्रति क्या प्रतिक्रिया करेगी।' 'नेचर क्लाइमेट चेंज' में छपी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि सागर के जलस्तर का बढ़ना अठहत्तर सेंटीमीटर तक जा सकता है। ऐसे में तटों के आसपास के निचले इलाकों का बड़ा हिस्सा डूब जाएगा, साथ ही बाढ़ और आंधियां बढ़ जाएंगी।

बाक्स और उनके साथियों ने इस बार कंप्यूटर माडल के बजाय दो दशक में लिए गए मापों और निगरानी के आंकड़ों का इस्तेमाल कर यह पता लगाने की कोशिश की कि ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पहले जो गर्मी झेल चुकी है, उसके आधार पर कितना बदलेगी। बर्फ की चादर के ऊपरी हिस्से को हर साल बर्फबारी से भर जाना होता है। हालांकि 1980 के बाद से ही यह इलाका बर्फ की कमी से जूझ रहा है।

जितनी बर्फ हर साल गिरती है, उससे कहीं ज्यादा पिघल जा रही है। बाक्स का कहना है कि शोधकर्ताओं ने जिस सिद्धांत का इस्तेमाल किया उसे आल्प्स के ग्लेशियरों में हुए बदलाव की व्याख्या करने के लिए तैयार किया गया था। इससे जाहिर है कि अगर ग्लेशियर पर ज्यादा बर्फ जमा होगी तो निचले हिस्से का विस्तार होगा। ग्रीनलैंड के मामले में कम हुई बर्फ के कारण निचला हिस्सा सिकुड़ रहा है, क्योंकि ग्लेशियर नई परिस्थितियों के हिसाब से खुद को संतुलित करते हैं।

आइपीसीसी के एक और विशेषज्ञ गेरहार्ड क्रिनर का कहना है कि जो जानकारी मिली है वह समुद्री जलस्तर के बारे में ज्यादा जटिल माडलों से कुल मिला कर मिली जानकारी से मेल खाती है। हालांकि वे इस पर सवाल जरूर उठाते हैं कि यह सब कुछ क्या इसी शताब्दी में हो जाएगा। क्रिनर के अनुसार यह काम हमें ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पर लंबे समय यानी कई सदी में होने वाले असर का आकलन देता है, लेकिन इस शताब्दी में होने वाले कम से कम असर का नहीं।

दुनिया औद्योगिक काल के पहले की तुलना में औसत रूप से 1.2 डिग्री सेल्सियस गर्म हो चुकी है। इसके नतीजे में लू और ज्यादा तेज आंधियों का सिलसिला बढ़ गया है। पेरिस जलवायु समझौते के तहत दुनिया के देश गर्मी को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर सहमत हुए हैं। आइपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी का जलवायु पर पड़ने वाले असर के बारे में कहा है कि अगर गर्मी में इजाफे को दो से ढाई डिग्री तक पर भी सीमित कर लिया जाए तो इसी सदी में पच्चीस मेगासिटी के निचले इलाके इसकी चपेट में आएंगे। इन जगहों पर 2010 तक 1.3 अरब लोग रहते थे।


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