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सरोज कुमार: बाजार जब रोजगार पैदा करना बंद कर दे तो समझिए अर्थव्यवस्था नीतिगत बीमारी की शिकार हो गई है, जिसका इलाज मुश्किल होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ कुछ ऐसा ही जान पड़ता है। चिंता की बात यह है कि कुशल हाथ बेकार हैं, फिर भी श्रम बाजार सिकुड़ रहा है। भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बेशक दुनिया के देश कमोबेश कठिनाई का सामना कर रहे हैं, लेकिन भारत की कठिनाई अलग तरह की है।
विशाल उपभोक्ता बाजार और उत्पादन की क्षमता होने के बावजूद यहां मांग और आपूर्ति का संकट है। बेरोजगारी की लंबी खिंचती परिस्थिति के बीच मांग में अतिरिक्त गिरावट की आशंका है। मांग खर्च पर निर्भर होती है और खर्च कमाई पर। कमाई की क्या स्थिति है, आंकड़े नहीं, जेब टटोल कर देख लीजिए।
मांग की एक नई खिड़की निर्यात में वृद्धि के साथ खुली थी, और उसके साथ ही रोजगार बाजार के पटरी पर लौटने की उम्मीद जगी थी। मगर भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण दुनिया में मंदी की आहट के साथ यह खिड़की भी बंद होती दिख रही है। निर्यात घटेगा तो जाहिर है विनिर्माण का इंजन सुस्त पड़ जाएगा। रोजगार की पैदावार रुक जाएगी।
भारतीय निर्यात में उछाल से उत्साहित कारपोरेट जगत ने 2021-22 में 791 परियोजनाओं के लिए 1,94,548 करोड़ रुपए निवेश की घोषणा की थी, जो 2020-21 की 576 परियोजनाओं के लिए 1,16,603 करोड़ रुपए निवेश की घोषणा से काफी अधिक है।
अगर यह सारा निवेश बाजार में उतरता तो निश्चित रूप से रोजगार के अवसर बनते। मगर जब मांग की ही संभावना धूमिल हो चली है, तो ऐसी स्थिति में भला कौन निवेशक अपनी पूंजी गड्ढे में फेंकना चाहेगा?
महामारी की रफ्तार थमने के बाद दुनिया के बाजार खुले तो मांग में भी तेजी आई। भारत ने 2022 में अब तक के रिकार्ड 421.89 अरब डालर का निर्यात किया। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने परिस्थिति को पलट दिया है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मंदी की आहट के कारण मांग घटने लगी है। इसका असर भारत के निर्यात पर पड़ा है। जुलाई 2022 में भारत का निर्यात गिर कर 35.24 अरब डालर हो गया, जो जून में 35.51 डालर था।
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च ने अपने एक अध्ययन रपट में कहा है कि निर्यात में वृद्धि के कारण भारत के विनिर्माण क्षेत्र में 2022 में जो तेजी आई थी, निर्यात में गिरावट के कारण वह 2023 में नहीं रहने वाली है। एजेंसी के अनुसार, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मंदी की चिंता और चीन में कोविड नियंत्रण के कड़े उपायों के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन प्रभावित हुआ है।
रपट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2016 से वित्त वर्ष 2020 के दौरान भारत का वार्षिक औसत निर्यात 297.02 अरब डालर रहा था, जो वित्त वर्ष 2019 में बढ़ कर 330.08 अरब डालर हो गया। और 2021-22 में यह रिकार्ड 421.89 अरब डालर पर पहुंच गया।
निर्यात में यह वृद्धि मुख्य रूप से विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात के कारण हुई। यानी विनिर्मित उत्पादों का निर्यात बढ़ने से औद्योगिक इकाइयों ने अपनी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन किया, और इसके कारण 2022 में नौकरियों की उम्मीद भी वापस लौटी। लेकिन मंदी के आसन्न संकट ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है।
भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के दो सबसे बड़े ग्राहक अमेरिका और यूरोप के लिए निर्यात की रफ्तार सुस्त पड़ गई है। वाणिज्यिक जानकारी एवं सांख्यिकी महानिदेशालय (डीजीसीआइएस) के आंकड़े बताते हैं कि यूरोप के लिए भारतीय निर्यात की वृद्धि दर जून 2022 में घट कर उनतालीस फीसद रह गई, जो अप्रैल 2022 में इकसठ फीसद और मई 2022 में चालीस फीसद थी।
इसी तरह अमेरिका के लिए भारतीय निर्यात की वृद्धि दर जून में घट कर उनतीस फीसद रह गई, जो मई में बत्तीस और अप्रैल में इकतीस फीसद थी। वित्त वर्ष 2022-23 की प्रथम तिमाही में भारत ने यूरोप को 19.3 अरब डालर, और अमेरिका को 21.7 अरब डालर मूल्य की वस्तुओं-सेवाओं का निर्यात किया। भारतीय सामान के चौथे सबसे बड़े ग्राहक चीन के लिए निर्यात जून तिमाई में इकतीस फीसद घट कर 4.7 अरब डालर रह गया।
भारत के कुल निर्यात में अमेरिका और यूरोप की सम्मिलित हिस्सेदारी 2022 में तैंतीस फीसद थी, जबकि चीन की हिस्सेदारी पांच फीसद। यानी भारतीय निर्यात का अड़तीस फीसद हिस्सा संकट में है। निर्यात के इतने बड़े हिस्से के संकटग्रस्त होने से घरेलू उत्पादन पर कितना असर पड़ेगा, और इसका रोजगार पर क्या असर होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस साल गेहूं का उत्पादन दस से तीस फीसद घट गया। अब असमान बारिश के कारण धान का उत्पादन भी आठ फीसद कम होने का अनुमान है। यानी जिस कृषि क्षेत्र ने महामारी के दौरान रोजगार बाजार और अर्थव्यवस्था दोनों को सहारा दिया था, वहां से भी घरेलू मांग में किसी तरह की मदद मिलने की उम्मीद नहीं है।
इतने बड़े घरेलू बाजार में मांग होती, तो निर्यात घटने के बाद भी विनिर्माण क्षेत्र प्रभावित नहीं होता, और रोजगार की परिस्थिति इतनी जटिल नहीं होती। मगर गलत आर्थिक नीतियों के कारण आम आबादी के पास मांग करने की शक्ति नहीं रह गई है। इसका खमियाजा रोजगार बाजार, और अंत में अर्थव्यवस्था को भुगतना है।
सेंटर फार मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय रोजगार बाजार इस समय एक विचित्र स्थिति में पहुंच चुका है। यह बूढ़ी और कम पढ़ी-लिखी श्रमशक्ति की एक बस्ती बन चुका है। यहां कामकाजी उम्र के पढ़े-लिखे युवाओं के लिए काम नहीं है। कामकाजी उम्र (15-24 वर्ष) का हो जाने के बाद भी युवा आबादी विद्यार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं।
वित्त वर्ष 2016-17 में जहां कामकाजी उम्र के लगभग पंद्रह फीसद लोग विद्यार्थी थे, वहीं 2019-20 में इस उम्र के विद्यार्थियों की संख्या बढ़ कर अठारह फीसद हो गई। 2020-21 में इक्कीस फीसद और 2021-22 में तेईस फीसद हो गई। वित्त वर्ष 2016-17 और 2021-22 के बीच देश में कामकाजी आबादी 12.10 करोड़ बढ़ गई, जबकि इसी अवधि में श्रमशक्ति एक करोड़ घट गई।
वित्त वर्ष 2016-17 में देश में रोजगार में लगी कुल श्रमशक्ति का एक-चौथाई हिस्सा तीस साल तक की उम्र के लोगों का था। जो 2019-20 में घट कर इक्कीस फीसद और 2021-22 में अठारह फीसद रह गया। अर्थव्यवस्था के लिए यह एक खतरनाक संकेत है। किसी देश की कामकाजी युवा आबादी वहां की बड़ी पूंजी मानी जाती है। जब देश अपनी उपलब्ध पूंजी का ही उपयोग न कर पाए तो वह किस घाट लगेगा, कह पाना कठिन है।
भारतीय श्रम बाजार में पढ़े-लिखे लोगों के लिए भी जगह नहीं रह गई है। वित्त वर्ष 2018-19 में जहां स्रातक और परास्रातक श्रमिकों की हिस्सेदारी 13.4 फीसद थी, वहीं 2021-22 में यह घटकर 12.2 फीसद रह गई। भारतीय श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा छठी से बारहवीं पास लोगों का है।
वित्त वर्ष 2016-17 में दसवीं, बारहवीं पास श्रमिकों का हिस्सा अठाईस फीसद था, जो 2021-22 में बढ़ कर अड़तीस फीसद हो गया। वित्त वर्ष 2016-17 में श्रमशक्ति में ऐसे श्रमिकों की हिस्सेदारी अठारह फीसद थी, जो 2021-22 में बढ़ कर उनतीस फीसद हो गई। बाजार में मांग नहीं, श्रम बाजार में रोजगार नहीं, और निजी निवेशक तैयार नहीं। बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। फिर तो भविष्य बेरोजगारी और बदहाली का ही है।